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अभिधान राजेन्द्र कोष में,
सूक्ति-सुधारस
प्रथम खण्ड
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
अ. रा. कोष
अ.रा. कोष
अ.रा.कोष
अ. रा. कोष
अ.रा.कोष
डॉ. प्रियदर्शनाश्री डॉ. सुदर्शनाश्री
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'विश्वपूज्य श्री' : जीवन-रेखा जन्म : ई. सन् 3 दिसम्बर 1827 पौष शुक्ला सप्तमी राजस्थान की वीरभूमि एवं प्रकृति की सुरम्यस्थली भरतपुर में
जन्म-नाम : रत्नराज। माता-पिता : केशर देवी, पारख गौत्रीय श्री ऋषभदासजी दीक्षा : ई. सन् 1845 में श्रीमद् प्रमोदसूरिजीम. सा. की तारक निश्रा में झीलों की नगरी उदयपुर में।
अध्ययन : गुरु-चरणों में रहकर विनयपूर्वक श्रुताराधन ! व्याकरण, न्याय, दर्शन, काव्य, कोष, साहित्यादि का गहन अध्ययन एवं 45 जैनागमों का सटीक गंभीर अनुशीलन!
आचार्यपद : ई. सन् 1868 में आहोर (राज.)। क्रियोद्धार : ई. सन् 1869, वैशाख शुक्ला दसमी को जावरा (म. प्र.) तीर्थोद्धार : श्री भाण्डवपुर, कोराजी, स्वर्णगिरि जालोर एवं तालनपुर । नूतनतीर्थ-स्थापना : श्री मोहनखेड़ा तीर्थ, जिला-धार (म. प्र.)। ध्यान-साधना के मुख्य केन्द्र : स्वर्णगिरि, चामुण्डवन व मांगीतुंगीपहाड।
साहित्य-सर्जन : अभिधान राजेन्द्र कोष, पाइयसद्दम्बुहि, कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, सिद्धहैम प्राकृत टीकादि 61 ग्रन्थ ।
विश्वपूज्य उपाधिः उनके महत्तम ग्रंथराज अभिधान राजेन्द्र कोष के कारण 'विश्वपूज्य' के पद पर प्रतिष्ठित हुए। दिवंगत : राजगढ़ जि. धार (म.प्र.) 21 दिसंबर 1906 ।
समाधि-स्थल : उनका भव्यतम-कलात्मक समाधिमंदिर मोहनखेड़ा (राजगढ़ म.प्र.) तीर्थ में देव-विमान के समान शोभायमान है। प्रति वर्ष लाखों श्रद्धालु गुरु-भक्त वहाँ दर्शनार्थ जाते हैं। मेला पौष-शुक्ला सप्तमी को प्रतिवर्ष लगता है। इस चमत्कारिक मंदिरजी में मेले के दिन अमी-केसर झरता है। लन्दन में जैन मंदिर में उनकी नव-निर्मित प्रतिमा लेटेस्टर में प्रतिष्ठित हैं। विश्वपूज्य प्रेम और करुणा के रूप में सबके हृदय मंदिर में विराजमान हैं। विश्वपज्य ने शिक्षा और समाजोत्थान के लिए सरस्वती मंदिर, सांस्कृतिक उत्थान के लिए संस्कृति केन्द्र-मंदिर एवं ग्राम-ग्राम नगर-नगर इल विहार कर अहिंस्ण मक-क्रान्ति और नैतिक जीवन जीने के लिए मानवमात्र
को अभिप्रेरित किया। विज्य का जीवन ज्योतिर्मय था । उनक संदेश था - 'जीओ और जीने दो'- क्योंकि सभी प्राणी मैत्री के भर में बँधे हुए हैं। परस्परोपग्रहो
वानाम्' की निर्मल गंग-ना प्रवाहित कर उन्होंने न केवल भारतीय संस्कृति की गरिमा बढ़ाई, अपितु विश्व-मानस को भगवान महावीर के अहिंसा और प्रेम का अमृत पिलाया। उनकी रचनाएँ लोक-मंगल की अमृत गगरियाँ .
यविश्वसाहित्य का चिन्तामणि रल हैं।
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विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि
महोत्सव के उपलक्ष्य में प्रथम खण्ड
अभिधान राजेन्द्र कोष में,
सूक्ति-सुधारस
प्रथम खण्ड
दिव्याशीष प्रदाता : परम पूज्य, परम कृपालु, विश्वपूज्य प्रभुश्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
आशीषप्रदाता: राष्ट्रसन्त वर्तमानाचार्यदेवेश श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा.
प्रेरिका : प. पू. वयोवृद्धा सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा.
लेखिका : साध्वी डॉ. प्रियदर्शनाश्री,
(एम. ए. पीएच-डी.) साध्वी डॉ. सुदर्शनाश्री,
(एम. ए. पीएच-डी.)
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WDIMILUNTHS
सुकृत सहयोगी वोरा खूबचंदभाई त्रिभोवनदास मु. पो. थराद (उत्तर गुजरात)
प्राप्ति स्थान
श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी
आधुनिक वस्त्र विक्रेता सदर बाजार, भीनमाल-३४३०२९ फोन : (०२९६९) २०१३२
प्रथम आवृत्ति - वीर सम्वत् : २५२५
राजेन्द्र सम्वत् : ९२ विक्रम सम्वत् : २०५५ - ईस्वी सन् : १९९८
मूल्य : ७५-०० प्रतियाँ : २०००
अक्षराङ्कन
लेखित १०, रूपमाधुरी सोसायटी, माणेकबाग, अहमदाबाद-१५
मुद्रण सर्वोदय ओफसेट प्रेमदरवाजा बहार, अहमदाबाद.
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अनुक्रम
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कहा क्या ?
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१.
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मंगलकामना - प. पू. राष्ट्रसन्त श्रीमद्पद्मसागरसूरीश्वरजी म.सा.
00४. रस - पूर्ति - प. पू. मुनिप्रवर श्री जयानन्दविजयजी म.सा. पुरोवाक् साध्वीद्वय डॉ. प्रिय सुदर्शना श्री
आभार - साध्वीद्वय डॉ. प्रिय- सुदर्शना श्री सुकृत सहयोगी -
श्रीमान् खूबचंदभाई त्रिभोवनदास वोरा
आमुख - डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी मन्तव्य - डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी (पद्मविभूषण, पूर्वभारतीय राजदूत - ब्रिटेन)
१०. दो शब्द - पं. दलसुखभाई मालवणिया
३.
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समर्पण - साध्वी प्रिय-सुदर्शना श्री शुभाकांक्षा - प. पू. राष्ट्रसन्त श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा.
-
११. 'सूक्ति-सुधारस' : मेरी दृष्टि में - डॉ. नेमीचंद जैन
Q १२. मन्तव्य - डॉ. सागरमल जैन
१३. मन्तव्य - पं. गोविन्दराम व्यास
१४. मन्तव्य - पं. जयनंदन झा व्याकरण साहित्याचार्य XQ १५. मन्तव्य - पं. हीरालाल शास्त्री एम.ए.
Q १६. मन्तव्य - डॉ. अखिलेशकुमार राय
१७. मन्तव्य - डॉ.
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अमृतलाल गाँधी
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१८. मन्तव्य भागचन्द जैन कवाड, प्राध्यापक (अंग्रेजी) ३७ ( १९. दर्पण
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()() २०. 'विश्वपूज्य': जीवन-दर्शन
४३ 0
५३
0
२१. 'सूक्ति-सुधारस' ( प्रथम खण्ड)
२२. प्रथम परिशिष्ट - (अकारादि अनुक्रमणिका) O २३. द्वितीय परिशिष्ट - (विषयानुक्रमणिका) 90 २४. तृतीय परिशिष्ट -
0
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(अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका) २५. चतुर्थ परिशिष्ट - जैन एवं जैनेतर ग्रन्थ: गाथा / श्लोकादि अनुक्रमणिका
२६. पंचम परिशिष्ट -
XX
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O २७. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय
२८. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ
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('सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रन्थ सूची)
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विश्वपूज्य प्रातःस्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा.
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पू. राष्ट्रसन्त आचार्य श्रीमद्
विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा.
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परम पूज्या सरलस्वभाविनी साध्वीरत्ना
श्री महाप्रभाश्रीजी म.सा.
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समर्पण
रवि-प्रभा सम है मुखश्री, चन्द्र सम अति प्रशान्त । तिमिर में भटके जनके, दीप उज्जवल कान्त ॥ १ ॥ लघुता में प्रभुता भरी, विश्व-पूज्य मुनीन्द्र । करुणा सागर आप थे, यति के बने यतीन्द्र ॥ २ ॥ लोक-मंगली थे कमल, योगीश्वर गुरुराज । सुमन-माल सुन्दर सजी, करे समर्पण आज ॥ ३ ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष, रचना रची ललाम । नित चरणों में आपके, विधियुत् करें प्रणाम ॥ ४ ॥ काव्य-शिल्प समझें नहीं, फिर भी किया प्रयास । गुरु-कृपा से यह बने, जन-मन का विश्वास ॥ ५ ॥ प्रियदर्शना की दर्शना, सुदर्शना भी साथ । राज रहे राजेन्द्र का, चरण झुकाते माथ ॥ ६ ॥
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- श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु - श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु साध्वी प्रियदर्शनाश्री साध्वी सुदर्शनाश्री
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शुभाकांक्षा
विश्वविश्रत है श्री अभिधान राजेन्द्र कोष । विश्व की आश्चर्यकारक घटना है।
साधन दुर्लभ समय में इतना सारा संगठन, संकलन अपने आप में एक अलौकिक सा प्रतीत होता है। रचनाकार निर्माता ने वर्षों तक इस कोष प्रणयन का चिन्तन किया, मनोयोगपूर्वक मनन किया, पश्चात् इस भगीरथ कार्य को संपादित करने का समायोजन किया ।
___ महामंत्र नवकार की अगाध शक्ति ! कौन कह सकता है शब्दों में उसकी शक्ति को । उस महामंत्र में उनकी थी परम श्रद्धा सह अनुरक्ति एवं सम्पूर्ण समर्पण के साथ उनकी थी परम भक्ति!
इस त्रिवेणी संगम से संकल्प साकार हुआ एवं शुभारंभ भी हो गया। १४ वर्षों की सतत साधना के बाद निर्मित हुआ यह अभिधान राजेन्द्र कोष ।
___ इसमें समाया है सम्पूर्ण जैन वाङ्मय या यों कहें कि जैन वाङ्मय का प्रतिनिधित्व करता है यह कोष । अंगोपांग से लेकर मूल, प्रकीर्णक, छेद ग्रन्थों के सन्दर्भो से समलंकृत है यह विराट्काय ग्रन्थ ।
इस बृहद् विश्वकोष के निर्माता हैं परम योगीन्द्र सरस्वती पुत्र, समर्थ शासनप्रभावक , सत्क्रिया पालक, शिथिलाचार उन्मूलक, शुद्धसनातन सन्मार्ग प्रदर्शक जैनाचार्य विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराजा ! __सागर में रत्नों की न्यूनता नहीं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' यह कोष भी सागर है जो गहरा है, अथाह है और अपार है । यह ज्ञान सिंधु नाना प्रकार की सूक्ति रत्नों का भंडार है।
इस ग्रन्थराज ने जिज्ञासुओं की जिज्ञासा शान्त की । मनीषियों की मनीषा में अभिवृद्धि की । ___ इस महासागर में मुक्ताओं की कमी नहीं । सूक्तियों की श्रेणिबद्ध पंक्तियाँ प्रतीत होती हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/6
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प्रस्तुत पुस्तक है जन-जन के सम्मुख 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (१ से ७ खण्ड) ।
मेरी आज्ञानुवर्तिनी विदुषी सुसाध्वी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं सुसाध्वीश्री डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने अपनी गुरुभक्ति को प्रदर्शित किया है इस 'सूक्ति-सुधारस' को आलेखित करके । गुरुदेव के प्रति संपूर्ण समर्पित उनके भाव ने ही यह अनूठा उपहार पाठकों के सम्मुख रखने को प्रोत्साहित किया है उनको । यह 'सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड ) जिज्ञासु जनों के लिए अत्यन्त ही सुन्दर है । 'गागर में सागर है' । गुरुदेव की अमर कृति कालजयी कृति है, जो उनकी उत्कृष्ट त्याग भावना की सतत अप्रमत्त स्थिति को उजागर करनेवाली कृति है । निरन्तर ज्ञान - ध्यान में लीन रहकर तपोधनी गुरुदेवश्री 'महतो महियान्' पद पर प्रतिष्ठित हो गए हैं; उन्हें कषायों पर विजयश्री प्राप्त करने में बड़ी सफलता मिली और वे बीसवीं शताब्दि के सदा के लिए संस्मरणीय परमश्रेष्ठ पुरुष बन गए हैं ।
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प्रस्तुत कृति की लेखिका डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी अभिनन्दन की पात्रा हैं, जो अहर्निश 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के गहरे सागरमें गोते लगाती रहती हैं । 'जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पेठ' की उक्ति के अनुसार श्रम, समय, मन-मस्तिष्क सभी को सार्थक किया है श्रमणी द्वयने ।
मेरी ओर से हार्दिक अभिनंदन के साथ खूब - खूब बधाई इस कृति की लेखिका साध्वीद्वय को । वृद्धि हो उनकी इस प्रवृत्ति में, यही आकांक्षा ।
विजय जयन्तसेन सूरि
राजेन्द्र सूरि जैन ज्ञानमंदिर
अहमदाबाद
दि. २९-४-९८ अक्षय तृतीया
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/7
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मगन कामना
विदुषी डॉ. साध्वीश्री प्रिय-सुदर्शनाश्रीजीम. आदि अनुवंदना सुखसाता ।
आपके द्वारा प्रेषित 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) एवं 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' की पाण्डुलिपियाँ मिली हैं । पुस्तकें सुंदर हैं । आपकी श्रुत भक्ति अनुमोदनीय है। आपका यह लेखनश्रम अनेक व्यक्तियों के लिये चित्त के विश्राम का कारण बनेगा, ऐसा मैं मानता हूँ। आगमिक साहित्य के चिंतन स्वाध्याय में आपका साहित्य मददगार बनेगा।
उत्तरोत्तर साहित्य क्षेत्र में आपका योगदान मिलता रहे, यही मंगल कामना करता हूँ।
उदयपुर 14-5-98
पद्मसागरसूरि श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
कोबा-382009 (गुज.)
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/8
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स-पूर्ति
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जिनशासन में स्वाध्याय का महत्त्व सर्वाधिक है । जैसे देह प्राणों पर आधारित है वैसे ही जिनशासन स्वाध्याय पर । आचार - प्रधान ग्रन्थों में साधु के लिए पन्द्रह घंटे स्वाध्याय का विधान है । निद्रा, आहार, विहार एवं निहार का जो समय है वह भी स्वाध्याय की व्यवस्था को सुरक्षित रखने के लिए है अर्थात् जीवन पूर्ण रूप से स्वाध्यायमय ही होना चाहिए ऐसा जिनशासन का उद्घोष है । वाचना, पृच्छना, परावर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मकथा इन पाँच प्रभेदों से स्वाध्याय के स्वरूप को दर्शाया गया है, इनका क्रम व्यवस्थित एवं व्यावहारिक है ।
-
श्रमण जीवन एवं स्वाध्याय ये दोनों दूध में शक्कर की मीठास के समान एकमेक हैं | वास्तविक श्रमण का जीवन स्वाध्यायमय ही होता है । क्षमाश्रमण का अर्थ है 'क्षमा के लिए श्रम रत' और क्षमा की उपलब्धि स्वाध्याय से ही प्राप्त होती है । स्वाध्याय हीन श्रमण क्षमाश्रमण हो ही नहीं सकता । श्रमण वर्ग आज स्वाध्याय रत हैं और उसके प्रतिफल रूप में अनेक साधु-साध्वी आगमज्ञ बने हैं ।
प्रात:स्मरणीय विश्व पूज्य श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा ने अभिधान . राजेन्द्र कोष के सप्त भागों का निर्माण कर स्वाध्याय का सुफल विश्व को भेंट किया है ।
उन सात भागों का मनन चिन्तन कर विदुषी साध्वीरत्नाश्री महाप्रभाश्रीजीम. की विनयरत्ना साध्वीजी श्री डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी ने " अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" को सात खण्डों में निर्मित किया हैं जो आगमों के अनेक रहस्यों के मर्म से ओतप्रोत हैं ।
साध्वी द्वय सतत स्वाध्याय मग्ना हैं, इन्हें अध्ययन एवं अध्यापन का इतना रस है कि कभी-कभी आहार की भी आवश्यकता नहीं रहती । अध्ययनअध्यापन का रस ऐसा है कि जो आहार के रस की भी पूर्ति कर देता है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /9
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'सूक्ति सुधारस' (१ से ७ खण्ड) के माध्यम से इन्होंने प्रवचनसेवा, दादागुरुदेव श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के वचनों की सेवा, तथा संघ-सेवा का अनुपम कार्य किया है।
'सूक्ति सुधारस' में क्या है ? यह तो यह पुस्तक स्वयं दर्शा रही है। पाठक गण इसमें दर्शित पथ पर चलना प्रारंभ करेंगे तो कषाय परिणति का हास होकर गुणश्रेणी पर आरोहण कर अति शीघ्र मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनेंगे; यह निस्संदेह सत्य है।
साध्वी द्वय द्वारा लिखित ये 'सात खण्ड' भव्यात्मा के मिथ्यात्वमल को दूर करने में एवं सम्यग्दर्शन प्राप्त करवाने में सहायक बनें, यही अंतराभिलाषा.
भीनमाल वि. संवत् २०५५, वैशाख वदि १०
मुनि जयानंद
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/10
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परावाक
लगभग दस वर्ष पूर्व जालोर - स्वर्णगिरितीर्थ - विश्वपूज्य की साधना स्थली पर हमनें 36 दिवसीय अखण्ड मौनपूर्वक आयम्बिल व जप के साथ आराधना की थी, उस समय हमारे हृदय-मन्दिर में विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्र सूरीश्वरजी गुरुदेव श्री की भव्यतम प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई, जिसके दर्शन कर एक चलचित्र की तरह हमारे नयन-पट पर गुरुवर की सौम्य, प्रशान्त, करुणाई और कोमल भावमुद्रा सहित मधुर मुस्कान अंकित हो गई। फिर हमें उनके एक के बाद एक अभिधान राजेन्द्र कोष के सप्त भाग दिखाई दिए और उन ग्रन्थों के पास एक दिव्य महर्षि की नयन रम्य छवि जगमगाने लगी। उनके नयन खुले और उन्होंने आशीर्वाद मुद्रा में हमें संकेत दिए ! और हम चित्र लिखितसी रह गईं । तत्पश्चात् आँखें खोली तो न तो वहाँ गुरुदेव थे और न उनका कोष । तभी से हम दोनों ने दृढ़ संकल्प किया कि हम विश्वपूज्य एवं उनके द्वारा निर्मित कोष पर कार्य करेंगी और जो कुछ भी मधु-सञ्चय होगा, वह जनता-जनार्दन को देंगी ! विश्वपूज्य का सौरभ सर्वत्र फैलाएँगी । उनका वरदान हमारे समस्त ग्रन्थ-प्रणयन की आत्मा है।
16 जून, सन् 1989 के शुभ दिन 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में, 'सूक्तिसुधारस' के लेखन -कार्य का शुभारम्भ किया ।
वस्तुतः इस ग्रन्थ-प्रणयन की प्रेरणा हमें विश्वपूज्य गुरुदेवश्री की असीम कृपा-वृष्टि, दिव्याशीर्वाद, करुणा और प्रेम से ही मिली है।
'सूक्ति' शब्द सु + उक्ति इन दो शब्दों से निष्पन्न है। सु अर्थात् श्रेष्ठ और उक्ति का अर्थ है कथन । सूक्ति अर्थात् सुकथन । सुकथन जीवन को सुसंस्कृत एवं मानवीय गुणों से अलंकृत करने के लिए उपयोगी है। सैकड़ों दलीलें एक तरफ और एक चुटैल सुभाषित एक तरफ । सुत्तनिपात में कहा
'विञ्चात सारानि सुभासितानि' । सुभाषित ज्ञान के सार होते हैं । दार्शनिकों, मनीषियों, संतों, कवियों तथा साहित्यकारों ने अपने सद्ग्रन्थों में मानव को जो हितोपदेश दिया है तथा 1. सुत्तनिपात - 22116
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/11
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महर्षि-ज्ञानीजन अपने प्रवचनों के द्वारा जो सुवचनामृत पिलाते हैं - वह संजीवनी औषधितुल्य है। ___ नि:संदेह सुभाषित, सुकथन या सूक्तियाँ उत्प्रेरक, मार्मिक, हृदयस्पर्शी, संक्षिप्त, सारगर्भित अनुभूत और कालजयी होती हैं । इसीकारण सुकथनों । सूक्तियों का विद्युत्-सा चमत्कारी प्रभाव होता है । सूक्तियों की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए महर्षि वशिष्ठ ने योगवाशिष्ठ में कहा है – “महान् व्यक्तियों की सूक्तियाँ अपूर्व आनन्द देनेवाली, उत्कृष्टतर पद पर पहुँचानेवाली और मोह को पूर्णतया दूर करनेवाली होती हैं ।"। यही बात शब्दान्तर में आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कही है - "मनुष्य के अन्तर्हदय को जगाने के लिए, सत्यासत्य के निर्णय के लिए, लोक-कल्याण के लिए, विश्व-शान्ति और सम्यक् तत्त्व का बोध देने के लिए सत्पुरुषों की सूक्ति का प्रवर्तन होता है ।" :
सुवचनों, सुकथनों को धरती का अमृतरस कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी । कालजयी सूक्तियाँ वास्तव में अमृतरस के समान चिरकाल से प्रतिष्ठित रही हैं और अमृत के सदृश ही उन्होंने संजीवनी का कार्य भी किया है । इस संजीवनी रस के सेवन मात्र से मृतवत् मूर्ख प्राणी, जिन्हें हम असल में मरे हुए कहते हैं, जीवित हो जाते हैं, प्राणवान् दिखाई देने लगते हैं । मनीषियों का कथन हैं कि जिसके पास ज्ञान है, वही जीवित है, जो अज्ञानी है वह तो मरा हुआ ही होता है। इन मृत प्राणियों को जीवित करने का अमृत महान् ग्रन्थ अभिधान-राजेन्द्र कोष में प्राप्त होगा । शिवलीलार्णव में कहा है - "जिस प्रकार बालू में पड़ा पानी वहीं सूख जाता है, उसीप्रकार संगीत भी केवल कान तक पहुँचकर सूख जाता है, किन्तु कवि की सूक्ति में ही ऐसी शक्ति है, कि वह सुगन्धयुक्त अमृत के समान हृदय के अन्तस्तल तक पहुँचकर मन को सदैव आहलादित करती रहती है । 3 इसीलिए 'सुभाषितों का रस अन्य रसों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है ।' 4 अमृतरस छलकाती ये सूक्तियाँ
1.
2.
अपूर्वाहलाद दायिन्य: उच्चस्तर पदाश्रयाः । अतिमोहापहारिण्यः सूक्तयो हि महियसाम् ॥
योगवाशिष्ठ 54:/5 प्रबोधाय विवेकाय, हिताय प्रशमाय च । सम्यक् तत्त्वोपदेशाय, सतां सूक्ति प्रवर्तते ॥
ज्ञानार्णव कर्णगतं शुष्यति कर्ण एव, संगीतकं सैकत वारिरीत्या । आनन्दयत्यन्तरनुप्रविष्य, सूक्ति कवे रेव सुधा सगन्धा ।। - शिवलीलार्णव नूनं सुभाषित रसोन्य: रसातिशायी – योग वाशिष्ठ 5/4/5
सार
3.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/12
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अन्तस्तल को स्पर्श करती हुई प्रतीत होती है । वस्तुतः जीवन को सुरभित व सुशोभित करनेवाला सुभाषित एक अनमोल रत्न है ।
सुभाषित में जो माधुर्य रस होता है, उसका वर्णन करते हुए कहा है - "सुभाषित का रस इतना मधुर [मीठा] है कि उसके आगे द्राक्षा म्लानमुखी हो गई । मिश्री सूखकर पत्थर जैसी किरकिरी हो गई और सुधा भयभीत होकर स्वर्ग में चली गई ।" 1
अभिधान राजेन्द्र कोष की ये सूक्तियाँ अनुभव के 'सार' जैसी, समुद्र-मन्थन के 'अमृत' जैसी, दघि-मन्थन के 'मक्खन' जैसी और मनीषियों के आनन्ददायक 'साक्षात्कार' जैसी "देखन में छोटे लगे, घाव करे गम्भीर" की उक्ति को चरितार्थ करती हैं । इनका प्रभाव गहन हैं । ये अन्तर ज्योति जगाती हैं।
वास्तव में, अभिधान राजेन्द्र कोष एक ऐसी अमरकृति है, जो देशविदेश में लोकप्रियता प्राप्त कर चुकी है। यह एक ऐसा विराट् शब्द-कोष है, जिसमें परम मधुर अर्धमागधी भाषा, इक्षुरस के समान पुष्टिकारक प्राकृतभाषा और अमृतवषिणी संस्कृत भाषा के शब्दों का सरस व सरल निरुपण हुआ है।
विश्वपूज्य परमाराध्यपाद मंगलमूर्ति गुरुदेव श्रीमद् राजेन्द्र-सूरीश्वरजी महाराजा साहेब पुरातन ऋषि परम्परा के महामुनीश्वर थे, जिनका तपोबल एवं ज्ञान-साधना अनुपम, अद्वितीय थी । इस प्रज्ञामहषि ने सन् 1890 में इस कोष का श्रीगणेश किया तथा सात भागों में 14 वर्षों तक अपूर्व स्वाध्याय, चिन्तन एवं साधना से सन् 1903 में परिपूर्ण किया । लोक-मङ्गल का यह कोष सुधासिन्धु है। . इस कोष में सूक्तियों का निरुपण-कौशल पण्डितों, दार्शनिकों और साधारण जनता-जनार्दन के लिए समान उपयोगी है ।
इस कोष की महनीयता को दर्शाना सूर्य को दीपक दिखाना है ।
हमने अभिधान राजेन्द्र कोष की लगभग 2700 सूक्तियों का हिन्दी सरलार्थ प्रस्तुत कृति 'सूक्ति सुधारस' के सात खण्डों में किया है ।
'सूक्ति सुधारस' अर्थात् अभिधान राजेन्द्र-कोष-सिन्धु के मन्थन से निःसृत अमृत-रस से गूंथा गया शाश्वत सत्य का वह भव्य गुलदस्ता है, जिसमें 2667 सुकथनों/सूक्तियों की मुस्कराती कलियाँ खिली हुई हैं।
ऐसे विशाल और विराट कोष-सिन्धु की सूक्ति रूपी मणि-रत्नों को 1. द्राक्षाम्लानमुखी जाता, शर्करा चाश्मतां गता, सुभाषित रसस्याग्रे, सुधा भीता दिवंगता ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/13
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खोजना कुशल गोताखोर से सम्भव है। हम निपट अज्ञानी हैं - न तो साहित्यविभूषा को जानती हैं, न दर्शन की गरिमा को समझती हैं और न व्याकरण की बारीकी समझती हैं, फिर भी हमने इस कोष के सात भागों की सूक्तियों को सात खण्डों में व्याख्यायित करने की बालचेष्टा की है। यह भी विश्वपूज्य के प्रति हमारी अखण्ड भक्ति के कारण । हमारा बाल प्रयास केवल ऐसा ही है -
वक्तुं गुणान् गुण समुद्र ! शशाङ्ककान्तान् । कस्ते क्षमः सुरगुरु प्रतिमोऽपि बुद्ध्या कल्पान्त काल पवनोद्धत नक्र चक्रं ।
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ हमने अपनी भुजाओं से कोष रूपी विशाल समुद्र को तैरने का प्रयास केवल विश्व-विभु परम कृपालु गुरुदेवश्री के प्रति हमारी अखण्ड श्रद्धा और प.पू. परमाराध्यपाद प्रशान्तमूर्ति कविरत्न आचार्य देवेश श्रीमद् विजय विद्याचन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. तत्पट्टालंकार प. पूज्यपाद साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी महाराजा साहेब की असीमकृपा तथा परम पूज्या परमोपकारिणी गुरुवर्या श्री हेतश्रीजी म.सा. एवं परम पूज्या सरलस्वभाविनी स्नेह-वात्सल्यमयी साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. [हमारी सांसारिक पूज्या दादीजी] की प्रीति से किया है । जो कुछ भी इसमें हैं, वह इन्हीं पञ्चमूर्ति का प्रसाद है।
हम प्रणत हैं उन पंचमूति के चरण कमलों में, जिनके स्नेह-वात्सल्य व आशीर्वचन से प्रस्तुत ग्रन्थ साकार हो सका है।
हमारी जीवन-क्यारी को सदा सींचनेवाली परम श्रद्धेया [हमारी संसारपक्षीय दादीजी] पूज्यवर्या श्री के अनन्य उपकारों को शब्दों के दायरे में बाँधने में हम असमर्थ हैं । उनके द्वारा प्राप्त अमित वात्सल्य व सहयोग से ही हमें सतत ज्ञान-ध्यान, पठन-पाठन, लेखन व स्वाध्यायादि करने में हरतरह की सुविधा रही है। आपके इन अनन्त उपकारों से हम कभी भी उऋण नहीं हो सकतीं। . हमारे पास इन गुरुजनों के प्रति आभार प्रदर्शन करने के लिए न तो शब्द है, न कौशल है, न कला है और न ही अलंकार ! फिर भी हम इनकी करुणा, कृपा और वात्सल्य का अमृतपान कर प्रस्तुत ग्रंथ के आलेखन में सक्षम बन सकी हैं।
हम उनके पद-पद्मों में अनन्यभावेन समर्पित हैं, नतमस्तक हैं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/14
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इसमें जो कुछ भी श्रेष्ठ और मौलिक है, उस गुरु-सत्ता के शुभाशीष का ही यह शुभ फल है।
विश्वपूज्य प्रभु श्रीमद् राजेन्द्रसूरि शताब्दि-दशाब्दि महोत्सव के उपलक्ष्य में अभिधान राजेन्द्र कोष के सुगन्धित सुमनों से श्रद्धा-भक्ति के स्वर्णिम धागे से गूंथी यह प्रथम सुमनमाला उन्हें पहना रही हैं, विश्वपूज्य प्रभु हमारी इस नन्हीं माला को स्वीकार करें । ___ हमें विश्वास है यह श्रद्धा-भक्ति-सुमन जन-जीवन को धर्म, नीतिदर्शन-ज्ञान-आचार, राष्ट्रधर्म, आरोग्य, उपदेश, विनय-विवेक, नम्रता, तपसंयम, सन्तोष-सदाचार, क्षमा, दया, करुणा, अहिंसा-सत्य आदि की सौरभ से महकाता रहेगा और हमारे तथा जन-जन के आस्था के केन्द्र विश्वपज्य की यशः सुरभि समस्त जगत् में फैलाता रहेगा ।।
___ इस ग्रन्थ में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि हर मानव कृति में कुछ न कुछ त्रुटियाँ रह ही जाती हैं। इसीलिए लेनिन ने ठीक ही कहा है : त्रुटियाँ तो केवल उसी से नहीं होगी जो कभी कोई काम करे ही नहीं।
• गच्छतः स्खलनं क्वापि, भवत्येव प्रमादतः । हसन्ति दुर्जनास्तत्र, समादधति सज्जनाः ॥
- श्री राजेन्द्रगुणगीतवेणु
- श्री राजेन्द्रपदपद्मरेणु डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी. डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.-डी.
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/15
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आभार
हम परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. "मधुकर", परम पूज्य राष्ट्रसन्त आचार्यदेव श्रीमद् पद्मसागर सूरीश्वरजी म. सा. एवं प. पू. मुनिप्रवर श्री जयानन्द विजयजी म. सा. के चरण कमलों में वंदना करती हैं, जिन्होंने असीम कृपा करके अपने मन्तव्य लिखकर हमें अनुगृहीत किया है । हमें उनकी शुभप्रेरणा व शुभाशीष सदा मिलती रहे, यही करबद्ध प्रार्थना है।
इसके साथ ही हमारी सुविनीत गुरुबहनें सुसाध्वीजी श्री आत्मदर्शनाश्रीजी, . श्रीसम्यग्दर्शनाश्रीजी (सांसारिक सहोदरबहनें), श्री चारूदर्शनाश्रीजी एवं श्री प्रीतिदर्शनाश्रीजी (एम.ए.) की शुभकामना का सम्बल भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में साथ रहा है । अत: उनके प्रति भी हृदय से आभारी हैं। ___हम पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत ब्रिटेन, विश्वविख्यात विधिवेत्ता एवं महान् साहित्यकार माननीय डॉ. श्रीमान् लक्ष्मीमल्लजी सिंघवी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करती हैं, जिन्होंने अति भव्य मन्तव्य लिखकर हमें प्रेरित किया है । तदर्थ हम उनके प्रति हृदय से अत्यन्त आभारी हैं।
इस अवसर पर हिन्दी-अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी सरलमना माननीय डो. श्री जवाहरचन्द्रजी पटनी का योगदान भी जीवन में कभी नहीं भुलाया जा. सकता है। पिछले दो वर्षों से सतत उनकी यही प्रेरणा रही कि आप शीघ्रातिशीघ्र 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'अभिधान राजेन्द्र कोष में जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम' और 'विश्वपूज्य' (श्रीमद राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) आदि ग्रन्थों को सम्पन्न करें। उनकी सक्रिय प्रेरणा, सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन व आत्मीयतापूर्ण सहयोगसुझाव के कारण ही ये ग्रन्थ [1 से 10 खण्ड] यथासमय पूर्ण हो सके हैं। पटनी सा0 ने अपने अमूल्य क्षणों का सदुपयोग प्रस्तुत ग्रन्थ के अवलोकन में किया। हमने यह अनुभव किया कि देहयष्टि वार्धक्य के कारण कृश होती है, परन्तु आत्मा अजर अमर है। गीता में कहा है :
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारूतः ॥ कर्मयोगी का यही अमर स्वरूप है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/16
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हम साध्वीद्वय उनके प्रति हृदय से कृतज्ञा हैं । इतना ही नहीं, अपितु प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप अपना आमुख लिखने का कष्ट किया तदर्थ भी हम आभारी हैं।
उनके इस प्रयास के लिए हम धन्यवाद या कृतज्ञता ज्ञापन कर उनके अमूल्य श्रम का अवमूल्यन नहीं करना चाहतीं । बस, इतना ही कहेंगी कि इस सम्पूर्ण कार्य के निमित्त उन्हें ज्ञान के इस अथाह सागर में बार-बार डुबकियाँ लगाने का जो सुअवसर प्राप्त हुआ, वह उनके लिए महान् सौभाग्य है ।।
तत्पश्चात् अनवरत शिक्षा के क्षेत्र में सफल मार्गदर्शन देनेवाले शिक्षा गुरुजनों के प्रति भी कृतज्ञता ज्ञापन करना हमारा परम कर्तव्य है । बी. ए. [प्रथम खण्ड] से लेकर आजतक हमारे शोध निर्देशक माननीय डॉ. श्री अखिलेशकुमारजी राय सा. द्वारा सफल निर्देशन, सतत प्रोत्साहन एवं निरन्तर प्रेरणा को विस्मृत नहीं किया जा सकता, जिसके परिणाम स्वरूप अध्ययन के क्षेत्र में हम प्रगतिपथ पर अग्रसर हुईं। इसी कड़ी में श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी के निदेशक माननीय डॉ. श्री सागरमलजी जैन के द्वारा प्राप्त सहयोग को भी जीवन में कभी भी भुलाया नहीं जा सकता, क्योंकि पार्श्वनाथ विद्याश्रम के परिसर में सालभर रहकर हम साध्वी द्वय ने 'आचारांग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन' और 'आनन्दघन का रहस्यवाद' - इन दोनों शोधप्रबन्ध-ग्रन्थों को पूर्ण किया था, जो पीएच.डी. की उपाधि के लिए अवधेश प्रतापसिंह विश्वविद्यालय रीवा (म.प्र) ने स्वीकृत किये । इन दोनों शोधप्रबन्ध ग्रन्थों को पूर्ण करने में डॉ. जैन सा. का अमूल्य योगदान रहा है। इतना ही नहीं, प्रस्तुत ग्रन्थों के अनुरूप मन्तव्य लिखने का कष्ट किया । तदर्थ भी हम आभारी हैं। __इनके अतिरिक्त विश्रुत पण्डितवर्य माननीय श्रीमान् दलसुख भाई मालवणियाजी, विद्ववर्य डॉ. श्री नेमीचन्दजी जैन, शास्त्रसिद्धान्त रहस्यविद् ? पण्डितवर्य श्री गोविन्दरामजी व्यास, विद्वद्वर्य पं. श्री जयनन्दनजी झा, पण्डितवर्य श्री हीरालालजी शास्त्री एम.ए., हिन्दी अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध मनीषी श्री भागचन्दजी जैन, एवं डॉ. श्री अमृतलालजी गाँधी ने भी मन्तव्य लिखकर स्नेहपूर्ण उदारता दिखाई, तदर्थ हम उन सबके प्रति भी हृदय से अत्यन्त आभारी हैं।
अन्त में उन सभी का आभार मानती हैं जिनका हमें प्रत्यक्ष व परोक्ष सहकार / सहयोग मिला है।
यह कृति केवल हमारी बालचेष्टा है, अतः सुविज्ञ, उदारमना सज्जन हमारी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । पौष शुक्ला सप्तमी
- डॉ. प्रियदर्शनाश्री 5 जनवरी, 1998
- डॉ. सुदर्शनाश्री अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/17
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सुकृत सहयोगी
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सुकृत सहयोगी
श्रेष्ठिवर्य
श्रीमान् खूबचंदभाई त्रिभोवनदास वोरा संसार में ऐसे अनेक पुण्यशाली
मनुष्य होते हैं जो मौन और गुप्त भाव से सेवा करने में प्रसन्न होते हैं ।
चित्त की प्रसन्नता जीवन की सर्वोत्तम औषधि है । यह संजीवनी है । ऐसे भाग्यशाली उदारमना सदा गुप्त रीति से साधु-सन्तों की सेवा में संलीन रहते हैं - श्रीमान् खूबचन्दभाई वोरा थराद (उ.गु.) निवासी ।
इन्होंने अध्ययनकाल से लेकर अद्यावधि हमारी वैयावच्च की है और वह भी अत्यन्त गुप्तभाव से । वास्तव में इन्होंने 'गुप्तदानं महापुण्यम्' की उक्ति को अपने जीवन में चरितार्थ किया है ।
वे 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (प्रथम खण्ड) का प्रकाशन भी करवा रहे हैं ।
उनके विद्यानुराग तथा साधु-सेवादि की हम सराहना करती हैं और प.पूज्या वयोवृद्धा साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. सा. उन्हें आशीष देती हैं। वे भविष्य में भी ऐसे सुकृत में सदा सहयोगी बनेंगे, ऐसी हमें आशा
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डो. प्रियदर्शनाश्री - डो. सुदर्शनाश्री
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/18
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- डॉ. जवाहरचन्द्र पटनी,
एम. ए. (हिन्दी-अंग्रेजी), पीएच. डी., बी.टी. विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी विरले सन्त थे। उनके जीवन-दर्शन से यह ज्ञात होता है कि वे लोक मंगल के क्षीर-सागर थे। उनके प्रति मेरी श्रद्धाभक्ति तब विशेष बढ़ी, जब मैंने कलिकाल कल्पतरू श्री वल्लभसूरिजी पर 'कलिकाल कल्पतरू' महाग्रन्थ का प्रणयन किया, जो पीएच. डी. उपाधि के लिए जोधपुर विश्वविद्यालय ने स्वीकृत किया। विश्वपूज्य प्रणीत 'अभिधान राजेन्द्र कोष' से मुझे बहुत सहायता मिली । उनके पुनीत पद-पद्मों में कोटिशः वन्दन !
फिर पूज्या डॉ. साध्वी द्वय श्री प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. श्री सुदर्शनाश्रीजी म. के ग्रन्थ - 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका', 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' [1 से 7 खण्ड], 'विश्वपूज्य' [श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ), 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम', 'सुगन्धित सुमन', 'जीवन की मुस्कान' एवं 'जिन खोजा तिन पाइयाँ' आदि ग्रन्थों का अवलोकन किया । विदुषी साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य की तपश्चर्या, कर्मठता एवं कोमलता का जो वर्णन किया है, उससे मैं अभिभूत हो गया और मेरे सम्मुख इस भोगवादी आधुनिक युग में पुरातन ऋषि-महर्षि का विराट और विनम्र करुणार्द्र तथा सरल, लोक-मंगल का साक्षात् रूप दिखाई दिया ।
श्री विश्वपूज्य इतने दृढ़ थे कि भयंकर झंझावातों और संघर्षों में भी अडिग रहे । सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के परमपुनीत स्मरण से वे अपनी नन्हीं देहकिश्ती को उफनते समुद्र में निर्भय चलाते रहें । स्मरण हो आता है, परम गीतार्थ महान् आचार्य मानतुंगसूरिजी रचित महाकाव्य भक्तामर का यह अमर श्लोक -
'अम्भो निधौ क्षभित भीषण नक्र चक्र, पाठीन पीठ भय दोल्बण वाडवाग्नौ । रङ्गत्तरंग शिखर स्थित यान पात्रा - स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥' अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/19
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हे स्वामिन् ! क्षुब्ध बने हुए भयंकर मगरमच्छों के समूह और पाठीन तथा पीठ जाति के मत्स्य व भयंकर वड़वानल अग्नि जिसमें है, ऐसे समुद्र में जिनके जहाज लहरों के अग्रभाग पर स्थित हैं; ऐसे जहाजवाले लोग आपका मात्र स्मरण करने से ही भयरहित होकर निविघ्नरूप से इच्छित स्थान पर पहुँचते हैं।
विदुषी डॉ. साध्वी द्वय ने विश्वपूज्य के विराट और कोमल जीवन का यथार्थ वर्णन किया है । उससे यह सहज प्रतीति होती है कि विश्वपूज्य कर्मयोगी महर्षि थे, जिन्होंने उस युग में व्याप्त भ्रष्टाचार और आडम्बर को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर, वन-उपवन में पैदल विहार किया । व्यसनमुक्त समाज के निर्माण में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया ।
विदुषी लेखिकाओंने यह बताया है कि इस महर्षि ने व्यक्ति और समाज को सुसंस्कृत करने हेतु सदाचार-सुचरित्र पर बल दिया तथा सत्साहित्य द्वारा भारतीय गौरवशालिनी संस्कृति को अपनाने के लिए अभिप्रेरित किया ।
इस महर्षि ने हिन्दी में भक्तिरस-पूर्ण स्तवन, पद एवं सज्झायादि गीत लिखे हैं। जो सर्वजनहिताय, स्वान्तः सुखाय और भक्तिरस प्रधान हैं। इनकी समस्त कृतियाँ लोकमंगल की अमृत गगरियाँ हैं ।
गीतों में शास्त्रीय संगीत एवं पूजा-गीतों की लावणियाँ हैं जिनमें माधुर्य भरपूर हैं । विश्वपूज्य ने रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा एवं दृष्टान्त आदि अलंकारों का अपने काव्य में प्रयोग किया है, जो अप्रयास है। ऐसा लगता है कि कविता उनकी हृदय वीणा पर सहज ही झंकृत होती थी। उन्होंने यद्यपि स्वान्तः सुखाय गीत रचना की है, परन्तु इनमें लोकमाङ्गल्य का अमृत स्रवित होता है।
उनके तपोमय जीवन में प्रेम और वात्सल्य की अमी-वृष्टि होती है ।
विश्वपूज्य अर्धमागधी, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाओं के अद्वितीय महापण्डित थे। उनकी अमरकृति - 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में इन तीन भाषाओं के शब्दों की सारगर्भित और वैज्ञानिक व्याख्याएँ हैं । यह केवल पण्डितवरों का ही चिन्तामणि रत्न नहीं है, अपितु जनसाधारण को भी इस अमृत-सरोवर का अमृत-पान करके परम तृप्ति का अनुभव होता है। उदाहरण के लिए - जैनधर्म में 'नीवि' और 'गहुँली' शब्द प्रचलित हैं। इन शब्दों की व्याख्या मुझे कहीं भी नहीं मिली । इन शब्दों का समाधान इस कोष में है । 'नीवि' अर्थात् नियमपालन करते हुए विधिपूर्वक आहार लेना । गहुँली गुरु-भगवंतों के शुभागमन पर मार्ग में अक्षत का स्वस्तिक करके उनकी वधामणी करते हैं और गुरुवर के प्रवचन के पश्चात् गीत द्वारा गहुँली गीत गाया जाता है । ( . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/20 )
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इनकी व्युत्पत्ति-व्याख्या 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में मिलीं । पुरातनकाल में गेहूँ का स्वस्तिक करके गुरुजनों का सत्कार किया जाता था । कालान्तर में अक्षत-चावल का प्रचलन हो गया । यह शब्द योगरूढ़ हो गया, इसलिए गुरु भगवंतों के सम्मान में गाया जानेवाला गीत भी गहुँली हो गया। स्वर्ण मोहरों या रत्नों से गहुँली क्यों न हो, वह गहुँली ही कही जाती है । भाषा विज्ञान की दृष्टि से अनेक शब्द जिनवाणी की गंगोत्री में लुढ़क - लुढ़क कर, घिस - घिस कर शालिग्राम बन जाते हैं । विश्वपूज्य ने प्रत्येक शब्द के उद्गम स्रोत की गहन व्याख्या की है । अतः यह कोष वैज्ञानिक है, साहित्यकारों एवं कवियों के लिए रसात्मक है तथा जनसाधारण के लिए शिव प्रसाद है 1
जब कोष की बात आती है तो हमारा मस्तक हिमगिरि के समान विराट् गुरुवर के चरण-कमलों में श्रद्धावनत हो जाता है । षष्टिपूर्ति के तीन वर्ष बाद 63 वर्ष की वृद्धावस्था में विश्वपूज्य ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का श्रीगणेश किया और 14 वर्ष के अनवरत परिश्रम व लगन से 76 वर्ष की आयु में इसे परिसम्पन्न किया ।
इनके इस महत्दान का मूल्याङ्कन करते हुए मुझे महर्षि दधीचि की पौराणिक कथा का स्मरण हो आता है, जिसमें इन्द्र ने देवासुर संग्राम में देवों की हार और असुरों की जय से निराश होकर इस महर्षि से अस्थिदान की प्रार्थना की थी । सत् विजयाकांक्षा की मंगल- भावना से इस महर्षि ने अनशन तप से देह सुखाकर अस्थिदान इन्द्र को दिया था, जिससे वज्रायुध बना । इन्द्र वज्रायुध से असुरों को पराजित किया । इसप्रकार सत् की विजय और असत् की पराजय हुई । 'सत्यमेव जयते' का उद्घोष हुआ ।
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सचमुच यह कोष वज्रायुध के समान सत्य की रक्षा करनेवाला और असत्य का विध्वंस करनेवाला है ।
विदुषी साध्वी द्वय ने इस महाग्रन्थ का मन्थन करके जो अमृत प्राप्त किया है, वह जनता - जनार्दन को समर्पित कर दिया है ।
सारांश में - यह ग्रन्थ 'सत्यं शिवं सुंदरम्' की परमोज्ज्वल ज्योति सब युगों में जगमगाता रहेगा - यावत्चन्द्रदिवाकरौ ।
इस कोष की लोकप्रियता इतनी है कि साण्डेराव ग्राम (जिला - पाली - राजस्थान) के लघु पुस्तकालय में भी इसके नवीन संस्करण के सातों भाग विद्यमान हैं। यही नहीं, भारत के समस्त विश्वविद्यालयों, श्रेष्ठ महाविद्यालयों तथा पाश्चात्त्य देशों के विद्या- संस्थानों में ये उपलब्ध हैं । इनके बिना विश्वविद्यालय और शोध संस्थान रिक्त लगते हैं ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/21
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विदुषी साध्वी द्वय नि:संदेह यशोपात्रा हैं, क्योंकि उन्होंने विश्वपूज्य के पाण्डित्य को ही अपने ग्रन्थों में नहीं दर्शाया है; अपितु इनके लोक-माङ्गल्य का भी प्रशस्त वर्णन किया है। __ ये महान् कर्मयोगी पत्थरों में फूल खिलाते हुए, मरूभूमि में गंगा-जमुना की पावन धाराएँ प्रवाहित करते हए, बिखरे हुए समाज को कलह के काँटों से बाहर निकाल कर प्रेम-सूत्र में बाँधते हुए, पीड़ित प्राणियों की वेदना मिटाते हुए, पर्यावरण - शुद्धि के लिए आत्म-जागृति का पाञ्चजन्य शंख बजाते हुए 80 वर्ष की आयु में प्रभु शरण में कल्पपुष्प के समान समपित हो गए ।
श्री वाल्मीकि ने रामायण में यह बताया है कि भगवान् राम ने 14 वर्षों के वनवास काल में अछूतों का उद्धार किया, दुःखी-पीड़ित प्राणियों को जीवन-दान दिया, असुर प्रवृत्ति का नाश किया और प्राणि-मैत्री की रसवन्ती गंगधारा प्रवाहित की । इस कालजयी युगवीर आचार्य ने इसीलिए 14 वर्ष कोष की रचना में लगाये होंगे। 14 वर्ष शुभ काल है - मंगल विधायक है । महषियों के रहस्य को महर्षि ही जानते हैं ।
लाखों-करोड़ों मनुष्यों का प्रकाश-दीप बुझ गया, परन्तु वह बुझा नहीं है। वह समस्त जगत् के जन-मानसों में करूणा और प्रेम के रूप में प्रदीप्त
हैं।
विदुषी साध्वी द्वय के ग्रन्थों को पढकर मैं इस निष्कर्ष पर पहँचा हूँ कि विश्वपूज्य केवल त्रिस्तुतिक आम्नाय के ही जैनाचार्य नहीं थे, अपितु समस्त जैन समाज के गौरव किरीट थे, वे हिन्दुओं के सन्त थे, मुसलमानों के फकीर और ईसाइयों के पादरी । वे जगद्गुरु थे । विश्वपूज्य थे और हैं।
विदुषी डॉ. साध्वी द्वय की भाषा-शैली वसन्त की परिमल के समान मनोहारिणी है । भावों को कल्पना और अलंकारों से इक्षुरस के समान मधुर बना दिया है । समरसता ऐसी है जैसे - सुरसरि का प्रवाह ।
दर्शन की गम्भीरता भी सहज और सरल भाषा-शैली से सरस बन गयी है।
इन विदुषी साध्वियों के मंगल-प्रसाद से समाज सुसंस्कारों के प्रशस्तपथ पर अग्रसर होगा। भविष्य में भी ये साध्वियाँ तृष्णा तृषित आधुनिक युग को अपने जीवन-दर्शन एवं सत्साहित्य के सुगन्धित सुमनों से महकाती रहेंगी! यही शुभेच्छा !
पूज्या साध्वीजी द्वय को विश्वपूज्य श्रीमद राजेन्द्रसरीश्वरजी म. सा. की पावन प्रेरणा प्राप्त हुई, इससे इन्होंने इन अभिनव ग्रन्थों का प्रणयन किया ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/22
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यह सच है कि रवि - रश्मियों के प्रताप से सरोवर में सरोज सहज ही प्रस्फुटित होते हैं | वासन्ती पवन के हलके से स्पर्श से सुमन सौरभ सहज ही प्रसृत होते हैं । ऐसी ही विश्वपूज्य के वात्सल्य की परिमल इनके ग्रन्थों को सुरभित कर रही हैं । उनकी कृपा इनके ग्रन्थों की आत्मा है ।
जिन्हें महाज्ञानी साहित्यमनीषी राष्ट्रसन्त प. पू. आचार्यदेवेश श्रीमद्जयन्तसेनसूरीश्वरजी म. सा. का आर्शीवाद और परम पूज्या जीवन निर्मात्री (सांसारिक दादीजी) साध्वीरत्ना श्री महाप्रभाश्रीजी म. का अमित वात्सल्य प्राप्त हों, उनके लिए ऐसे ग्रन्थों का प्रणयन सहज और सुगम क्यों न होगा ? निश्चय ही ।
वात्सल्य भाव से मुझे आमुख लिखने का आदेश दिया पूज्या साध्वी द्वय ने । उसके लिए आभारी हूँ, यद्यपि मैं इसके योग्य किञ्चित् भी नहीं हूँ । इति शुभम् !
पौष शुक्ला सप्तमी 5 जनवरी, 1998 कालन्द्री
जिला - सिरोही (राज.)
पूर्वप्राचार्य श्री पार्श्वनाथ उम्मेद कॉलेज, फालना (राज.)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /23
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मन्तव्य
डॉ. लक्ष्मीमल्ल सिंघवी
(पद्म विभूषण, पूर्व भारतीय राजदूत - ब्रिटेन )
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आदरणीया डॉ. प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. सुदर्शनाजी साध्वीद्वय ने "विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ ) ', "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), एवं अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" की रचना में जैन परम्परा की यशोगाथा की अमृतमय प्रशस्ति की है । ये ग्रंथ विदुषी साध्वी - द्वय की श्रद्धा, निष्ठा, शोध एवं दृष्टि - सम्पन्नता के परिचायक एवं प्रमाण हैं । एक प्रकार से इस ग्रंथत्रयी में जैन-- परम्परा की आधारभूत रत्नत्रयी का प्रोज्ज्वल प्रतिबिम्ब है । युगपुरुष, प्रज्ञामहर्षि, मनीषी आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के व्यक्तित्व और कृतित्व के विराट् क्षितिज और धरातल की विहंगम छवि प्रस्तुत करते हुए साध्वी - द्वय ने इतिहास के एक शलाकापुरुष की यश- प्रतिमा की संरचना की है, उनकी अप्रतिम उपलब्धियों के ज्योतिर्मय अध्याय को प्रदीप्त और रेखांकित किया है। इन ग्रंथों की शैली साहित्यिक है, विवेचन विश्लेषणात्मक है, संप्रेषण रस-सम्पन्न एवं मनोहारी है और रेखांकन कलात्मक है ।
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पुण्य श्लोक प्रातःस्मरणीय आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी अपने जन्म के नाम के अनुसार ही वास्तव में 'रत्नराज' थे । अपने समय में वे जैनपरम्परा में ही नहीं बल्कि भारतीय विद्या के विश्रुत विद्वान् एवं विद्वत्ता के शिरोमणि थे । उनके व्यक्तित्व और कृतित्व में सागर की गहराई और पर्वत की ऊँचाई विद्यमान थी । इसीलिए उनको विश्वपूज्य के अलंकरण से विभूषित करते हुए वह अलंकरण ही अलंकृत हुआ । भारतीय वाङ्मय में "अभिधान राजेन्द्र कोष" एक अद्वितीय, विलक्षण और विराट् कीर्तिमान है जिसमें संस्कृत, प्राकृत एवं अर्धमागधी की त्रिवेणी भाषाओं और उन भाषाओं में प्राप्त विविध परम्पराओं की सूक्तियों की सरल और सांगोपांग व्याख्याएँ हैं, शब्दों का विवेचन और दार्शनिक संदर्भों की अक्षय सम्पदा है । लगभग ६० हजार शब्दों की व्याख्याओं एवं साढ़े चार लाख श्लोकों के ऐश्वर्य से महिमामंडित यह ग्रंथ जैन परम्परा एवं समग्र भारतीय विद्या का अपूर्व भंडार है । साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्री एवं डॉ. सुदर्शना श्री की यह प्रस्तुति एक ऐसा साहसिक सारस्वत
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प्रयास है जिसकी सराहना और प्रशस्ति में जितना कहा जाय वह स्वल्प ही होगा, अपर्याप्त ही माना जायगा । उनके पूर्वप्रकाशित ग्रंथ "आनंदघन का रहस्यवाद" एवं आचारांग सूत्र का नीतिशास्त्रीय अध्ययन" प्रत्यूष की तरह इन विदुषी साध्वियों की प्रतिभा की पूर्व सूचना दे रहे थे । विश्व पूज्य की अमर स्मृति में साधना के ये नव दिव्य पुष्प अरुणोदय की रश्मियों की तरह हैं।
24-4-1998 4F, White House, 10, Bhagwandas Road, New Delhi-110001
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/25
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'दो शब्द
- पं. दलसुख मालवणिया पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साध्वीद्वयने "अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका" एवं "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस" (1 से 7 खण्ड), आदि ग्रन्थ लिखकर तैयार किए हैं, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं गौरवमयी रचनाएँ हैं । उनका यह अथक प्रयास स्तुत्य है । साध्वीद्वय का यह कार्य उपयोगी तो है ही, तदुपरान्त जिज्ञासुजनों के लिए भी . उपकारक हो, वैसा है। __इसप्रकार जैनदर्शन की सरल और संक्षिप्त जानकारी अन्यत्र दुर्लभ है। जिज्ञासु पाठकों को जैनधर्म के सद् आचार-विचार, तप-संयम, विनय-विवेक विषयक आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जाय, वैसी कृतियाँ हैं ।
पूज्या साध्वीद्वय द्वारा लिखित इन कृतियों के माध्यम से मानव-समाज को जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी एक दिशा, एक नई चेतना प्राप्त होगी ।
ऐसे उत्तम कार्य के लिए साध्वीद्वय का जितना उपकार माना जाय, वह स्वल्प ही होगा।
दिनांक : 30-4.98 माधुरी-8, आपेरा सोसायटी, पालड़ी, अहमदाबाद-380007
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/26
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सूक्ति-सुधारस: मेरी दृष्टि में
- डॉ. नेमीचन्द जैन संपादक "तीर्थंकर"
'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' के एक से सात खण्ड तक में, मैं गोते लगा सका हूँ । आनन्दित हूँ । रस-विभोर हूँ । कवि बिहारी के दोहे की एक पंक्ति बार-बार आँखों के सामने आ-जा रही है : "बूड़े अनबूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग" । जो डूबे नहीं, वे डूब गये हैं और जो डूब सके हैं सिर से पैर तक वे तिर गये हैं । अध्यात्म, विशेषतः श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी के ‘अभिधान राजेन्द्र कोष' का यही आलम है । डूबिये, तिर जाएँगे; सतह पर रहिये, डूब जाएँगे ।
वस्तुतः 'अभिधान राजेन्द्र कोष' का एक-एक वर्ण बहुमुखीता का धनी । यह अप्रतिम कृति 'विश्वपूज्य' का 'विश्वकोश' (एन्सायक्लोपीडिया) है । जैसे-जैसे हम इसके तलातल का आलोड़न करते हैं, वैसे-वैसे जीवन की दिव्य छबियाँ थिरकती - ठुमकती हमारे सामने आ खड़ी होती हैं। हमारा जीवन सर्वोत्तम से संवाद बनने लगता है ।
‘अभिधान राजेन्द्र' में संयोगतः सम्मिलित सूक्तियाँ ऐसी सूक्तियाँ हैं, जिनमें श्रीमद् की मनीषा - स्वाति ने दुर्लभ / दीप्तिमन्त मुक्ताओं को जन्म दिया है । ये सूक्तियाँ लोक-जीवन को माँजने और उसे स्वच्छ-स्वस्थ दिशा-दृष्टि देने में अद्वितीय हैं। मुझे विश्वास है कि साध्वीद्वय का यह प्रथम पुरुषार्थ उन तमाम सूक्तियों को, जो 'अभिधान राजेन्द्र' में प्रसंगतः समाविष्ट हैं, प्रस्तुत करने में सफल होगा । मेरे विनम्र मत में यदि इनमें से कुछेक सूक्तियों का मन्दिरों, देवालयों, स्वाध्याय - कक्षों, स्कूल-कॉलेजों की भित्तियों पर अंकन होता है तो इससे हमारी धार्मिक असंगतियों को तो एक निर्मल कायाकल्प मिलेगा ही, राष्ट्रीय चरित्र को भी नैतिक उठान मिलेगा। मैं न सिर्फ २६६७ सूक्तियों के ७ बृहत् खण्डों की प्रतीक्षा करूंगा, अपितु चाहूँगा कि इन सप्त सिन्धुओं के सावधान परिमन्थन से कोई 'राजेन्द्र सूक्ति नवनीत' जैसी लघुपुस्तिका सूरज की पहली किरण देखे । ताकि संतप्त मानवता के घावों पर चन्दन - लेप संभव हो ।
27-04-1998
65, पत्रकार कालोनी, कनाड़िया मार्ग,
इन्दौर (म.प्र.) - 452001
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मन्तव्य
डॉ. सागरमल जैन
पूर्व निर्देशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (१ से ७ खण्ड) नामक इस कृति का प्रणयन पूज्या साध्वी श्री डॉ. प्रियदर्शना श्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी ने किया है । वस्तुत: यह कृति अभिधानराजेन्द्रकोष में आई हुई महत्त्वपूर्ण सूक्तियों का अनूठा आलेखन हैं। लगभग एक शताब्दि पूर्व ईस्वीसन् १८९० आश्विन शुक्ला दूज के दिन शुभ लग्न में इस कोष ग्रन्थ का प्रणयन प्रारम्भ हुआ और पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी के अथक प्रयासों से लगभग १४ वर्ष में यह पूर्ण हुआ फिर इसके प्रकाशन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई जो पुनः १७ वर्षो में पूर्ण हुई। जैनधर्म सम्बन्धी विश्वकोषों में यह कोष ग्रन्थ आज भी सर्वोपरि स्थान रखता है। प्रस्तुत कोष में जैन धर्म, दर्शन, संस्कृति और साहित्य से सम्बन्धित महत्त्वपूर्ण शब्दों का अकारादि क्रम से विस्तारपूर्वक विवेचन उपलब्ध होता है। इस विवेचना में लगभग शताधिक ग्रन्थों से सन्दर्भ चुने गये हैं । प्रस्तुत कृति में साध्वी - द्वय ने इसी कोषग्रन्थ को आधार बनाकर सूक्तियों का आलेखन किया हैं । उन्होंने अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक खण्ड को आधार मानकर इस 'सूक्ति-सुधारस' को भी सात खण्डों में ही विभाजित किया हैं । इसके प्रथम खण्ड में अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रथम भाग से सूक्तियों का आलेखन किया है। यही क्रम आगे के खण्डों में भी अपनाया गया हैं । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड का आधार अभिधान राजेन्द्र कोष का प्रत्येक भाग ही रहा हैं । अभिधान राजेन्द्र कोष के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर सूक्तियों का संकलन करने के कारण सूक्तियों को न तो अकारादिक्रम से प्रस्तुत किया गया है और न उन्हें विषय के आधार पर ही वर्गीकृत किया गया हैं, किन्तु पाठकों की सुविधा के लिए परिशिष्ट में अकारादिक्रम से एवं विषयानुक्रम से शब्द - सूचियाँ दे दी गई हैं, इससे जो पाठक अकारादि क्रम से अथवा विषयानुक्रम से इन्हें जानना चाहे उन्हें भी सुविधा हो सकेगी। इन परिशिष्टों के माध्यम से प्रस्तुत कृति अकारादिक्रम अथवा विषयानुक्रम की कमी की पूर्ति कर देती है । प्रस्तुतकृति में प्रत्येक
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सूक्ति के अन्त में अभिधान राजेन्द्र कोष के सन्दर्भ के साथ-साथ उस मूल ग्रन्थ का भी सन्दर्भ दे दिया गया है, जिससे ये सूक्तियाँ अभिधान राजेन्द्र कोष में अवतरित की गई। मूलग्रन्थों के सन्दर्भ होने से यह कृति शोध-छात्रों के लिए भी उपयोगी बन गई हैं ।
वस्तुतः सूक्तियाँ अतिसंक्षेप में हमारे आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन मूल्योंको उजागर कर व्यक्ति को सम्यक्जीवन जीने की प्रेरणा देती हैं । अतः ये सूक्तियाँ जन साधारण और विद्वत् वर्ग सभी के लिए उपयोगी हैं। आबालवृद्ध उनसे लाभ उठा सकते हैं । साध्वीद्वय ने परिश्रमपूर्वक जो इन सूक्तियों का संकलन किया है वह अभिधान राजेन्द्र कोष रूपी महासागर से रत्नों के चयन के जैसा हैं । प्रस्तुत कृति में प्रत्येक सूक्ति के अन्त में उसका हिन्दी भाषा में अर्थ भी दे दिया गया है, जिसके कारण प्राकृत और संस्कृत से अनभिज्ञ सामान्य व्यक्ति भी इस कृति का लाभ उठा सकता हैं । इन सूक्तियों के आलेखन में लेखिका-द्वय ने न केवल जैनग्रन्थों में उपलब्ध सूक्तियों का संकलन/संयोजन किया है, अपितु वेद, उपनिषद, गीता, महाभारत, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि की भी अभिधान राजेन्द्र कोष में गृहीत सूक्तियों का संकलन कर अपनी उदारहृदयता का परिचय दिया है। निश्चय ही इस महनीय श्रम के लिए साध्वी-द्वय-पूज्या डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी साधुवाद की पात्रा हैं । अन्त में मैं यही आशा करता हूँ कि जन सामान्य इस 'सूक्तिसुधारस' में अवगाहन कर इसमें उपलब्ध सुधारस का आस्वादन करता हुआ अपने जीवन को सफल करेगा और इसी रूप में साध्वी द्वय का यह श्रम भी सफल होगा।
दिनांक 31-6-1998 पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान वाराणसी (उ.प्र.)
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मन्तव्य
विद्यावती शास्त्र सिद्धान्त रहस्य विद् ?
- पं. गोविन्दराम व्यास उक्तियाँ और सूक्त-सूक्तियाँ वाङ्मय वारिधि की विवेक वीचियाँ हैं। विद्या संस्कार विमर्शिता विगत की विवेचनाएँ हैं । विद्धित-वाड्मय की वैभवी विचारणाएँ हैं । सार्वभौम सत्य की स्तुतियाँ हैं । प्रत्येक पल की परमार्शदायिनी-पारदर्शिनी प्रज्ञा पारमिताएँ हैं । समाज, संस्कृति और साहित्य की सरसता की छवियाँ हैं। कान्तदर्शी कोविदों की पारदर्शिनी परिभाषाएँ हैं। मनीषियों की मनीषा की महत्त्व प्रतिपादिनी पीपासाएँ हैं । क्रूर-काल के कौतुकों में भी आयुष्मती होकर अनागत का अवबोध देती रही हैं । ऐसी सूक्तियों को सश्रद्ध नमन करता हुआ वाग्देवता का विद्या-प्रिय विप्र होकर वाङ् मयी पूजा में प्रयोगवान् बन रहा हूँ।
श्रमण-संस्कृति की स्वाध्याय में स्वात्म-निष्ठा निराली रही है । आचार्य हरिभद्र, अभय, मलय जैसे मूर्धन्य महामतिमान्, सिद्धसेन जैसे शिरोमणि, सक्षम, श्रद्धालु जिनभद्र जैसे - क्षमाश्रमणों का जीवन वाङ्मयी वरिवस्या का विशेष अंग रहा है।
स्वाध्याय का शोभनीय आचार अद्यावधि-हमारे यहाँ अक्षुण्ण पाया जाता है। इसीलिए स्वाध्याय एवं प्रवचन में अप्रमत्त रहने का समादश शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है।
वस्तुतः नैतिक मूल्यों के जागरण के लिए, आध्यात्मिक चेतना के ऊर्वीकरण के लिए एवं शाश्वत मूल्यों के प्रतिष्ठापन के लिए आर्याप्रवरा द्वय द्वारा रचित प्रस्तुत ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका' एक उपादेय महत्त्वपूर्ण गौरवमयी रचना है ।
__आत्म-अभ्युदयशीला, स्वाध्याय-परायणा, सतत अनुशीलन उज्ज्वला आर्या डॉ. श्री प्रियदर्शनाजी एवं डॉ. श्री सुदर्शनाजी की शास्त्रीय-साधना सराहनीया है। इन्होंने अपने आम्नाय के आद्य-पुरुष की प्रतिभा का परिचय प्राप्त करने का प्रयास कर अपनी चारित्र-सम्पदा को वाङ्मयी साधना में
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समर्पिता करती हुई 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्रसूरि : जीवन-सौरभ') का रहस्योद्घाटन किया है।
विदुषी श्रमणी द्वय ने प्रस्तुत कृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्तिसुधारस' (1 से 7 खण्ड) को कोषों के कारागारों से मुक्तकर जीवन की वाणी में विशद करने का विश्वास उपजाया है। अत: आर्या युगल, इसप्रकार की वाङ्मयी-भारती भक्ति में भूषिता रहें एवं आत्मतोष में तोषिता होकर सारस्वत इतिहास की असामान्या विदुषी बनकर वाङ्मय के प्रांगण की प्रोन्नता भूमिका निभाती रहें । यही मेरा आत्मीय अमोघ आशीर्वाद है ।
इनका विद्या-विवेकयोग, श्रुतों की समाराधना में अच्युत रहे, अपनी निरहंकारिता को अतीव निर्मला बनाता रहे और उत्तरोत्तर समुत्साह-समुन्नत होकर स्वान्तः सुख को समुल्लसित रचता रहे । यही सदाशया शोभना शुभाकांक्षा है।
चैत्रसुदी 5 बुध 1 अप्रैल, 98 हरजी जिला - जालोर (राज.)
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मन्तव्य
पं. जयनंदन झा,
व्याकरण साहित्याचार्य, साहित्य रत्न एवं शिक्षाशास्त्री
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मनुष्य विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है । वह अपने उदात्त मानवीय गुणों के कारण सारे जीवों में उत्तरोत्तर चिन्तनशील होता हुआ विकास की प्रक्रिया में अनवरत प्रवर्धमान रहा है। उसने पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति ही जीवन का परम ध्येय माना है, पर ज्ञानीजन ने इस संसार को ही परम ध्येय न मानकर अध्यात्म ज्ञान को ही सर्वोपरि स्थान दिया है । अतः जीवन के चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति में धर्म, अर्थ और काम को केवल साधन मात्र माना है ।
इसलिये अध्यात्म चिन्तन में भारत विश्वमंच पर अति श्रद्धा के साथ प्रशंसित रहा है । इसकी धर्म सहिष्णुता अनोखी एवं मानवमात्र के लिये अनुकरणीय रही है । यहाँ वैष्णव, जैन तथा बौद्ध धर्माचार्यों ने मिलकर धर्म की तीन पवित्र नदियों का संगम "त्रिवेणी" पवित्र तीर्थ स्थापित किया है जहाँ सारे धर्माचार्य अपने-अपने चिन्तन से सामान्य मानव को भी मिल-बैठकर धर्मचर्चा के लिये विवश कर देते हैं। इस क्षेत्र में किस धर्म का कितना योगदान रहा है, यह निर्णय करना अल्प बुद्धि साध्य नहीं है ।
पर, इतना निर्विवाद है कि जैन मनीषी और सन्त अपनी-अपनी विशिष्ट विशेषताओं के लिये आत्मोत्कर्ष के क्षेत्र में तपे हुए मणि के समान सहस्रसूर्य- किरण के कीर्तिस्तम्भ से भारतीय दर्शन को प्रोद्भासित कर रहे हैं, जो काल की सीमा से रहित है। जैनधर्म व दर्शन शाश्वत एवं चिरन्तन है, जो विविध आयामों से इसके अनेकान्तवाद को परिभाषित एवं पुष्ट कर रहे हैं । ज्ञान और तप तो इसकी अक्षय निधि है ।
जैन धर्म में भी मन्दिर मार्गी - त्रिस्तुतिक परम्परा के सर्वोत्कृष्ट साध जैनधर्माचार्य “श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वरजी म. सा. अपनी तप:साधना और ज्ञानमीमांसा से परमपूत होने के कारण सार्वकालिक सार्वजनीन वन्द्य एवं प्रातः स्मरणीय भी हैं जिनका सम्पूर्ण जीवन सर्वजन हिताय एवं सर्वजन सुखाय समर्पित रहा है । इनका सम्पूर्ण-जीवन अथाह समुद्र की भाँति है, जहाँ निरन्तर गोता लगाने
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पर केवल रत्न की ही प्राप्ति होती है, पर यह अमूल्य रत्न केवल साधक को ही मिल पाता है । साधक की साधना जब उच्च कोटि की हो जाती है तब साध्य संभव हो पाता है। राजेन्द्र कोष तो इनकी अक्षय शब्द मंजूषा है, जो शब्द यहाँ नहीं है, वह अन्यत्र कहीं नहीं है ।
ऐसे महान् मनीषी एवं सन्त को अक्षरशः समझाने के लिये डॉ. प्रियदर्शनाश्री जी एवं डॉ. सुदर्शनाश्री जी साध्वीद्वय ने (१) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "सूक्ति-सुधारस" (१ से ७ खण्ड) (२) अभिधान राजेन्द्र कोष में, "जैनदर्शन वाटिका" तथा (३) 'विश्वपूज्य' (श्रीमद् राजेन्द्र सूरि : जीवनसौरभ) इन अमूल्य ग्रन्थों की रचना कर साधक की साधना को अतीव सरल बना दिया है। परम पूज्या ! साध्वीद्वय ने इन ग्रन्थों की रचना में जो अपनी बुद्धिमत्ता एवं लेखन-चातुर्य का परिचय दिया है वह स्तुत्य ही नहीं, अपितु इस भौतिकवादी युग में जन-जन के लिये अध्यात्मक्षेत्र में पाथेय भी बनेगा। मैंने इन ग्रन्थों का विहंगम अवलोकन किया है। भाषा की प्रांजलता और विषयबोध की सुगमता तो पाठक को उत्तरोत्तर अध्ययन करने में रूचि पैदा करेगी, वह सहज ही सबके लिये हृदयग्राहिणी बनेगी। यही लेखिकाद्वय की लेखनी की सार्थकता बनेगी । ___अन्त में यहाँ यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि "रघुवंश" महाकाव्य-रचना के प्रारंभ में कालिदास ने लिखा है कि "तितीर्घर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्" पर वही कालिदास कवि सम्राट् कहलाये । इसीतरह आप दोनों का यह परम लोकोपकारी अथक प्रयास भौतिकवादी मानवमात्र के लिये शाश्वत शान्ति प्रदान करने में सहायक बन पायेगा । इति । शुभम् ।
25-7-98 3घ - 12 मधुबन हा. बो. बासनी, जोधपुर
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मन्तव्य
पं. हीरालाल शास्त्री
एम.ए. विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री एम. ए., पीएच. डी. एवं डॉ. सुदर्शनाश्री एम. ए. पीएच. डी. द्वारा रचित ग्रन्थ 'अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) सुभाषित सूक्तियों एवं वैदुष्यपूर्ण हृदयग्राही वाक्यों के रूप में एक पीयूष सागर के समान है।
आज के गिरते नैतिक मूल्यों, भौतिकवादी दृष्टिकोण की अशान्ति एवं तनावभरे सांसारिक प्राणी के लिए तो यह एक रसायन है, जिसे पढ़कर आत्मिक शान्ति, दृढ इच्छा-शक्ति एवं नैतिक मूल्यों की चारित्रिक सुरभि अपने जीवन के उपवन में व्यक्ति एवं समष्टि की उदात्त भावनाएँ गहगहायमान हो सकेगी, यह अतिशयोक्ति नहीं, एक वास्तविकता है।
आपका प्रयास स्वान्तःसुखाय लोकहिताय है । 'सूक्ति-सुधारस' जीवन में संघर्षों के प्रति साहस से अडिग रहने की प्रेरणा देता है।
ऐसे सत्साहित्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की महक से व्यक्ति को जीवंत' बनाकर आध्यात्मिक शिवमार्ग का पथिक बनाते हैं ।
आपका प्रयास भगीरथ प्रयास है । भविष्य में शुभ कामनाओं के साथ ।
महावीर जन्म कल्याणक, गुरुवार दि. 9 अप्रैल, 1998 ज्योतिष-सेवा राजेन्द्रनगर जालोर (राज.)
निवृत्तमान संस्कृत व्याख्याता
राज. शिक्षा-सेवा
राजस्थान
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मन्तव्य
- डॉ. अखिलेशकुमार राय साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी एवं डॉ. सुदर्शनाश्रीजी द्वारा रचित प्रस्तुत पुस्तक का मैंने आद्योपान्त अवलोकन किया है। इनकी रचना 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) में श्रीमद् राजेन्द्रसूरीश्वर जी की अमरकृति 'अभिधान राजेन्द्र कोष' के प्रत्येक भाग को आधार बनाकर कुछ प्रमुख सूक्तियों का सुंदर-सरस व सरल हिन्दी भाषा में अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। साध्वीद्वय का यह संकल्प है कि 'अभिधान राजेन्द्र कोष' में उपलब्ध लगभग २७०० सूक्तियों का सात खण्डों में संचयन कर सर्वसाधारण के लिये सुलभ कराया जाय । इसप्रकार का अनूठा संकल्प अपने आपमें अद्वितीय कहा जा सकता है । मेरा विश्वास है कि ऐसी सूक्ति सम्पन्न रचनाओं से पाठकगण के चरित्र निर्माण की दिशा निर्धारित होगी। ___अब सुहृद्जनों का यह पुनीत कर्तव्य है कि वे इसे अधिक से अधिक लोगों के पठनार्थ सुलभ करायें । मैं इस महत्त्वपूर्ण रचना के लिये साध्वीद्वय की सराहना करता हूँ; इन्हें साधुवाद देता हूँ और यह शुभकामना प्रकट करता हूँ कि ये इसप्रकार की और भी अनेक रचनायें समाज को उपलब्ध करायें ।
दिनांक 9 अप्रैल, 1998
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी 1/1 प्रोफेसर कालोनी, महाराजा कोलेज, छतरपुर (म.प्र.)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/35
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मनतव्य
डॉ. अमृतलाल गाँधी सेवानिवृत्त प्राध्यापक,
सम्यग्ज्ञान की आराधना में समर्पिता विदुषी साध्वीद्वय डॉ. प्रियदर्शनाश्रीजी म. एवं डॉ. सुदर्शना श्रीजी म. ने 'सूक्ति-सुधारस' (1 से 7 खण्ड) की 2667 सूक्तियों में अभिधान राजेन्द्र कोष के मन्थन का मक्खन सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत कर जनसाधारण की सेवार्थ यह ग्रन्थ लिखकर जैन साहित्य के विपुल ज्ञान भण्डार में सराहनीय अभिवृद्धि की है । साध्वीद्वय ने कोष के सात भागों की सूक्तियों / सुकथनों की अलग-अलग सात खण्डों में व्याख्या करने का सफल सुप्रयास किया है, जिसकी मैं सराहना एवं अनुमोदना करते हुए स्वयं को भी इस पवित्र ज्ञानगंगा की पवित्र धारा में आंशिक सहभागी बनाकर सौभाग्यशाली मानता हूँ।
T
दिनांक: 16 अप्रैल, 1998 738, नेहरूपार्क रोड,
जोधपुर (राजस्थान)
वस्तुतः अभिधान राजेन्द्र कोष पयोनिधि है । पूज्या विदुषी साध्वीद्वय सूक्ति-सुधारस रचकर एक ओर कोष की विश्वविख्यात महिमा को उजागर किया है और दूसरी ओर अपने शुभ श्रम, मौलिक अनुसंधान दृष्टि, अभिनव कल्पना और हंस की तरह मुक्ताचयन की विवेकशीलता का परिचय दिया है। मैं उनको इस महान् कृति के लिए हार्दिक बधाई देता हूँ ।
जयनारायण व्यास विश्व विद्यालय,
जोधपुर
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /36
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मन्तव्य
- भागचन्द जैन कवाड
प्राध्यापक (अंग्रेजी) प्रस्तुत ग्रंथ "अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस" (1 से 7 खण्ड) 5 परिशिष्टों में विभक्त 2667 सूक्तियों से युक्त एक बहुमूल्य एवं अमृत कणों से परिपूर्ण ग्रन्थ है । विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ में अन्यान्य उपयोगी जीवन दर्शन से सम्बन्धित विषयों का समावेश किया गया है। उदाहरण स्वरूप जीवनोपयोगी, नैतिकता तथा आध्यात्मिक जगत् को स्पर्श करने वाले विषय यथा - 'धर्म में शीघ्रता', 'आत्मवत् चाहो', 'समाधि', "किञ्चिद् श्रेयस्कर', 'अकथा', 'क्रोध परिणाम', 'अपशब्द', सच्चा भिक्ष, धीर साधक, पुण्य कर्म, अजीर्ण, बुद्धियुक्त वाणी, बलप्रद जल, सच्चा आराधक, ज्ञान और कर्म, पूर्ण आत्मस्थ, दुर्लभ मानव-भव, मित्र-शत्रु कौन ?, कर्ताभोक्ता आत्मा, रत्नपारखी, अनुशासन, कर्म विपाक, कल्याण कामना, तेजस्वी वचन, सत्योपदेश, धर्मपात्रता, स्यावाद आदि ।
सर्वत्र ग्रन्थ में अमृत-कणों का कलश छलक रहा है तथा उनकी सुवास व्याप्त है जो पाठक को भाव विभोर कर देती है, वह कुछ क्षणों के लिए अतिशय आत्मिक सुख में लीन हो जाता है । विदुषी महासतियाँ द्वय डॉ. प्रियदर्शना श्री जी एवं डॉ. सुदर्शना श्री जी ने अपनी प्रखर लेखनी के द्वारा गूढ़तम विषयों को सरलतम रूप से प्रस्तुत कर पाठकों को सहज भाव से सुधा का पान कराया है। धन्य है उनकी अथक साधना लगन व परिश्रम का सुफल जो इस धरती पर सर्वत्र आलोक किरणे बिखेरेगा और धन्य एवं पुलकित हो उठेंगे हम सब ।
चैत्र शुक्ला त्रयोदशी
अग्रवाल गर्ल्स कोलेज दिनांक 9 अप्रैल 1998
मदनगंज (राज.) विजय निवास, कचहरी रोड़, किशनगढ़ शहर (राज.)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/37
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दर्पण
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'अभिधान राजन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस' ग्रन्थ का प्रकाशन 7 खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में 'अ' से 'ह' तक के शीर्षकों के अन्तर्गत सक्तियाँ संजोयी गई हैं। अन्त में अकारादि अनुक्रमणिका दी गई हैं। प्राय: यही क्रम 'सूक्ति सुधारस' के सातों खण्डों में मिलेगा । शीर्षकों का अकारादि क्रम है। शीर्षक सूची विषयानुक्रम आदि हर खण्ड के अन्त में परिशिष्ट में दी गई है। पाठक के लिए परिशिष्ट में उपयोगी सामग्री संजोयी गई है। प्रत्येक खण्ड में 5 परिशिष्ट हैं। प्रथम परिशिष्ट में अकारादि अनुक्रमणिका, द्वितीय परिशिष्ट में विषयानुक्रमणिका, तृतीय परिशिष्ट में अभिधान राजेन्द्र : पृष्ठ संख्या, अनुक्रमणिका, चतुर्थ परिशिष्ट में जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका और पञ्चम परिशिष्ट में 'सूक्ति-सुधारस' में प्रयुक्त सन्दर्भ-ग्रन्थ सूची दी गई है। हर खण्ड में यही क्रम मिलेगा । 'सूक्ति-सुधारस' के प्रत्येक खण्ड में सूक्ति का क्रम इसप्रकार रखा गया है कि सर्व प्रथम सूक्ति का शीर्षक एवं मूल सूक्ति दी गई है। फिर वह सूक्ति अभिधान राजेन्द्र कोष के किस भाग के किस पृष्ठ से उद्धृत है । सूक्ति-आधार ग्रन्थ कौन-सा है ? उसका नाम और वह कहाँ आयी है, वह दिया है। अन्त में सूक्ति का हिन्दी भाषा में सरलार्थ दिया गया है।
सूक्ति-सुधारस के प्रथम खण्ड में 251 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के द्वितीय खण्ड में 259 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के तृतीय खण्ड में 289 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के चतुर्थ खण्ड में 467 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के पंचम खण्ड में 471 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के षष्टम खण्ड में 607 सूक्तियाँ हैं । सूक्ति-सुधारस के सप्तम खण्ड में 323 सूक्तियाँ हैं ।
कुल मिलाकर 'सूक्ति सुधारस' के सप्त खण्डों में 2667 सूक्तियाँ हैं। इस ग्रन्थ में न केवल जैनागमों व जैन ग्रन्थों की सूक्तियाँ हैं, अपितु वेद,
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उपनिषद, गीता, महाभारत, आयुर्वेद शास्त्र, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, पुराण, स्मृति, पंचतन्त्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की भी सूक्तियाँ हैं । 1. विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय 2. लेखिका द्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ
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'विश्वपूज्यः' जीवन-दर्शन
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महिमामण्डित बहुरत्नावसुन्धरा से समलंकृत परम पावन भारतभूमि की वीर प्रसविनी राजस्थान की ब्रजधरा भरतपुर में सन् 1827 3 दिसम्बर को पौष शुक्ला सप्तमी, गुरुवार के शुभ दिन एक दिव्य नक्षत्र संतशिरोमणि विश्वपूज्य आचार्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने जन्म लिया, जिन्होंने अस्सी वर्ष की आयु तक लोकमाङ्गल्य की गंगधारा समस्त जगत् में प्रवाहित की ।
उनका जीवन भारतीय संस्कृति को पुनर्जीवित करने के लिए समर्पित
जीवन-दर्शन
हुआ ।
वह युग अँग्रेजी राज्य की धूमिल घन घटाओं से आच्छादित था । पाश्चात्त्य संस्कृति की चकाचौंध ने भारत की सरल आत्मा को कुण्ठित कर दिया था । नव पीढ़ी ईसाई मिशनरियों के धर्मप्रचार से प्रभावित हो गई थी । अँग्रेजी शासन में पद - लिप्सा के कारण शिक्षित युवापीढ़ी अतिशय आकर्षित थी ।
ऐसे अन्धकारमय युग में भारतीय संस्कृति की गरिमा को अक्षुण्ण रखने के लिए जहाँ एक ओर राजा राममोहनराय ने ब्रह्मसमाज की स्थापना की, तो दूसरी ओर दयानन्द सरस्वती ने वैदिक धर्म का शंखनाद किया। उसी युग में पुनर्जागरण
लिए प्रार्थना समाज और एनी बेसेन्ट ने थियोसोफिकल सोसायटी की स्थापना की। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को अँग्रेजी शासन की तोपों ने कुचल दिया था। भारतीय जनता को निराशा और उदासीनता ने घेर लिया था ।
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जागृति का शंखनाद फूँकने के लिए लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने यह उद्घोषणा की 'स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है ।' महामना मदनमोहन मालवीय ने बनारस हिन्दु विश्वविद्यालय की स्थापना की । श्री मोहनदास कर्मचन्द गान्धी (राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी) को महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की स्वीकृति से उनके पिता श्री कर्मचन्दजी ने इंग्लैंड में बार-एट-लॉ उपाधि हेतु भेजा। गाँधीजी ने महान् संत श्रीमद् राजचन्द्र की तीन प्रतिज्ञाएँ पालन कर भारत की गौरवशालिनी संस्कृति को उजागर किया। ये तीन प्रतिज्ञाएँ थीं 1. मांसाहार त्याग 2. मदिरापान त्याग और 3. ब्रह्मचर्य का पालन | ये प्रतिज्ञाएँ भारतीय संस्कृति की रवि - रश्मियाँ हैं, जिनके प्रकाश से भारत जगद्गुरु के पद पर प्रतिष्ठित हैं, परन्तु आँग्ल शासन ने हमारी उज्ज्वल
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संस्कृति को नष्ट करने का भरसक प्रयास किया ।
ऐसे समय में अनेक दिव्य एवं तेजस्वी महापुरुषों ने जन्म लिया जिनमें श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, श्री आत्मारामजी (सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजयानन्द सूरिजी ) एवं विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी म. आदि हैं। श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी ने चरित्र निर्माण और संस्कृति की पुनर्स्थापना के लिए जो कार्य किया, वह स्वणाक्षरों में अङ्कित है । एक ओर उन्होंने भारतीय साहित्य के गौरवशाली, चिन्तामणि रत्न के समान 'अभिधान राजेन्द्र कोष' को सात खण्डों में रचकर भारतीय वाङ् मय को विश्व में गौरवान्वित किया, तो दूसरी और उन्होंने सरल, तपोनिष्ठ, त्याग, करुणार्द्र और कोमल जीवन से सबको मैत्री - सूत्र में गुम्फित किया ।
विश्वपूज्य की उपाधि उनको जनता जनार्दन ने उनके प्रति अगाध श्रद्धा-प्रीति और भक्ति से प्रदान की है, यद्यपि ये निर्मोही अनासक्त योगी थे । न तो किसी उपाधि-पदवी के आकाङ्क्षी थे और न अपनी यशोपताका फहराने के लिए लालायित थे ।
उनका जीवन अनन्त ज्योतिर्मय एवं करुणा रस का सुधा - सिन्धु था । उन्होंने अपने जीवनकाल में महनीय 61 ग्रन्थों की रचना की है जिनमें काव्य, भक्ति और संस्कृति की रसवंती धाराएँ प्रवाहित हैं ।
वस्तुतः उनका मूल्यांकन करना हमारे वश की बात नहीं, फिरभी हम प्रीतिवश यह लिखती हैं कि जिस समय भारत के मनीषी - साहित्यकार एवं कवि भारतीय संस्कृति और साहित्य को पुनर्जीवित करना चाहते थे, उस समय विश्वपूज्य भी भारत के गौरव को उद्भासित करने के लिए 63 वर्ष की आयु में सन् 1890 आश्विन शुक्ला 2 को कोष के प्रणयन में जुट गए। इस कोष के सप्त खण्डों को उन्होंने सन् 1903 चैत्र शुक्ला 13 को परिसम्पन्न किया । यह शुभ दिन भगवान् महावीर का जन्म कल्याणक दिवस है। शुभारम्भ नवरात्रि में किया और समापन प्रभु के जन्म-कल्याणक के दिन वसन्त ऋतु की मनमोहक सुगन्ध बिखेरते हुए किया ।
यह उल्लेख करना समीचीन है कि उस युग में मैकाले ने अँग्रेजी भाषा और साहित्य को भारतीय विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में अनिवार्य कर दिया था और नई पीढ़ी अँग्रेजी भाषा तथा साहित्य को पढ़कर भारतीय साहित्य व संस्कृति को हेय समझने लगी थी, ऐसे पराभव युग में बालगंगाधर तिलक ने 'गीता रहस्य', जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरजी ने 'कर्मयोग', श्रीमद् आत्मारामजी
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ने 'जैन तत्त्वादर्श' व 'अज्ञान तिमिर भास्कर', महान् मनीषी अरविन्द घोष ने 'सावित्री' महाकाव्य लिखकर पश्चिम-जगत् को अभिभूत कर दिया ।
उस युग में प्रज्ञा महषि जैनाचार्य विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरुदेव ने 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की रचना की । उनके द्वारा निर्मित यह अनमोल ग्रन्थराज एक अमरकृति है। यह एक ऐसा विशाल कार्य था, जो एक व्यक्ति की सीमा से परे की बात थी, किन्तु यह दायित्व विश्वपूज्य ने अपने कंधों पर ओढ़ा ।
__ भारतीय संस्कृति और साहित्य के पुनर्जागरण के युग में विश्वपूज्य ने महान् कोष को रचकर जगत् को ऐसा अमर ग्रन्थ दिया जो चिर नवीन है। यह 'एन साइक्लोपिडिया' समस्त भाषाओं की करुणार्द्र माता संस्कृत, जनमानस में गंग-धारा के समान बहनेवाली जनभाषा अर्धमागधी और जनता-जनार्दन को प्रिय लगनेवाली प्राकृत भाषा - इन तीनों भाषाओं के शब्दों की सुस्पष्ट, सरल और सहज व्याख्या उद्भासित करता है।
इस महाकोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें गीता, मनुस्मृति, ऋग्वेद, पद्मपुराण, महाभारत, उपनिषद, पातंजल योगदर्शन, चाणक्य नीति, पंचतंत्र, हितोपदेश आदि ग्रन्थों की सुबोध टीकाएँ और भाष्य उपलब्ध हैं । साथ ही आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' पर भी व्याख्याएँ हैं ।
- 'अभिधान राजेन्द्र कोष' की प्रशंसा भारतीय एवं पाश्चात्त्य विद्वान् करते नहीं थकते । इस ग्रन्थ रत्नमाला के सात खण्ड सात अनुपम दिव्य रत्न हैं, जो अपनी प्रभा से साहित्य-जगत् को प्रदीप्त कर रहे हैं ।
इस भारतीय राजषि की साहित्य एवं तप-साधना पुरातन ऋषि के समान थी। वे गुफाओं एवं कन्दराओं में रहकर ध्यानालीन रहते थे। उन्होंने स्वर्णगिरि, चामुण्डावन, मांगीतुंगी आदि गुफाओं के निर्जन स्थानों में तप एवं ध्यानसाधना की । ये स्थान वन्य पशुओं से भयावह थे, परन्तु इस ब्रह्मर्षि के जीवन से जो प्रेम और मैत्री की दुग्धधारा प्रवाहित होती थी, उससे हिंस्र पशु-पक्षी भी उनके पास शांत बैठते थे और भयमुक्त हो चले जाते थे ।
ऐसे महापुरुष के चरण कमलों में राजा-महाराजा, श्रीमन्त, राजपदाधिकारी नतमस्तक होते थे। वे अत्यन्त मधुर वाणी में उन्हें उपदेश देकर गर्व के शिखर से विनय-विनम्रता की भूमि पर उतार लेते थे और वे दीन-दुखियों, दरिद्रों, असहायों, अनाथों एवं निर्बलों के लिए साक्षात् भगवान् थे । 1. अज्ञान तिमिर भास्कर को पढ़कर अंग्रेज विद्वान् हार्नेल इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने श्रीमद्
आत्मारामजी को 'अज्ञान तिमिर भास्कर' के अलंकरण से विभूषित किया तथा उन्होंने अपने ग्रन्थ 'उपासक दशांग' के भाष्य को उन्हें समर्पित किया ।।
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उन्होंने सामाजिक कुरीतियों-कुपरम्पराओं, बुराइयों को समाप्त करने के लिए तथा धार्मिक रूढ़ियों, अन्धविश्वासों, मिथ्याधारणाओं और कुसंस्कारों को मिटाने के लिए ग्राम-ग्राम, नगर-नगर पैदल विहार कर विभिन्न प्रवचनों के माध्यम से उपदेशामृत की अजस्रधारा प्रवाहित की । तृष्णातुर मनुष्यों को संतोषामृत पिलाया । कुसंपों के फुफकारते फणिधरों को शांत कर समाज को सुसंप का सुधा-पान कराया ।
विश्वपूज्य ने नारी-गरिमा के उत्थान के लिए भी कन्या-पाठशालाएँ, दहेज उन्मूलन, वृद्ध-विवाह निषेध आदि का आजीवन प्रचार-प्रसार किया। 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' के अनुरूप सन्देश दिया अपने प्रवचनों एवं साहित्य के माध्यम से ।
गुरुदेव ने पर्यावरण-रक्षण के लिए वृक्षों के संरक्षण पर जोर दिया । उन्होंने पशु-पक्षी के जीवन को अमूल्य मानते हुए उनके प्रति प्रेमभाव रखने के लिए उपदेश दिए । पर्वतों की हरियाली, वन-उपवनों की शोभा, शान्ति एवं अन्तर-सुख देनेवाली है। उनका रक्षण हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक है। इसप्रकार उन्होंने समस्त जीवराशि के संरक्षण के लिए उपदेश दिया ।
काव्य विभूषा : उनकी काव्य कला अनुपम है। उन्होंने शास्त्रीय रागरागिनियों में अनेक सज्झाय व स्तवन गीत रचे हैं। उन्होंने शास्त्रीय रागों में ठुमरी, कल्याण, भैरवी, आशावरी आदि का अपने गीतों में सुरम्य प्रयोग किया है। लोकप्रिय रागिनियों में वनझारा, गरबा, ख्याल आदि प्रियंकर हैं। प्राचीन पूजा गीतों की लावनियों में 'सलूणा', 'रखता', 'तीरथनी आशातना नवि करिए रे' आदि रागों का प्रयोग मनमोहक हैं । उन्होंने उर्दू की गजल का भी अपने गीतों में प्रयोग किया है।
चैत्यवंदन - स्तुतियों में - दोहा, शिखरणी, स्रग्धरा, मालिनी, पद्धडी प्रमुख हैं। पद्धडी छन्द में रचित श्री महावीर जिन चैत्यवंदन की एक वानगी प्रस्तुत है -
"संसार सागर तार धीर, तुम विण कोण मुझ हरत पीर । ___ मुझ चित्त चंचल तुं निवार, हर रोग सोग भयभीत वार ॥1 एक निश्छल भक्त का दैन्य निवेदन मौन-मधुर है। साथ ही अपने परम तारक परमात्मा पर अखण्ड विश्वास और श्रद्धा-भक्ति को प्रकट करता है ।
चौपड़ क्रीड़ा- सज्झाय में अलौकिक निरंजन शुद्धात्म चेतन रूप प्रियतम के साथ विश्वपूज्य की शुद्धात्मा रूपी प्रिया किस प्रकार चौपड़ खेलती है ? वे कहते हैं - 1. जिन - भक्ति - मंजूषा भाग - 1 ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/48_
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"रंग रसीला मारा, प्रेम पनोता मारा, सुखरा सनेही मारा साहिबा ।
पिउ मोरा चोपड़ इणविध खेल हो ॥ चार चोपड़ चारों गति, पिउ मोरा चोरासी जीवा जोन हो ।
कोठा चोरासिये फिरे, पिउ मोरा सारी पासा वसेण हो ॥" 1 यह चौपड़ का सुन्दर रूपक है और उसके द्वारा चतुर्गति रूप संसार में चौपड़ का खेल खेला जा रहा है। साधक की शुद्धात्म-प्रिया चेतन रूप प्रियतम को चौपड़ के खेल का रहस्योद्घाटन करते हुए कहती है कि चौपड़ चार पट्टी और 84 खाने की होती है। इसीतरह चतुर्गति रूप चौपड़ में भी 84 लक्षयोनि रूप 84 घर-उत्पत्ति-स्थान होते हैं । चतुर्गति चौपड़ के खेल को जीतकर आत्मा जब विजयी बन जाती है, तब वह मोक्ष रूपी घर में प्रवेश करती है।
अध्यात्मयोगी संत आनंदघन ने भी ऐसी ही चौपड़ खेली है -
"प्राणी मेरो, खेलै चतुरगति चोपर।। नरद गंजफा कौन गिनत है, मानै न लेखे बुद्धिवर ॥ राग दोस मोह के पासे, आप वणाए हितधर ।
जैसा दाव परै पासे का, सारि चलावै खिलकर ॥" 2 विश्वपूज्य का काव्य अप्रयास हृदय-वीणा पर अनुगुंजित है । 'पिउ' [प्रियतम] शब्द कविता की अंगूठी में हीरककणी के समान मानो जड़ दिया। .
विश्वपूज्य की आत्मरमणता उनके पदों में दृष्टिगत होती है। वे प्रकाण्ड विद्वान् - मनीषी होते हुए भी अध्यात्म योगीराज आनन्दघन की तरह अपनी मस्त फकीरी में रमते थे । उनका यह पद मनमोहक है - 'अवधू आतम ज्ञान में रहना,
किसी कु कुछ नहीं कहना ॥' 3 'मौनं सर्वार्थ साधनम्' की अभिव्यंजना इसमें मुखरित हुई है। उनके पदों में व्यक्ति की चेतना को झकझोर देने का सामर्थ्य है, क्योंकि वे उनकी सहज अनुभूति से निःसृत है। विश्वपूज्य का अंतरंग व्यक्तित्व उनकी काव्य-कृतियों में व्याप्त है । उनके पदों में कबीर-सा फक्कड़पन झलकता है। उनका यह पद द्रष्टव्य है -
"ग्रन्थ रहित निर्ग्रन्थ कहीजे, फकीर फिकर फकनारा । ज्ञानवास में बसे संन्यासी, पंडित पाप निवारा रे
सद्गुरु ने बाण मारा, मिथ्या भरम विदारा रे ॥" :
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
2 आनन्दघन ग्रन्थावली 4. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
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विश्वपूज्य का व्यक्तित्व वैराग्य और अध्यात्म के रंग में रंगा था । उनकी आध्यात्मिकता अनुभवजन्य थी । उनकी दृष्टि में आत्मज्ञान ही महत्त्वपूर्ण था । 'परभावों में घूमनेवाला आत्मानन्द की अनुभूति नहीं कर सकता। उनका मत था कि जो पर पदार्थों में रमता है वह सच्चा साधक नहीं है । उनका एक पद द्रष्टव्य है
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'आतम ज्ञान रमणता संगी, जाने सब मत जंगी । पर के भाव लहे घट अंतर, देखे पक्ष दुरंगी ॥ सोग संताप रोग सब नासे, अविनासी अविकारी । तेरा मेरा कछु नहीं ताने, भंगे भवभय भारी | अलख अनोपम रूप निज निश्चय, ध्यान हिये बिच धरना ।
I
दृष्टि राग तजी निज निश्चय, अनुभव ज्ञानकुं वरना ॥ " 1 उनके पदों में प्रेम की धारा भी अबाधगति से बहती है । उन्होंने शांतिनाथ परमात्मा को प्रियतम का रूपक देकर प्रेम का रहस्योद्घाटन किया है । वे लिखते हैं
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'श्री शांतिजी पिउ मोरा, शांतिसुख सिरदार हो ।
प्रेमे पाम्या प्रीतड़ी, पिउ मोरा प्रीतिनी रीति अपार हो ॥ शांति सलूणी म्हारो, प्रेम नगीनो म्हारो, स्नेह समीनो म्हारो नाहलो । पिउ पल एक प्रीति पमाड हो, प्रीत प्रभु तुम प्रेमनी,
पीउ मोरा मुज मन में नहिं माय हो ॥ " 2
यद्यपि उनकी दृष्टि में प्रेम का अर्थ साधारण-सी भावुक स्थिति न होकर आत्मानुभवजन्य परमात्म-प्रेम है, आत्मा-परमात्मा का विशुद्ध निरूपाधिक प्रेम है । इसप्रकार, विश्वपूज्य की कृतियों में जहाँ-जहाँ प्रेम-तत्त्व का उल्लेख हुआ है, वह नर-नारी का प्रेम न होकर आत्म-ब्रह्म-प्रेम की विशुद्धता है ।
विश्वपूज्य में धर्म सद्भाव भी भरपूर था । वे निष्पक्ष, निस्पृही मानवमानव के बीच अभेद भाव एवं प्राणि मात्र के प्रति प्रेम - पीयूष की वर्षा करते थे । उन्होंने अरिहन्त, अल्लाह - ईश्वर, रूद्र- शिव, ब्रह्मा-विष्णु को एक ही माना है । एक पद में तो उन्होंने सर्व धर्मों में प्रचलित परमात्मा के विविध नामों का एक साथ प्रयोग कर समन्वय - दृष्टि का अच्छा परिचय दिया है। उनकी सर्व धर्मों के प्रति समादरता का निम्नांकित पद मननीय है
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'ब्रह्म एक छे लक्षण लक्षित, द्रव्य अनंत निहारा ।
सर्व उपाधि से वर्जित शिव ही, विष्णु ज्ञान विस्तारा रे ॥
1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
2. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
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ईश्वर सकल उपाधि निवारी, सिद्ध अचल अविकारा । शिव शक्ति जिनवाणी संभारी, रुद्र है करम संहारा रे ॥ अल्लाह आतम आपहि देखो, राम आतम रमनारा ।
कर्मजीत जिनराज प्रकासे, नयथी सकल विचारा रे ॥1 विश्वपूज्य के इस पद की तुलना संत आनंदघन के पद से की जा सकती
यह सच है कि जिसे परमतत्त्व की अनुभूति हो जाती है, वह संकीर्णता के दायरे में आबद्ध नहीं रह सकता । उसके लिए राम-कृष्ण, शंकर-गिरीश, भूतेश्वर, गोविन्द, विष्णु, ऋषभदेव और महादेव या ब्रह्म आदि में कोई अन्तर नहीं रह जाता है। उसका तो अपना एक धर्म होता है और वह है - आत्मधर्म (शुद्धात्म-धर्म) । यही बात विश्वपूज्य पर पूर्णरूपेण चरितार्थ होती है। सामान्यतया जैन परम्परा में परम तत्त्व की उपासना तीर्थंकरों के रूप में की जाती रही है; किन्तु विश्वपूज्य ने परमतत्त्व की उपासना तीर्थंकरों की स्तुति के अतिरिक्त शंकर, शंभु, भूतेश्वर, महादेव, जगकर्ता, स्वयंभू, पुरूषोत्तम, अच्युत, अचल, ब्रह्म-विष्णु-गिरीश इत्यादि के रूप में भी की है। उन्होंने निर्भीक रूप से उद्घोषणा की है - "शंकर शंभु भूतेश्वरो ललना, मही माहें हो वली किस्यो महादेव, जिनवर ए जयो ललना । जगकर्ता जिनेश्वरो ललना, स्वयंभू हो सहु सुर करे सेव, जिनवर ए जयो ललना ॥ वेद ध्वनि वनवासी ललना, चौमुखे हो चारे वेद सुचंग, जिन. । वाणी अनक्षरी दिलवसी ललना, ब्रह्माण्डे बीजो ब्रह्म विभंग, जिनवर० ॥ पुरुषोत्तम परमातमा ललना, गोविन्द हो गित्वो गुणवंत, जि० ।। अच्युत अचल छे ओपमा ललना, विष्णु हो कुण अवर कहंत, जिन० ॥ नाभेय रिषभ जिणंदजी ललना, निश्चय थी हो देख्यो देव दमीश । एहिज सूरिशजेन्द्र जी ललना, तेहिज हो ब्रह्मा विष्णु गिरीश, जि० ॥" 3 1. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1 2. 'राम कहौ रहिमान कहौ, कोउ कान्ह कहौ महादेव री ।
पारसनाथ कही कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेवरी ॥ भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री ।। तैसे खण्ड कलपना रोपित, आप अखण्ड सरूप री ॥ निज पद रमै राम सो कहिये, रहम करे रहमान री । करणे करम कान्ह सो कहिये, महादेव निरवाण री ॥ परसै रूप सो पारस कहिये, ब्रह्म चिन्है सो ब्रह्म री ।
इहविध साध्यो आप आनन्दघन, चेतनमय नि:कर्मरी ॥' आनंदघन ग्रन्थावली, पद ६५ 3. जिन भक्ति मंजूषा भाग - 1
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वास्तव में, विश्वपूज्य ने परमात्मा के लोक प्रसिद्ध नामों का निर्देश कर समन्वय-दृष्टि से परमात्म-स्वरूप को प्रकट किया है।
इसप्रकार कहा जा सकता है कि विश्वपूज्य ने धर्मान्धता, संकीर्णता, असहिष्णुता एवं कूपमण्डूकता से मानव-समाज को ऊपर उठाकर एकता का अमृतपान कराया। इससे उनके समय की राजनैतिक एवं धार्मिक परिस्थिति का भी परिचय मिलता है। ___'अभिधान राजेन्द्र कोष' कथाओं का सुधासिन्धु है । कथाओं में जीवन को सुसंस्कृत, सभ्य एवं मानवीय गुण-सम्पदा से विभूषित करने का सरस शैली में अभिलेखन हुआ है। कथाएँ इक्षुरस के समान मधुर, सरस और सहज शैली में आलेखित हैं । शैली में प्रवाह हैं, प्राकृत और संस्कृत शब्दों को हीरक कणियों के समान तराश कर कथाओं को सुगम बना दिया है। उपसंहार :
विश्वपूज्य अजर-अमर है । उनका जीवन 'तप्तं तप्तं पुनरपि पुनः काञ्चन कान्त वर्णम्' की उक्ति पर खरा उतरता है । जीवन में तप की कंचनता है, कवि-सी कोमलता है। विद्वत्ता के हिमाचल में से करुणा की गंग-धारा प्रवाहित है।'
उन्होंने जगत् को 'अभिधान राजेन्द्र कोष' रूपी कल्पतरू देकर इस धरती को स्वर्ग बना दिया है, क्योंकि इस कोष में ज्ञान-भक्ति और कर्मयोग का त्रिवेणी संगम हुआ है। यह लोक माङ्गल्य से भरपूर क्षीर-सागर है। उनके द्वारा निर्मित यह कोष आज भी आकाशी ध्रुवतारे की भाँति टिमटिमा रहा है और हमें सतत दिशा-निर्देश दे रहा है ।
विश्वपूज्य के लिए अनेक अलंकार ढूँढ़ने पर भी हमें केवल एक ही अलंकार मिलता है - वह है - अनन्वय अलंकार - अर्थात् विश्वपूज्य विश्वपूज्य ही है।
उनका स्वर्गवास 21 दिसम्बर सन् 1906 में हुआ, परन्तु कौन कहता है कि विश्वपूज्य विलीन हो गये ? वे जन-जन के श्रद्धा केन्द्र सबके हृदयमंदिर में विद्यमान हैं !
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(प्रथम खण्ड)
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1. धर्म में शीघ्रता
मा पडिबंध करेह ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृष्ठ-7]
- अन्तकृत् दशांग 3 वर्ग [धर्म कार्य में] विलम्ब मत करो। 2. यथोचित
अहासुहं देवाणुप्पिया।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 7]
- अन्तकृत्दशांग 4 वर्ग । हे देवानुप्रिय ! जैसा तुम्हें सुख हो, वैसा करो । 3. मृत्यु निश्चित
जहा जाएणं अवस्सं मरियव्वं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष भाग [1 पृ. 7]
- अन्तकृत्दशांग 4 वर्ग जिसने जन्म लिया है, वह अवश्य मरेगा । पञ्चाति वर्जित अइरोसो अइतोसो अइहासो दुज्जणेहिं संवासो । अइ उब्भडो य वेसो, पंच वि गुरूयं पि लहुयं पि॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 11]
एवं भाग 2 पृ. 900
- धर्मसंग्रह - 2 / 71 अतिरोष, अतितोष, अतिहास्य, दुर्जनों का सहवास और अति उद्भटवेष - ये पाँचों ही महान् को भी लघु बना देते हैं । 5. आत्मवत् चाहो !
जं इच्छसि अप्पणतो, जेवण इच्छसि अप्पणंतो ।
तं इच्छं परस्स वियं, इत्तियगं जिण सासणयं ॥ ____ अभिधान राजेन्द्र कोषं में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/55
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 87] बृहदावश्यक भाष्य 4584
जो अपने लिए चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए। जो अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए - बस इतना मात्र जिनशासन हैं । तीर्थंकरों का उपदेश है ।
6.
समाधि
सव्वारंभ परिग्गह-णिक्खेवो सव्वभूतसमया य । एक्कग्गमण समाही, - णया अह एत्तिओ मोक्खो | श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 87] बृहदावश्यक भाष्य 4585
सर्व प्रकार के आरंभ और परिग्रह का त्याग, सभी प्राणियों के प्रति समता तथा चित्त की एकाग्रता रूप समाधि - बस इतना मात्र मोक्ष है ।
विवेकान्ध
एकं हि चक्षुरमलं सहजोविवेकः, तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम् ।
एतद् द्वयं भुवि न यस्य तत्त्वतोऽन्धस्,
7.
तस्यापमार्ग चलने खलु कोऽपराधः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 105] एवं अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 70] आचारांग सटीक 1/2/3
धर्मरत्नप्रकरण सटीक 1/17/184
एक पवित्र नेत्र तो है सहज विवेक, दूसरा है - विवेकी जनों के
साथ निवास । संसार में ये दोनों आँखें जिसके नहीं है, वह वस्तुतः अन्धा
। अगर वह कुमार्ग पर चलता है, तो अपराध ही क्या है ?
8.
किञ्चित् श्रेयस्कर !
अकरणान्मन्दं करणं श्रेयः ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-1 /56
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9.
-
नहीं करने की अपेक्षा कुछ करना अच्छा है ।
अकथा
मिच्छत्तं वेयन्तो, जं अन्नाणी कहं परिकes | लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिआ समए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 124 ] एवं [भाग 6 पृ. 274 ] दशवैकालिक नियुक्ति 209
मिथ्या दृष्टि अज्ञानी – चाहे वह साधु के वेष में हो या गृहस्थ के वेष में, उसका कथन 'अकथा' कहा जाता है ।
10.
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 123 ] विक्रम चरित्र - 1/3
आरम्भासक्त जीव
आरम्भसत्तां गढिता य लोए, धम्मं न याणंति विमोक्ख हेउं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 126 ] सूत्रकृतांग 1/10/16
सावद्य आरंभ में आसक्त और विषय-भोगों में गृद्ध लोग मोक्ष के धर्म को नहीं जाते ।
-
कारणभूत 11. क्रोध - परिणाम
क्रोध न करें ।
सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू ण संजले ।
उत्तराध्ययन 2/26
क्रोध करने से साधु अज्ञानियों के समान हो जाता है, अत: साधु
12. अपशब्द
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 131 ]
ददतु ददतु गालीं गालिमंतो भवन्तः । वयमपि तदभावात् गालिदानेऽप्यशक्ताः ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/57
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जगति विदितमेतद्दीयते विद्यमानं । न ददतु शशविषाणं ये महात्यागिनोऽपि ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 131] उत्तराध्ययन सटीक 2 अ०
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आपके पास अपशब्द (गाली) का धन है, दीजिए, दीजिये हमारे पास ऐसा धन न होने से हम देने में असमर्थ हैं । संसार में ऐसा स्पष्ट प्रतीत है कि जिसके पास जो होगा वही देगा । यथा शशविषाण ( खरगोश श्रृंग ) ही नहीं तो वह प्राप्त भी नहीं होगा ।
14.
13. भिक्षु सहिष्णु रहे
अक्कोसेज्जपरो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 131 ]
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-
उत्तराध्ययन 2/26
यदि कोई भिक्षु को गाली दे तो वह उसके प्रति क्रोध न करे ।
सच्चा भिक्षु
सम सुह दुक्ख सहे य जे, स भिक्खू ।
-
-
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 132] दशवैकालिक 10/11
जो सुख तथा दुःख में एक रूप रहता है अर्थात् अनुकूल वस्तु की प्राप्ति में प्रसन्न न हो और प्रतिकूल की प्राप्ति में खिन्न न हो; वही सच्चा
भिक्षु है ।
15. अज्ञानी में अविश्वास
-
अगीयत्थरस वयणेणं, अमियं पि न घोट्टए ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 162] महानिशीथ सूत्र 6/144
अगीतार्थ - अज्ञानी के कहने से अमृत भी नहीं पीना चाहिए ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /58
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16. अगीतार्थ-संसर्गः दुःखद
विसं खाएज्ज हालाहलं, तं किर मारेइ तक्खणं । ण करेग्गीयत्थसंसग्गि, विढवे लक्खंपिजं तहि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 162]
- महानिशीथ 6/150 हलाहल विषपान करना श्रेष्ठ है, जो तत्क्षण मृत्यु प्रदान कर मुक्त कर देता है; किन्तु लाखों का लाभ होने पर भी अगीतार्थ का सहवास / संसर्ग नहीं करना चाहिए क्योंकि वह क्षण-क्षण दु:ख देता है । 17. अगीतार्थ के साथ मत रहो
अगीयत्थेण समं एक्कं, खणंद्धपि न संवसे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 162]
- महानिशीथ 6/148 अगीतार्थ के साथ एक क्षण भी न रहें । 18. धीर साधक
अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 164]
- आचारांग 1/3/2 हे धीर साधक ! तू अग्र और मूल का विवेक करके उसे पहचान । 19. धन की बैसाखी पर धर्म नहीं चलता
धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्या नीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धिपङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 179] - पद्मपुराण 5/19/252
एवं हारिभद्रीय अ. 4/6 धर्म-कार्य के लिए जिसे धन की चाह है, उसकी वह चाह भी श्रेयस्कर नहीं होती है । कीचड़ लगाकर फिर उसे धोने की अपेक्षा दूर रहकर उसे नहीं छूना ही अच्छा है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/59
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20. पुण्य-कर्म
वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । अन्न प्रदानमेतत्तु पूर्त तत्त्व विदो विदुः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 180] __- मनुस्मृति 4/226
- योगदृष्टि समुच्चय - 117 वापी, कूप, सरोवर तथा देवमंदिर बनवाना, अन्न का दान देना पूर्त-पुण्य कर्म है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। 21 बुद्धियुक्त वाणी
अचक्खु ओवनेयारं, बुद्धिं अणेसए गिरा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 181]
- व्यवहार भाष्य पीठिका 76 अंधा व्यक्ति जिसप्रकार पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसीप्रकार वाणी, बुद्धि की अपेक्षा रखती है। 22. ज्ञानी-अखिन्न
नाणी नो परिदेवए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 190]
एवं [भाग 4 पृ. 2146]
- उत्तराध्ययन 2/15 ज्ञानी खेद नहीं करें। 23. भोजन अनुचित
अजीर्णे अभोजनमिति ।
- अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
- धर्मबिन्दु 21/43 अजीर्ण में भोजन उचित नहीं है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/60
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24. रोग का मूल
अजीर्ण प्रभवा रोगाः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203] - धर्मसंग्रह 1 अधिकार पृ. 8
. एवं धर्मबिन्दु सटीक - 33 सारे रोग अजीर्ण से पैदा होते हैं। 25 अजीर्ण-प्रकार
तत्राजीर्णं चतुर्विधःआमं विदग्धं विष्टब्धं, रसशेषं तथा परम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
- धर्मबिन्दु सटीक-33 अजीर्ण चार प्रकार का है - आम, विदग्ध, विष्टब्ध और रसशेष । चतुर्विध अजीर्ण-व्याख्या
आमे तु द्रवगन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता । विष्टब्धे गात्रभङ्गोऽत्र रसशेषे तु जाड्यता ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
- धर्मबिन्दु सटीक-34 १ आम = अजीर्ण में नरमदस्त तथा छाश आदि की दुर्गन्ध - द्रवगन्धी होती है । २. विदग्ध = अजीर्ण में खराब धूए जैसी दुर्गन्ध आती है । ३. विष्टब्ध = अजीर्ण में शरीर टूटता है, शरीर में पीड़ा होती है तथा अवयव ढीले पड़ जाते हैं और ४. रसशेष = अजीर्ण में जड़ता-शिथिलता व आलस आता है। 27. अजीर्ण-लक्षण
मलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगौरवमरूच्यम् । अविशुद्धश्चोद्गारः, षड जीर्ण व्यक्त लिङ्गानि ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203] - धर्मबिन्दु सटीक-35
अभिधान राजेन्द्र कीष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/61
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(१) मल और (२) वायु की हमेशा से भिन्न दुर्गन्ध (३) विष्टा में हमेशा से भिन्नता, (४) शरीर का भारीपन (५) अन्न पर अरुचि तथा (६) बुरी डकार आना । अजीर्ण के ये ६ लक्षण हैं। 28. अजीर्ण से रोग
मूर्छा प्रलापो वमथुः, प्रसेकः सदनं भ्रमः । उपद्रवा भवन्त्येते, मरणं वाऽप्य जीर्णतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
- धर्मबिन्दु सटीक 36 अजीर्ण के कारण मूर्छा, प्रलाप, कम्पन, अधिक पसीना व धुंक आना, शरीर नरम होना तथा चक्कर आना आदि उपद्रव होते हैं और अचेतन से अन्त में मृत्यु भी होती है अर्थात् अजीर्ण के समय कुछ न खाकर लंघन करना चाहिए। 29. बलप्रद - जल
अजीर्णे भोजने वारि, जीर्णे वारि बलप्रदम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
वाचस्पत्याभिधान [कोष चाणक्य नीति 8/7 बदहजमी होने पर पानी बलवर्धक है और हजम हो जाने पर पानी शक्तिवर्धक है। 30. आर्जव-अंकुर
अज्जवयाएणं काउज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 219]
- उत्तराध्ययन 29/50 सरल भाव से जीव को काया की ऋजुता, भाषा की ऋजुता और अविसंवादन भाव की प्राप्ति होती है । 31. सच्चा आराधक
अवि संवायणं संपन्नयाएणं जीवे । धम्मस्स आराहए भवइ ॥
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/62
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 219 ] -
उत्तराध्ययन 29/50 गद्य आलापक
दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है ।
32. संतुलित स्व- पर
जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति । जे बहिया जाणति से अज्झत्थं जाणति ॥ एतं तुलमसिं ।
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] एवं [भाग 6 पृ. 1061] आचारांग 1/1/7/56
जो अपने अन्दर [अपने सुख-दु:ख की अनुभूति] को जानता है, वह बाहर [दूसरों के सुख-दुःख की अनुभूति] को भी जानता है । जो बाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है । इसतरह दोनों को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिए ।
33.
अध्यात्म- दोष
कोहं च माणं च तहेव मायं । लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] सूत्रकृतांग 1/6/26
क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चारों अन्तरात्मा के (अध्यात्म के) भयंकर दोष हैं ।
34.
-
अध्यात्म-स्वरूप
,
औचित्याद् वृत्तमुक्तस्य वचनात् तत्त्व- चिन्तनम् । मैत्र्यादि सारमत्यन्त- मध्यात्मं तद् विदो विदुः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] योगबिन्दु - 358
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /63
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औचित्यपूर्ण - विधिवत् चारित्र्य सेवी पुरुष का शास्त्रानुगामी तत्त्व-चिन्तन, मैत्री, करुणा, प्रमोद तथा माध्यस्थादि उत्तम भावनाओं का जीवन में स्वीकार करना ज्ञानीजनों द्वारा 'अध्यात्म' कहा जाता है। 35. वचनगुप्त - आत्मसंवृत्त
वइगुत्ते अज्झप्प संवुडे परिवज्जए सदा पावं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 229]
- आचारांग 1/5/4/165 मौन तथा आत्मलीन होकर पापकर्म से दूर रहे । 36. ज्ञान और कर्म
आहेसु विज्जा चरणं पमोक्खं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 240]
एवं [भाग 3 पृ. 556]
- सूत्रकृतांग 1/12/11 ज्ञान और कर्म [विद्या एवं चरण] से ही मोक्ष प्राप्त होता है । 37. अष्ट पूजा पुष्प
अहिंसा सत्य मस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता । गुरुभक्ति स्तपोज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 246]
- हारिभद्रीय अष्टक 3 अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, नि:संगता, गुरु-भक्ति, तप और ज्ञान - ये पूजा के आठ फूल कहलाते हैं । 38. बुद्धि-गुण
शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । अहोऽपोहोऽर्थ विज्ञानं, तत्त्व ज्ञानं च धी गुणाः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 247] - अभिधान चिंतामणि 2/210 -211
एवं कामन्दकीय नीतिसार 4/21 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/64
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सुनने की इच्छा करना (शुश्रूषा), सुनकर तत्त्व को ग्रहण करना (श्रवण), ग्रहण किए हुए तत्त्व को हृदय में धारण करना (ग्रहण), फिर उस पर विचार करना (धारणा), विचार करने के पश्चात् उसका सम्यक् प्रकार से निश्चय करना (ऊहापोह), निश्चय द्वारा वस्तु को समझना (अर्थविज्ञान)
और अन्त में उस वस्तु के तत्त्व की जानकारी करना (तत्त्वज्ञान)- ये बुद्धि के आठ गुण हैं। 39. नरक-द्वार
चत्वारो नरक द्वाराः, प्रथमं रात्रि भोजनम् । परस्त्री सङ्गमश्चैव, सन्धानानन्त कायिके ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 264] - धर्मसंग्रह 2 अधि० पृ. 75
एवं मनुस्मृति नरक गमन के चार द्वार हैं - १. रात्रिभोजन, २. परस्त्री गमन, ३. अचार भक्षण और ४. अनन्तकाय भक्षण । 40. क्रिया-बंध
अहात्तं रियंरीयमाणस्सइरियावहिया किरिया कज्जति। उस्सुत्तं रीयं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 272]
- भगवती 7/1/16 [2] सिद्धान्तानुकूल प्रवृत्ति करनेवाला साधक ऐपिथिक [अल्प-कालिका क्रिया का बन्ध करता है। सिद्धान्त के प्रतिकूल प्रवृत्ति करनेवाला सांपरायिक चिरकालिक] क्रिया का बन्ध करता है । 41. नाना प्रदर्शन
मायी विउव्वति, नो अमायी विउव्वति । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 274]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/65
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भगवती 1319126
जिसके अन्तर में माया का अंश है, वही विकुर्वणा [ नाना रूपों का प्रदर्शन] करता है | अमायी [सरलात्मावाला ] नहीं करता ।
42. सन्त-हृदय
सारद सलिल इव सुद्धहियया विहग इव विप्यमुक्का
वसुंधरा इव सव्व फास विसहा ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 278] सूत्रकृतांग 2/2/38
मुनिजनों का हृदय शरदकालीन नदी के जल की तरह निर्मल होता है । वे पक्षी की तरह बन्धनों से मुक्त और पृथ्वी की तरह समस्त सुखदुःखों को समभाव से सहन करनेवाले होते हैं ।
43.
श्रमण-धर्म
खंती य मद्दवऽज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे | सच्चं सोयं आकिंचणं च, बंभं च जइ धम्मो ॥
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क्षमा, मार्दव [मृदुता], सरलता, कर्मबन्ध से मुक्त होने की भावना, तपश्चरण, संयम, सत्य-भाषण, आभ्यन्तर शुद्धि, अकिञ्चन भाव और ब्रह्मचर्य का पालन ये दस श्रमण धर्म है ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 279] तित्थोगाली पइण्णय 1207
44. संयमी आत्मा
इच्छा कामं च लोभं च संजओ परिवज्जए ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 280 ]
उत्तराध्ययन 35/3
इच्छा, काम-वासना और लोभ को छोड़ दे ।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /66
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45. श्रमण-निवास
मणोहरं चित्तहरं, मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरूल्लोयं, मणसा वि न पत्थए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 280]
- उत्तराध्ययन 35/4 मुनि ऐसे निवास की मन से भी इच्छा नहीं करे, जो मनोहर हो, जो चित्र युक्त हो, जो माला और धूप से सुगन्धित हो, दरवाजे सहित हो
और श्वेत चन्द्रवे वाला हो। 46. निर्ग्रन्थ-निवास
फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहिं अणभिदुए । तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परम संजए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 280]
- उत्तराध्ययन 35/7 ' जो स्थान प्रासुक हो, किसी को पीडाकारी न हो एवं जहाँ स्त्रियों का उपद्रव न हो, परम संयमी साधु वहाँ निवास करे । 47. आहार क्यों ?
न रसट्टाए भुंजेज्जा जवणट्ठाए महामुणी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 281]
- उत्तराध्ययन 35/17 - मुनि स्वाद के लिए अथवा शारीरिक धातुओं की वृद्धि के लिए आहार न करे, अपितु संयम रूप यात्रा के निर्वाह के लिए ही आहार ग्रहण
करे।
48. कंचन माटी जाने
समलेठु कंचणे भिक्खू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 281] - एवं [भाग 7 पृ. 281] - उत्तराध्ययन 35/13
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/67
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मुनि सोना और मिट्टी के ढेले को समान समझनेवाला
होता है ।
49.
भिक्षावृत्ति सुखावह
भिक्खावित्ती सुहावहा ।
-
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 281 ]
उत्तराध्ययन 35/15
भिक्षावृत्ति सुख देनेवाली है ।
50. मुनि-प्रवृत्ति
सुक्कज्झाणं झियाएज्जा, अनियाणे अकिंचणे । वोसट्टकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पज्जओ ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 282 ]
उत्तराध्ययन 35/19
मुनि शुक्लध्यान में लीन रहे, सांसारिक सुखों की कामना न करे, सदा अकिञ्चनवृत्ति से रहे तथा जीवनभर काया का त्याग कर विचरण करता रहे। 51. साधक - एषणा रहित
-
अच्चणं रयणं चेव, वंदणं पूयणं तहा । इड्ढी सक्कार - सम्माणं, मणसा वि न पत्थए ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 282]
उत्तराध्ययन 35/18
संयमी साधक अर्चना, वन्दना, पूजा, ऋद्धि, सत्कार और सम्मान
को मन से भी न चाहे ।
52.
पूर्ण आत्मस्थ
निम्ममो निरहंकारो, वीयरागो अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं, सासए परिनिव्वुडे ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 282 ]
उत्तराध्ययन 35/21
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-1 /68
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निर्मम, निरहंकार, वीतराग और आस्रवों से रहित निर्ग्रन्थ मुनि, शाश्वत केवल ज्ञान को पाकर परिनिवृत्त हो जाता है अर्थात् पूर्णतया आत्मस्थ हो जाता है। 53. हितकारी परिताप
कामं परितावो, असायहेतु जिणेहिं पणतो। आत-परहितकरो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले खलु उ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 297]
- बहदावश्यक भाष्य 5108 यह ठीक है कि जिनेश्वर देव ने पर-परिताप को दु:ख का हेतु बताया है, किन्तु शिक्षा की दृष्टि से दुष्ट शिष्य को दिया जानेवाला परिताप इस कोटि में नहीं आता है, चूंकि वह तो स्व-पर का हितकारी होता है । 54. लोभ में अनाकृष्ट
णीवारे य न लीएज्जा, छिन्न सोते अणाइले ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 306] .
- सूत्रकृतांग 1/15/12 शोक और विषय-कषाय रहित आत्मा, प्रलोभन देकर सूअर को फंसाने वाले चावल के दाने की तरह क्षणिक विषय-लोभ में आकर्षित न होवे । 55. तपश्चरण
भव कोडी संचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जई ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 321] - एवं [भाग 4 पृ. 2200]
- उत्तराध्ययन 30/6 साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपश्चरण के द्वारा क्षीण कर देता है। 56. तप, कर्मक्षय - प्रक्रिया
जहा महातलागस्स, सन्निरूद्धे जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/69
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एवं तु संजयस्सा वि पावकम्म निरासवे । भवकोड़ि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 321] - एवं [भाग 4 पृ. 2199 - 2200]
- उत्तराध्ययन 30/5-6 जिसप्रकार किसी बड़े तालाब का पानी समाप्त करने के लिए पहले जल के आने के मार्ग रोके जाते हैं फिर कुछ पानी उलीच-उलीच कर बाहर फेंका जाता है और कुछ सूर्य की तेज धूप से सूख जाता है उसीप्रकार संयमी पुरुष व्रतादि के द्वारा नए कर्सिवों को रोक देता है और पुराने करोड़ों जन्मों के संचित किए हुए कर्मों को तप के द्वारा सर्वथा क्षीण कर डालता है । 57. दुर्लभ मानव-भव . माणुस्सं खु सुदुल्लहं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 322]
- उत्तराध्ययन 20/11 मनुष्य जन्म निश्चय ही दुर्लभ है। 58. अनाथ नाथ कैसे ?
अप्पणा अणाहो संतो, कहस्स नाहो भविस्ससि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 323]
- उत्तराध्ययन 20/12 तू स्वयं अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे होगा ? 59. मित्र-शत्रु कौन ?
अप्यामित्तममित्तं च दुप्पट्ठि य सुपट्ठिओ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325] - एवं [भाग 2 पृ. 231]
- उत्तराध्ययन 20/37 सदाचार में प्रवृत्त आत्मा मित्र है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है। 1 . अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/70
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60. आत्मा ही सब कुछ
अप्पानई वैतरणी, अप्पा कूडसामली । अप्पा कामदुहा धेनू, अप्पा मे नंदणं वणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325] ____ - एवं [भाग 2 पृ. 231]
- उत्तराध्ययन 20/36 मेरी [पाप में प्रवृत्त] आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष के समान कष्टदायी है । आत्मा ही सत्कर्म में प्रवृत्त] कामधेनु व नंदनवन के समान सुखदायी भी है । 61. कायर-जन
सीयन्ति एगे बहु कायरा नरा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325]
- उत्तराध्ययन 20/38 अनेक मनुष्य कायर होते हुए दु:खी होते हैं । 62. वीर मार्गानुसरण के अयोग्य
आउत्तया जस्सय नत्थि काई । इरियाए भासाए तहेसणाए ॥ आयाण निक्खेव दुगुंछणाए । न वीर जायं अणुजाई मग्गं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325-326]
- उत्तराध्ययन 20/40
जिसे ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग समिति में किंचित् मात्र यतना [विवेक] नहीं है, वह मुनि वीर मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकता। 63. कर्मबन्ध-अनुच्छेद
जो पव्वइत्ताण महव्वयाइं सम्मं नो फासयति पमाया। अनिग्गहप्यायरसेसुगिद्धे,न मूलओछिंदइ बंधणं से ॥
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325]
- उत्तराध्ययन 20/39 जो साधु बनकर महाव्रतों का अच्छी तरह पालन नहीं करता, इन्द्रियों का निग्रह नहीं करता तथा रसों में आसक्त रहता है, वह मूल से कर्म बन्धनों का उच्छेद नहीं कर पाता । 64. कर्ता-भोक्ता-आत्मा
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुक्खाण य सुहाण य ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 325] - एवं [भाग 2 पृ. 231]
- उत्तराध्ययन 20/37 आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है । 65. रत्नपारखी
राढामणी वेलियप्पकासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 326]
- उत्तराध्ययन 20/42 वैडूर्य रत्न के समान चमकनेवाले काँच के टुकड़े का, जानकार जौहरी के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं होता। 66. विषय वेष्टित धर्म
विसं तु पीयं जह काल कूडं, हणाइ सत्थं जह कुग्गिहीयं । एसेव धम्मो विसओ व वन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 326]
- उत्तराध्ययन 20/44 जैसे पिया हुआ कालकूट विष और विपरीत पकड़ा हुआ शस्त्र अपना ही घातक होता है, वैसे ही शब्दादि विषयों की पूर्ति के लिए किया हुआ धर्म भी अनियंत्रित वेताल के समान साधक का विनाश कर डालता
है।
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67. निमित्तज्ञ
जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे । निमित्त कोऊहल संपगाढे ॥ कुहेड विज्जासवदार जीवी । न गच्छइ सरणं तंमि काले ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 326]
- उत्तराध्ययन 20/45 जो श्रमण लक्षण और स्वप्नों का शुभाशुभ फल बताता है, निमित्त भूकंपादि द्वारा भविष्य कहता है, जो कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है तथा इन असत्य एवं आश्चर्यकारिणी विद्याओं से अपना जीवन बीताता है वह कर्मफल भोगने के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। 68. आत्महन्ता
न तं अरी कंठ छेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/48 गर्दन काटनेवाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसे बिगड़ा हुआ अपना मन [आत्मा] करता है। 69. अग्निवत् सर्वभक्षी - श्रमण
उद्देसियं कीयगडं नियागं, __ त मुंचई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गिविवा सव्वभक्खी भवित्ताइओ
चुए गच्छइ कटु पावं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/47 जो श्रमण औद्देशिक, क्रीतकृत, नियतपिंड और अनेषणीय किंचित मात्र भी पदार्थ नहीं छोड़ता, वह अग्निवत्-सर्व भक्षी होकर पापकर्म करके नरकादि में जाता है।
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70. निर्ग्रन्थ-पथ
मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं,
महानियं ठाणवए पहेणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/51 मेधावी को कुशील पुरुषों के मार्ग को छोड़कर महानिर्ग्रन्थों के मार्ग पर चलना चाहिए। 71. गृद्धात्मा कुररीवत्
कुररीविवा भोग रसाणु गिद्धा, निर? सोया परितावमेइ। __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/50 काम-भोगों के रसों में गृद्ध आत्मा अन्त में निरर्थक शोक करनेवाली कुररी नामक पक्षी की तरह परिताप को प्राप्त होती है। 72. निर्ग्रन्थ निराश्रव
निरासवे संख वियाण कम्म, उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/52 निर्ग्रन्थ निराश्रव होकर कर्मों का सम्यक् प्रकार से क्षय करके विपुल, उत्तम और ध्रुव स्थान को प्राप्त होता है। 73. पदार्थ - अनित्यता
यत्प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्न मध्याह्ने न तन्निशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि, पदार्थानामनित्यता ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 331] - धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार एवं योगशास्त्र4/57
( .
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जिस पदार्थ की स्थिति प्रात:काल में है, वह मध्याह्न के समय नहीं रहती और जो मध्याह्न में दिखाई देती है वह संध्या को नहीं दिखाई देती । इसप्रकार इस संसार में पदार्थों की अनित्यता दिखाई देती है। 74. विनश्वर शरीर
शरीरं देहिनां सर्व - पुरुषार्थ निबन्धनम् । प्रचण्डपवनोद्धृत, - घनाघनविनश्वरम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 331]
- योगशास्त्र 4/58 सभी पुरुषार्थों का कारणभूत मनुष्यों का यह शरीर प्रचण्ड वायु से बिखेरे गए बादल जैसा विनाशशील है । . 75. तीन आई - गई
कल्लोल चपला लक्ष्मीः, सङ्गमाः स्वप्नसंनिभाः । वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त - तुलतुल्यं च यौवनम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 331]
- योगशास्त्र 4/59 लक्ष्मी समुद्र की तरंगों के समान चपल है, स्वजनादि के संयोग स्वप्नवत् है और जवानी वायु के समूह से उड़ाई गई रुई जैसी है । 76. अनित्य-चिन्तन
इत्यनित्यं जगद्वृत्तं, स्थिर चित्तः प्रतिक्षणम् । तृष्णा कृष्णाहिमन्त्राय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332] - - योगशास्त्र 4/60
तृष्णा रूपी काली नागिन को वश करने वाले मंत्र के समान वीतराग-भाव की प्राप्ति के लिए जगत् के इस अनित्य स्वरूप का स्थिर चित्त से प्रतिक्षण चिंतन करना चाहिए।
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77. दम्भ !
जइ वियणिगिणे किसे चरे,जइविय भुंजियमासमंतसो। जे इह मायादि मिज्जती, आगंता गब्भायऽणंत सो ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/9 भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कृश एवं क्षीण कर डाले, किन्तु जो अन्दर में दम्भ रखता है, वह जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता ही रहता है । 78. जीवन-मरण
ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउक्खयम्मि तुट्टती ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/6 जैसे बंधन से गिरा हुआ ताड़फल टूट जाता है, वैसे ही आयुष्य के क्षय होते ही प्राणी परलोक चला जाता है । 79. जीवन-क्षणभंगुर
पुरिसोरमपाव कम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/10 हे पुरुष ! तू जीवन की क्षणभंगुरता को जानकर शीघ्र ही पापकर्मों से मुक्त हो जा। 80. मोहकर्म संचयी
सन्ना इह काम मुच्छिया, मोह जंति नरा असंवुडा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/10 जो मनुष्य इस संसार में आसक्त हैं, विषय-भोगों में मूर्छित हैं और हिंसा झूठ आदि पापों से निवृत्त नहीं है, वे मोहकर्म का संचय करते रहते हैं।
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81. कर्म विपाक
अभिनूम कडेहिं मुच्छिए,
तिव्वं से कम्मेहिं किच्चती । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/7 माया आदि प्रच्छन्न दाम्भिक कृत्यों में आसक्त व्यक्ति अन्त में कर्मों द्वारा तीव्र क्लेश पाता है। 82. अनुशासन
अणुसासण मेव पक्कमे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/11 अनुशासन के अनुरूप संयममार्ग में ही पराक्रम करो । 83. मन्दबुद्धि उपदेश-पात्र नहीं
आमे घड़े निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ । इअ सिद्धंत रहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 351]
- निशीथ भाष्य 6243 मिट्टी के कच्चे घड़े में रखा हुआ जल जिसप्रकार उस घड़े को ही नष्ट कर डालता है, वैसे ही मन्दबुद्धि को दिया हुआ गंभीर शास्त्र-ज्ञान, उसके विनाश के लिए ही होता है। 84. यथा आकृति तथा गुण
यत्राकृतिस्तत्र गुणाः वसन्ति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 352]
- द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका सटीक 1 मनुष्य की जैसी आकृति है तदनुरूप उसमें गुण रहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/77
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85. कल्याण-कामना
के कल्लाणं नेच्छइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 353]
- बृहत्कल्प भाष्य 247 संसार में कौन ऐसा है, जो अपना कल्याण न चाहता हो । 86. तेजस्वी वचन
गुण सुट्ठियरस वयणं, घयपरिसित्तुव्व पावओ भाइ । गुण हीणस्स न सोहइ, नेह विहूणो जह पईवो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 353]
- बृहत्कल्प भाष्य 245 गुणवान् व्यक्ति का वचन घृतसिंचित अग्नि की तरह तेजस्वी होता है, जबकि गुणहीन व्यक्ति का वचन स्नेहरहित (तेल शून्य) दीपक की तरह तेज और प्रकाश से शून्य होता है । 87. महाजन-मार्ग
जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 353]
- बृहत्कल्प भाष्य 249 जो मार्ग महापुरुषों द्वारा चलकर प्रहत = सरल बना दिया गया है, वह अन्य सामान्य जनों के लिए दुर्गम नहीं होता । 88. दृष्टि - दर्पण
दविए दंसण सुद्धा, दंसण सुद्धस्स चरणं तु ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 356]
- ओघनियुक्ति भाष्य 7 द्रव्यानुयोग (तत्त्वज्ञान) से दर्शन [दृष्टिी शुद्ध होता है और दर्शन शुद्धि होने पर चारित्र की प्राप्ति होती है ।
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89. धर्मकथा
चरण पडिवत्ति हेडं, धम्मकहा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 356]
- ओघनियुक्ति भाष्य 7 आचार रूप सदगुणों की प्राप्ति के लिए धर्मकथा कही जाती है । 90. पर-ब्रह्म अगम्य
अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना । शास्त्र युक्ति शतेनापि, नगम्यं यद् बुधाः जगुः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 392]
- ज्ञानसार 26/3 जो परब्रह्म है वह अतीन्द्रिय है, परन्तु विशुद्ध अनुभव के बिना सैकड़ों शास्त्र-युक्तियों से भी उसे नहीं जाना जाता, ऐसा पण्डितजन कहते हैं। 91. शास्त्र:मात्र दिग्दर्शक
व्यापारः सर्वशास्त्राणां दिक्प्रदर्शनमेव हि । पारं तु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 392)
- ज्ञानसार 26/2 वस्तुत: सर्व शास्त्रों का उद्यम दिग्दर्शन कराने का ही है, लेकिन सिर्फ एक अनुभव ही संसार समुद्र से पार लगाता है। 92. शास्त्रास्वादी विरले
केषां न कल्पनादी, शास्त्र क्षीराऽवगाहिनी । विरलातद्रसास्वाद विदोऽनुभव जिह्वया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 393]
- ज्ञानसार 26/5 लोग शास्त्र रूपी खीर अपनी-अपनी कल्पना रूपी कड़छी से हिलाते हैं, परन्तु अनुभवरूपी जीभ से उसका स्वाद तो विरले लोग ही लेते हैं ।
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93. धर्म-पात्रता
अणुसासणं पुढो पाणे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 421]
- सूत्रकृतांग 1/15/11 एक ही धर्मतत्त्व को प्रत्येक प्राणी अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार पृथक्-पृथक रूप में ग्रहण करता है। 94. सत्योपदेश
सच्चे तत्थ करे हु वक्कम ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 421]
- सूत्रकृतांग 1/2/3/14 सत्य हो, उसी में पराक्रम करो। 95. स्याद्वाद का सिक्का
आदीपमा व्योम सम स्वभावं । स्याद्वाद मुद्रानति भेदिवस्तु ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 423]
- अन्ययोग व्यवच्छेद द्वात्रिशिका - 5 स्यावाद का सिक्का संपूर्ण संसार में चलता है । छोटे से दीपक से लेकर व्यापक व्योम (आकाश) पर्यन्त सभी वस्तुएँ स्यावाद-अनेकान्त की मुद्रा से अङ्कित है। 96. स्याद्वाद
भागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थो भाग द्वयात्मकः । तम भागं विभागेन, नरसिंहः प्रचक्षते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 425] . - शास्त्रवार्ता समुच्चय
नृसिंहावतार शरीर का एक भाग सिंह के समान है और दूसरा भाग पुरुष के समान है । परस्पर दो विरुद्ध आकृतियों के धारण करने से यद्यपि वह भाग रहित है; फिर भी विभाग करके लोग उसे "नरसिंह" कहते हैं। ( अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/80
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97. पदार्थ - स्वरूप
घटमौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोकप्रमोद माध्यस्थं जनोयाति सहेतुकम् ॥ पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽति दधिव्रतः । अगोरस व्रतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 425]
- आप्तमीमांसा 59-60 घड़े, मुकुट और सोने को चाहने वाले पुरुष घड़े के नाश, मुकुट के उत्पाद और सोने की स्थिति में क्रम से शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते हैं तथा दूध का व्रत रखनेवाला पुरुष दही नहीं खाता, दही का नियम लेनेवाला पुरुष दूध नहीं पीता और गोरस का व्रत लेनेवाला पुरुष दूध और दही दोनों नहीं खाता; इसलिए संसार की प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप है। 98. वस्तु-तत्त्व प्ररूपणा
दव्वं खित्तं कालं, भाव पज्जाय देससंजोगे । भेदं च पमुच्च समा, भावाणं पणवण पज्जा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 438]
- सन्मतितर्क 3/60 वस्तु तत्त्व की प्ररूपणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव,' पर्याय, देश, संयोग और भेद के आधार पर ही सम्यक होती है।
१. पदार्थ की मूल जाति, २. स्थिति क्षेत्र, ३. योग्य समय, ४. पदार्थ की मूल शक्ति, ५. शक्तियों के विभिन्न परिणमन अर्थात् कार्य, ६. व्यावहारिक स्थान, ७. आस-पास की परिस्थिति, ८. प्रकार] । 99. योग्य-प्रवक्ता
ण हु सासण भत्ती मे-त्तएण सिद्धन्त जाणओ होइ । ण वि जाणओ विणियमा, पणवणा निच्छिओ णाम ॥
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 440]
- सन्मति तर्क 3/63 मात्र आगम की भक्ति के बल पर ही कोई सिद्धान्त का ज्ञाता नहीं हो सकता और हर कोई सिद्धान्त का ज्ञाता भी निश्चित रूप से प्ररूपणा करने के योग्य प्रवक्ता नहीं हो सकता । 100. स्यावाद - नित्यानित्य
इच्चेय गणि पिडगं, निच्चं दव्वट्ठियाए नायव्वं । पज्जाएण अणिच्चं, निच्चानिच्चं च सियवादो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 441]
- तित्थुगाली पयन्ना मूल 870 यह गणिपिटक द्रव्य या तत्त्व की अपेक्षा से नित्य है और पर्याय अर्थात् शब्द की अपेक्षा से अनित्य है । इसप्रकार वस्तु की नित्यानित्यता का जो प्रतिपादक है, वह 'स्याद्वाद' है । 101. स्याद्वाद - महिमा
जो सियवायं भासति, पमाण-नयपेसलं गुणाधारं । भावेइ सेण सेयं, सो हि पमाणं पवयणस्स ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 441]
- तित्थुगाली पयन्नामूल 871 जो प्रमाण और नय के विशिष्ट गुणों के धारक स्याद्वाद का व्याख्यान करता है अर्थात् स्यावाद की अपेक्षा से वस्तु स्वरूप का विवेचन करता है वह गणिपिटक भाव की अपेक्षा से नष्ट नहीं होता है और वही जिनप्रवचन की प्रामाणिकता का आधार है । 102. स्याद्वाद - निंदक
जो सियवायं निंदति, पमाण नय पेसल गुणाधारं । भावेण दुट्ठभावो, न सो पमाण पवयणस्स ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 441]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/82
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- तित्थुगाली पयन्ना मूल 872 जो प्रमाण और नय के विशिष्ट गुणों के धारक स्यावाद की निंदा करता है वह भावों से दुष्ट भाववाला है, उसका कथन प्रवचन का प्रमाण नहीं हो सकता है अर्थात् उसका कथन प्रामाणिक नहीं है। 103. अज्ञान : दुःखरूप
अज्ञानं खलु कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थं हितमहितं वा न वेत्ति येनावृत्तो लोकः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 488]
- श्री आगमीय सूक्तावलि - पृ. 19 o आचारांग सूक्तानि 23 (113)
अज्ञान, क्रोधादि सर्व पापों से भी सचमुच ही बड़ा दु:खदायी है, क्योंकि इससे आच्छादित लोग हिताहित वस्तु को नहीं समझते। 104. अज्ञानता कष्ट
अज्ञानं खलु कष्टम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 488] - श्री आगमीय सूक्तावलि पृ. 19
- आचारांग सूक्तानि 23 (113) अज्ञानता ही सभी प्रकार से मुसीबतें खड़ी करती हैं। 105. मूर्ख - गुण
मूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रूचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणाः। निश्चिन्तौ बहुभोजनोऽत्रपमाना नक्तंदिवाशायकैः ॥ कार्याकार्य विचारणान्धबधिरो' मानापमाने सम: । प्रायेणामय वर्जितो दृढ वपु मूर्खः सुखं जीवति ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 488]
उत्तराध्ययन सूत्र सटीक 3 अध्ययन
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/83
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हे सखे ! जिस मूर्ख में ये आठ गुण हैं, वे मुझे भी अच्छे लगते हैं । १. निश्चिन्त २. अतिभोजी ३ अत्रपमान (निर्लज्ज ) ४. रात - दिन शयन करनेवाला ५. कार्य- अकार्य की विचारणा में अंधा और बहरा ६. मान-अपमान में समान ७. निरोग और ८. मजबूत शरीर • ये आठ गुण जिसमें हैं, वह मूर्ख सुखपूर्वक जीता है ।
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106. सफल जीवन
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नानाशास्त्र सुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वताम्, येषां यान्ति दिनानि पण्डितजन व्यायामखिन्नात्मनाम् । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तै रैव भूर्भूषिता, शेषै किं पशुवद्विवेक रहितै भूभार भूतैर्नरैः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 488 ] उत्तराध्ययन सटीक 3 अध्ययन
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O
नानाशास्त्रों के सुभाषित अमृत रस से जो अपने कानों को सार्थक कर रहे हैं तथा जो विद्वज्जनों के साथ निरन्तर शास्त्रों के व्यायाम से स्वयं को थकाते हुए अपने दिन व्यतीत करते हैं, उन्हीं महापुरूषों का जीवन सफल है तथा उन्हीं से यह धरा सुशोभित है । शेष नर तो पशुवत् विवेकरहित मात्र भूमि के भार हेतु ही विचरण करते हैं ।
107. मोह मूढ़
असंकियाई संकंति, संकियाइं असंकिणो ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 491 ] सूत्रकृतांग 1/1/2/6
मोह मूढ़ मनुष्य को जहाँ वस्तुतः भय की आशंका है, वहाँ तो भय की आशंका करते नहीं है और जहाँ भय की आशंका जैसा कुछ नहीं है, वहाँ भय की आशंका करते हैं ।
108 अन्धों का भटकाव
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अंधो अंधं पहंणितो, दूरमद्धाण गच्छति ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 492]
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/84
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- सूत्रकृतांग 1/1/2/19 अंधा, अंधे का पथप्रदर्शक बनता है, तो वह अभीष्ट मार्ग से दूर भटक जाता है। 109. अनुशासन
अप्पणो य परं णालं कुतो अण्णेऽणु सासिउं ?
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 492]
- सूत्रकृतांग 1/1/2/17 जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह दूसरों पर अनुशासन कैसे रख सकता है ? 110. पिंजरे का पक्षी
एवं तक्काए साहेंता धम्माऽधम्मे अकोविया । दुक्खं ते नाइ तुझंति, सउणी पंजरं जहा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 493]
- सूत्रकृतांग 1/1/2/22 जो धर्म और अधर्म से सवर्था अनजान व्यक्ति केवल कल्पित तर्कों के आधार पर ही अपने मंतव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म-बन्धन को तोड़ नहीं सकते जैसे कि पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है । 111. दुराग्रह-पाश
सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वइं ।
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 493]
- सूत्रकृतांग 1/1/2/23 अपने - अपने मत की प्रशंसा करते हुए और दूसरे के वचन की निंदा करते हुए जो मतवादीजन उस विषय में अपना पाण्डित्य प्रकट करते हैं, वे जन्म - मरणादि रूप चातुर्गतिक संसार में दृढ़ता से बंधे - जकड़ें रहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/85
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112. भाव-वासित हृदय
मैत्र्या सर्वेषु सत्त्वेषु, प्रमोदेन गुणाधिके । मध्यस्थेष्वविनीतेषु, कृपया दुःखितेषु च ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 496] - एवं भाग 2 पृ. 503
- प्रवचनसारोद्धार 67 द्वार समग्र जीवसृष्टि के प्रति मैत्री भाव बनाए रखना, अपने से अधिक गुणीजनों के प्रति प्रमोदभाव रखना, अविनीत-उद्धत लोगों पर मध्यस्थउपेक्षा भाव रखना और दु:खी लोगों के प्रति करूणाभाव बनाए रखना चाहिए। 113. आत्मवत् - स्वरूप
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 502-780] - एवं [भाग 6 पृ. 747] |
- भगवद्गीता 2/23 इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न आग जला सकती है, न पानी गला सकता है और न हवा सुखा सकती है । 114. आत्म-स्वरूप
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽय-मविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 502]
- एवं [भाग 6 पृ. 747] ... - भगवद्गीता 2/24
यह आत्मा अच्छेद्य है, अभेद्य है, विकार रहित है, यह नित्य, सर्वव्यापी, स्थिर, अचल और सनातन है ।
अभिधान राजेन्द्र कोप में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/86
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115. अर्थ : दुःखद
अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखकारणम् ॥ ( पाठान्तरम् - धिगर्थोऽनर्थ भाजनम् ॥ )
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 506-803] स्थानांग सूत्र सटीक 313
पञ्चतन्त्र 21124
धन के कमाने में दु:ख, कमाये हुए धन की रक्षा में दुःख, उसके
नाश में दु:ख और खर्च में दुःख ! अतः ऐसे दुःख के कारण रूप धन को धिक्कार है । इससे कष्ट ही कष्ट है ।
1
-
-
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116. धर्म अर्थ- कामः अविरोधी
जिण वयणम्मि परिणए, अवत्थविहि अणु ठाणओ धम्मो । सच्छा ऽ सयप्पयोगा, अत्थो वीसंभओ कामो ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 507 ] दशवैकालिक नियुक्ति 264
अपनी-अपनी भूमिका के योग्य बिहित अनुष्ठान रूप धर्म, स्वच्छ आशय से प्रयुक्त अर्थ, मर्यादानुकूल वैवाहिक नियंत्रण से स्वीकृत कामजिनवाणी के अनुसार ये परस्पर अविरोधी है ।
117. धर्म - अर्थ - काम अविसंवादी
धम्मो अत्थ कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयण उत्तिन्ना, अवसत्ता होंति नायव्वा ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 507 ] दशवैकालिक नियुक्ति 262
धर्म, अर्थ और काम को भले ही अन्य कोई परस्पर विरोधी मानते हो, किन्तु जिनवाणी के अनुसार तो वे कुशल अनुष्ठान में अवतरित होने के कारण परस्पर अविरोधी है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /87
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118. धर्म-फल
धम्मस्स फलं मोक्खो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 507]
- दशवैकालिक नियुक्ति 265 धर्म का फल मोक्ष है। 119. सत्, सत्
अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ, नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 518]
- भगवती 1/3/7 [1] अस्तित्व अस्तित्व में परिणत होता है और नास्तित्व नास्तित्व में परिणत होता है अर्थात् सत् सदा सत् ही रहता है और असत् सदा असत् । 120. स्थिर-शाश्वत !
अथिरे पलोट्टति, नो थिरे पलोट्टति; अथिरे भज्जति, नो थिरे भज्जति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 518]
- भगवती 1/9/28 अस्थिर बदलता है, स्थिर नहीं बदलता । अस्थिर टूट जाता है, स्थिर नहीं टूटता। 121. सत् - असत्
नासतो जायते भावो, ना भावो जायते सतः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 518]
- भगवद्गीता 2/16 जो असत् है, उसका कभी भाव [अस्तित्व] नहीं होता और जो सत् है; उसका कभी अभाव [अनस्तित्व] नहीं होता। 122. चक्षुष्मान्
अदक्खुव दक्खुवाहितं सद्दहसु । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/88
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 525]
- सूत्रकृतांग 1/2/3/11 नहीं देखनेवालों ! तुम देखनेवालों की बात पर विश्वास करके चलो। 123. चौर्यकर्म
अदिण्णादाणं हर दह मरण भय कलुसतासण पर संतिकभेज्ज लोभमूलं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 526]
- प्रश्नव्याकरण 1/3/12 यह अदत्तादान [चोरी] परधन, अपहरण, दहन, मृत्यु, भय, मलीनता [कलुषता] त्रास, रौद्र ध्यान और लोभ का मूल है । 124. अनार्य कर्म
अदत्तादाणं..............अकित्तिकरणं अणज्जं...............सदा साहु गरहणिज्जं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 526]
- प्रश्नव्याकरण 1/3/9 अदत्तादान [चोरी] अपयश करनेवाला अनार्य कर्म है । यह सभी भले आदमियों द्वारा सदैव निंदनीय है । 125. चोर, निर्दयी
परदव्वहरा णरा णिरनुकंपा । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 528]
प्रश्नव्याकरण 1/3/11 परकीय द्रव्य का अपहरण करने वाले मनुष्य निर्दयी या दयाशून्य होते हैं। 126. चौर्य-कर्म विपाक
अच्चंत विपुल दुक्खसय संपलिता परस्सदव्वेहि जे अविरया। अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/89
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 533]
- प्रश्न व्याकरण 1/3/12 जो पराये द्रव्यों-पदार्थों से विरत नहीं हुए हैं अर्थात् जिन्होंने चौर्य कर्म का परित्याग नहीं किया हैं वे अत्यन्त और विपुल सैकड़ों दु:खों की आग में जलते रहते हैं। 127. अदत्तभोजी
अणणुण्ण विय पाण भोयण भोई.......... से णिग्गंथे अदिण्णं भुंजेज्जा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 541]
-- आचारांग 2/3/15 जो गुरुजनों की अनुमति के बिना प्रिय पदार्थ का भोजन करता है, वह अदत्तभोजी है; अर्थात् एक प्रकार से चोरी का अन्न खाता है । 128. अदत्त त्याग
अणुन वियगेण्हियव्वं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 542] .
- प्रश्न व्याकरण 2/8/26 दूसरे की कोई भी चीज हो, आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। 129. अस्तेय - अनाराधक
सया अप्पमाण भोती सततं अणुबद्धवेरेय तिव्वरोसी, से तारिसए नाराहए वयमिणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 542]
- प्रश्न व्याकरण 2/8/26 सदा मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाला, वैरानुबंधी वैर रखनेवाला और सदा रोष रखनेवाला व्यक्ति अस्तेयव्रत का आराधक नहीं होता । 130. असंविभागी कौन ?
असंविभागी, असंगहरूती.......अप्पमाण भोई.......सेतारिसए नाराहए वयमिणं । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/90
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 542]
- प्रश्न व्याकरण 2/8/26 जो असंविभागी है- प्राप्त सामग्री का ठीक तरह वितरण नहीं करता है, असंग्रह चि है - साथियों के लिए समय पर उचित सामग्री का संग्रह कर रखने में रूचि नहीं रखता है, अप्रमाणभोजी है - मर्यादा से अधिक भोजन करनेवाला 'पेटू' है, वह अस्तेयव्रत की सम्यक् आराधना नहीं कर सकता। 131. अपरिग्रह
अपरिग्गह संवुडेणं लोगम्मि विहरियव्वं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 542]
प्रश्नव्याकरण 2/8/26 अपने को अपरिग्रह भावना से संवृत्त कर लोक में विचरण करना चाहिए। 132. संविभागी कौन ?
संविभाग सीले संगहो वग्गह कुसले, सेतारिसे आराहते वयमिणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 543]
- प्रश्नव्याकरण 2/8/26 जो संविभागशील है - प्राप्त सामग्री का ठीक तरह वितरण करता है, संग्रह और उपग्रह में कुशल है – साथियों के लिए यथावसर भोजनादि सामग्री जुटाने में दक्ष है, वही अस्तेयव्रत की सम्यक् आराधना कर सकता
.
है।
133. चल, अकेला ! - एगे चरेज्ज धम्मं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 544]
- प्रश्न व्याकरण 2/8/26 भले ही कोई साथ न दे, अकेले ही सद्धर्म का आचरण करना चाहिए।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/91
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134. विनय
तप
विणओ वि तवो |
-
विनय अपने आप में एक तप है ।
135. साधर्मिक विनय
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 545 ]
प्रश्न व्याकरण 2/8/26
साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो ।
136. तप धर्म
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 545 ]
प्रश्न व्याकरण 2/8/26
साधर्मिकों के प्रति विनय का व्यवहार करें ।
—
C
aal विधम्म ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 545 ]
प्रश्न व्याकरण 2/8/26
तप भी धर्म है।
-
137. ईख का फूल
सामन्नमणु चरंत स्स कसाया जस्स उक्कडा होंति । मन्नामि उच्छु पुष्कं च निफ्फलं तस्स सामन्नं ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 571] एवं [भाग 5 पृ. 382 ] दशवैकालिक नियुक्ति 301
श्रमण धर्म का अनुचरण करते हुए भी जिसके क्रोधादि कषाय उत्कट हैं, तो उसका श्रमणत्व वैसा ही निरर्थक है जैसाकि ईख का फूल |
138. कलह - हानि
अट्ठे परिहायती बहू, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/92
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 571]
- सूत्रकृतांग 1/2/2/19 बुद्धिमान् को कभी किसी से कलह नहीं करना चाहिए। कलह से बहुत बड़ी हानि होती है। 139. कषायी असंयमी
कसाय सहितो न संजओ होइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 574]
- बृहत्कल्पभाष्य 2712 कषाय रखनेवाला संयमी नहीं होता। 140. वात्सल्य - महत्ता
अवच्छलत्ते य दंसण हाणी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 574]
- बृहत्कल्प भाष्य 2711 परस्पर वात्सल्य भाव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन की हानि होती
141. वीतरागता
अकसायं खु चरितं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 574]
- बृहत्कल्प भाष्य 2712 अकषाय [वीतरागता] ही चारित्र है । 142.. कषाय चारित्र हानि
जह कोहाई विवड्ढी, तह हाणी होई चरणे वि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 574] - निशीथ भाष्य 2790 - बृहत्कल्प भाष्य 2711
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/93
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ज्यों - ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है त्यों - त्यों चारित्र की हानि होती है। 143. किञ्चित् कषाय से चारित्र - हनन
जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्व कोडिए । तं पिय कसायमित्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575] ___ - तित्थोगाली पइण्णय 1201 - निशीथ भाष्य 2793
बृहत्कल्प भाष्य 2715 देशो कोटि पूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्ज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है। 144. शीतगृह - सम आचार्य
रागद्दोस विमुक्को, सीयघर समो आयरिओ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575]
- निशीथ भाष्य 2794 राग-द्वेष से रहित आचार्य भगवन्त शीतगृह [सब ऋतुओं में एक समान सुखप्रद] भवन के समान है । 145. अकषाय से मोक्ष
अकसायं निव्वाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575]
- आगमीय सूक्तावलि पृ. 72, बृहत्कल्पलोकोक्तयः (76-2-10)
अकषाय [वीतरागता] ही निर्वाण है । 146. घोर अज्ञानी
तमतिमिर पडल भूतो पावं चिंतेइ दीह संसारी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 581]
- निशीथ भाष्य 2847 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/94
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पूंजीभूत अंधकार के समान मलिन चित्तवाला दीर्घ संसारी जब देखो तब पाप का ही विचार करता रहता है । 147. साधु हृदय नवनीत - सम
नवणीय तुल्ल हियया साहू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 585]
- व्यवहार भाष्य 7/215 साधुजनों का हृदय नवनीत [मक्खन] के समान कोमल होता है। 148. अप्रतिबद्ध - विचरण
असज्जमाणे अप्पडिबद्धेयावि विहरइ ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 594]
- उत्तराध्ययन 29/32 जो अनासक्त है, वह सर्वत्र निर्द्वन्द्व भाव से विचरण करता है। 149. निःसंगभाव - श्रेष्ठतम
निस्संगत्तेणं जीवे एगे, एगग्ग चित्ते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 594]
- उत्तराध्ययन 29/32 नि:संगभाव से चित्त की एकाग्रता आती है। 150. निर्द्वन्द्वता से निःसंग
अप्पडिबद्धयाएणं, निस्संगत्तं जणयइ । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 594]
- उत्तराध्ययन 29/32 . अप्रतिबद्धता से नि:संग भाव आता है । 151. अप्रमत्त
अप्पमत्ते समाहिते झाती ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 597] - आचारांग 1/9/2/67
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/95
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श्रमण इन्द्रियों को नियन्त्रित कर समाहित अवस्था में ध्यान करे । 152. आचार्य-शुश्रूषा
सुस्सूसए आयरिएऽप्पमत्तो ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 597]
- दशवैकालिक 9/1/17 शिष्य अप्रमादी होता हुआ आचार्य भ. की सेवा-शुश्रूषा करें। 153. शुभ चिन्तन
अकुसलमण निरोहो, कुसलमण उदीरणं वा । __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 597]
- एवं [भाग 6 पृ. 1154]
- व्यवहार भाष्य पीठिका 77 मन को अकुशल = अशुभ विचारों से रोकना चाहिए और कुशल - शुभविचारों के लिए प्रेरित करना चाहिए । 154. अप्रमत्तभाव
अप्पमत्ते जए निच्चं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 597]
- दशवैकालिक 8/16 सदा अप्रमत्त भाव से साधना में प्रयत्नशील रहना चाहिए। 155. पराक्रम कहाँ ?
अप्पमत्ते सया परिक्कमेज्जासि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 597]
- आचारांगे 1/4/1/133 धीर साधक को अप्रमत्त होकर सदा अहिंसादि रूप धर्म में पराक्रम करना चाहिए। 156. ज्ञानी मुनि
अणण्ण परमं णाणी णो पमादे कयाइ वि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 598] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/96
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- आचारांग 1/3/3/123 ज्ञानी मुनि अनन्य परम [सर्वोच्च परम सत्य, संयम] के प्रति कभी भी प्रमाद का सेवन न करे । 157. आत्मगुप्त साधक
आत गुत्ते सदा वीरे जाता माताए जावए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598]
- आचारांग 1/3/3/123 साधक सदा आत्मगुप्त वीर अर्थात् पराक्रमी रहे । वह अपनी संयम-यात्रा का निर्वाह परिमित आहार से करे । 158. रोगी सेवा
गिलाणस्स अगिलाते वेयावच्चं करणताए अब्भुट्टेयव्वं भवइ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598]
- स्थानांग 8/8/649 रोगी की सेवा के लिए सदा तत्पर रहना चाहिए। 159. अश्रुत धर्म श्रवण
असुताणं धम्माणं सम्मं सुणणताते अब्भुटुंतव्वं भवति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598]
- स्थानांग 8/8/649 अभी तक नहीं सुने हुए धर्म को सुनने के लिए तत्पर रहना चाहिए । 160. .अप्रमाद
अलं कुसलस्स पमादेन ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598]
- आचारांग !/2/4/85 बुद्धिमान् साधक को अपनी साधना में प्रमाद नहीं करना चाहिए ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/97
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161. आचरण-तत्परता
सुयाता धम्माणं ओगिण्णताते उवधारणयाते अब्भुटुंतव्वं भवति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598]
- स्थानांग 8/8/649 सुने हुए धर्म को ग्रहण करने, उस पर आचरण करने को तत्पर रहना चाहिए। 162. असहाय - आश्रय
असंगिहीत परितणस्स संगिण्हणताते अब्भुटेयव्वं भवति।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 598]
- स्थानांग 8/8/649 जो अनाश्रित एवं असहाय है - उन्हें सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए। 163. अन्तःशोधन
शुद्धयल्लोके यथा रत्नं जात्यं काञ्चनमेववा । गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 607]
- योगबिन्दु 181 लोक में जैसे शुद्ध किया हुआ संमार्जित - संशोधित या परिष्कृत किया हुआ उच्च जाति का रत्न या स्वर्ण विभिन्न गुणों से समासयुक्त हो जाता है, शोधण तथा परिष्कार से उसमें अनेक विशेषताएँ आ जाती हैं, उसी प्रकार जीव भी अन्त:शोधन के क्रम में सदनुष्ठान द्वारा अनेक उच्च गुण संयुक्त हो जाता है । इसपर चिन्तन पर्यालोचन करें। 164. पात्रता
. अनीद्दशस्य च यथा न भोगसुखमुत्तमम् ।
अशान्तादेस्तथा शुद्धं नानुष्ठानं कदाचन ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/98
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 608]
- योगबिन्दु 188 जो पुरुष धनाढ्य, सुन्दर एवं युवा नहीं है वह उत्तम भोगों का आनन्द नहीं ले सकता, उसीतरह जो व्यक्ति अशान्त तथा निम्न है वह शुद्ध क्रियानुष्ठान - धर्मानुसंगत श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता। 165. कर्मः दग्ध-बीज
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 610] - एवं भाग 3 पृ. 334 - तत्त्वार्थाधिगम भाष्य 10/7 एवं
- स्याद्वाद मंजरी पृ. 329 जिसप्रकार बीज के जल जाने पर बीज से अंकुर पैदा नहीं होता, उसीप्रकार कर्म-बीज के जल जाने पर संसाररूपी अंकुर पैदा नहीं होता । 166. अब्रह्मचर्य
अबंभं......जरामरण रोग सोग बहुलं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 675]
- प्रश्न व्याकरण 1/4/13 अब्रह्मचर्य, वृद्धावस्था-बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और शोक की प्रचुरतावाला है। 167. अब्रह्मचर्य विघ्न
अबंभं च.......तव संजम बंभचेर विग्धं भेयायतण बहु पमादमूलं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 675]
- प्रश्न व्याकरण 1/4/13 अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्न स्वरूप है और सदाचार - सम्यक् चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/99
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168. कामभोग - अतृप्ति
उवणमंति मरण धम्म अवितत्ता कामाणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 677-678-679]
- प्रश्न व्याकरण1/4/15
अच्छे से अच्छे सुखोपभोग करनेवाले भी अन्त में काम-भोगों से अतृप्त रहकर ही मृत्यु को प्राप्त करते हैं। 169. इह परत्र नाश
इहलोए वि ताव नट्ठा, पर लोए वि नट्ठा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 679] .
- प्रश्न व्याकरण 1/4/16 अब्रह्म सेवन करनेवाले अर्थात् विषयासक्त व्यक्ति इस लोक में नष्ट होते हैं और परलोक में भी। 170. मित्र भी शत्रु
मित्ताणि खिप्पं भवंति सत्तू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 679]
- प्रश्न व्याकरण 1/4/16 मैथुनासक्ति से मित्र शीघ्र ही शत्रु बन जाते हैं । 171. सम्यग्दर्शन विहीन
जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असम्मत्तं दंसिणो । असुद्धं तेसिं परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 684] - एवं भाग 5 पृ. 60
- सूत्रकृतांग 1/8/22 सम्यकदर्शन से रहित परमार्थ को न जाननेवाले ऐसे लोक विश्रुत यशस्वी वीर पुरुषों का तपदान, अध्ययन, यम-नियम आदि में किया गया पराक्रम [वीर्य] अशुद्ध है, वे सभी तरह से वृद्धि अर्थात् सम्पूर्ण पराक्रम में निष्फल रहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/100
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172. अभ्यास - तद्रूपता
जं अब्भासइ जीवो, गुणं च दोसं च एत्थ जम्मम्मि । तं पावइ परलोए, तेण य अब्बास जोएण ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 691] . - श्री कुलक संग्रह - गुणानुराग कुलक 8
इस संसार में जीव गुण या दोष जिसका परिशीलन करता है [पुन: पुन: अभ्यास करता है, वह तद्प हो जाता है अर्थात् उसके अन्त:करण में वह संस्कार बैठ जाता है जिसका परिणाम भवान्तर में वह उसीको प्राप्त करता है । गुणग्राही पुरुष गुणी ही होता है और दोषग्राही पुरुष दोषी होता है । 173. अभ्यास से सर्व-सुलभ
अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात् सकलाः कलाः। अभ्यासाद्ध्यान मौनादि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 691]
- धर्मसंग्रह सटीक 2 अधिकार अभ्यास से सब क्रियाएँ, अभ्यास से सब कलाएँ और अभ्यास से ही ध्यान, मौन आदि होते हैं । संसार में ऐसी क्या बात है, जो अभ्यास से साध्य न हो ? अर्थात् अभ्यास से समस्त कार्य सिद्ध हो सकते हैं । 174. विनय
धम्मस्स मूलं विणयं वयन्ति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 696]
- बृहदावश्यक भाष्य 4441 धर्म का मूल विनय कहा गया है। 175. संघ, संघ नहीं !
जहिणत्थिसारणा वारणाय पडिचोवायणाच गच्छम्मि। सो उअगच्छो गच्छो संजम कामीण मोत्तव्वो॥ __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 699] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/101
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- बृहदावश्यक भाष्य 4464 जिस संघ [गच्छ| में न सारणा' है, न वारणा' है और न प्रतिचोदना है; वह संघ, संघ नहीं है । अत: संयमाकांक्षी को उसे छोड़ देना चाहिए ।
१. कर्तव्य की सूचना २. अकर्तव्य का निषेध ३. भूल होने पर कर्तव्य के लिए कठोरता के साथ शिक्षा देना। 176. अभयदान
य स्वभावात्सुखौषिभ्यो, भूतेभ्यो दीयते सदा । अभयं दुःख भीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 706]
- गच्छाचार पयन्ना टीका 2 अधिकार स्वभाव से ही सुख के अभिलाषी एवं दु:खों से भयभीत जीवों को जो अभय दिया जाता है, वह 'अभयदान' कहलाता है। 177. प्राणी दया श्रेष्ठतम
सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः। . सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च, यत्कुर्यात् प्राणिनां दया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 706]
- धर्मरत्न प्रकरण - 56 सभी वेद, सभी यज्ञ और समस्त तीर्थाभिषेक जो कार्य नहीं कर सकते, वह कार्य प्राणियों की दया कर सकती है । 178. अनुपम - अभयदान
एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवर दक्षिणा । एक तो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 706]
- धर्मरत्न प्रकरण - 55 एक ओर सारे यज्ञ हो और समग्र श्रेष्ठ दक्षिणा हो तथा एक ओर किसी भयभीत प्राणी के प्राणों की रक्षा हो; तो भी वे इसकी बराबरी नहीं कर सकते।
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179. अभयदान श्रेष्ठ
दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतम् । । सर्वाण्य भय दानस्य, कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 706] .. - धर्मरत्न प्रकरण - 54
अन्य इष्ट वस्तुओं का दिया हुआ दान, की हुई तपश्चर्या, तीर्थसेवा, शास्त्र-श्रवण - ये सब अभयदान की सोलहवीं कला को प्राप्त नहीं कर सकते। 180. जीवनदान
महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् । भीता भय प्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 706]
- धर्मरत्न प्रकरण - 53 - दूसरे दानों से मनुष्य अस्थायी संतोष पा जाता है या कुछ देर के लिए उसका लाभ उठा सकता है; परन्तु अभयदान तो जिन्दगी का दान है । 181. अभयदान परम धर्म
नहीं भूयस्तमो धर्मस्तस्मादन्योऽस्ति भूतले । प्राणीनां भयभीतानाम भयं यत्प्रदीयते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 706]
- धर्मरत्न प्रकरण 51 भयभीत प्राणियों को जो अभयदान दिया जाता है, उससे बढ़कर अन्य कोई धर्म इस भूमण्डल पर नहीं है । 182. विरले अभयदान दाता
हेम धेनु धरादीनां दातारः सुलभाभुवि । दुर्लभ पुरुषोलोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ॥
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 706] - धर्मरत्न प्रकरण 52 - विक्रमचरित्र सप्तम सर्ग 95
- एवं मार्केण्डय पुराण सचमुच इस दुनिया में जमीन, सोना, अन्न और गायों का दान करनेवाले तो आसानी से मिल सकते हैं, लेकिन भयभीत प्राणियों की प्राण-रक्षा करके उन्हें अभयदान देने वाले व्यक्ति विरले ही मिलते हैं। 183. एकल अशोभनीय
पद्मावती च समुवाच विना वधूटी, शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम् । नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेव विट एव भवेदभार्यः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 709]
- कल्प सुबोधिका टीका । क्षण वस्तुत: बिना स्त्री के पुरुष कभी शोभा नहीं पाता है और अकेले पुरुष पर न कोई विश्वास करता है । पत्नी रहित पुरुष विट ही हो जाता है । 184. अनुद्विग्न सुधी
अरई आउट्टे से मेधावी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 753]
- आचारांग 1/2/2/29 बुद्धिमान् पुरुष चित्त की व्याकुलता से निवृत्त होता है । 185. धर्मविहार
धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 754]
- उत्तराध्ययन 2/17 हिंसादि से विरत और उपशान्त होकर मुनि धर्मरूपी वाटिका में विचरण करे ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/104
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186. लड़े सिपाही नाम सरदार का
क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते । दन्ता दलन्ति कष्टेन, जिह्वया गिलति लीलया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 762] . - कल्प सुबोधिका सटीक 7 क्षण
स्थूल बुद्धिवाले केवल क्लेश पाते हैं और बुद्धिमान् तो फल पाते हैं। जैसे – दन्तपंक्ति तो मात्र चबाने का कार्य करती है, और स्वाद तो जीभ ही लेती है। 187. अलाभ - परिषह
अज्जेवाहं न लब्भामि, अविलाभो सुए सिया । जो एवं पडि संचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 772]
- उत्तराध्ययन 2133 मुझे आज आहार नहीं मिला है, तो संभवत: कल प्राप्त हो जाएगा। जो साधु आहार प्राप्त न होने पर इसप्रकार विचार करके दीनभाव नहीं लाता, उसे अलाभ परिषह नहीं सताता है । 188. उत्तमतप
अलाभो मे परमं तपः ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 772] - पञ्चसंग्रह सटीक 4 द्वार
- एवं आवश्यक बृहद्वृत्ति 4 अध्ययन अलाभ [किसी वस्तु का प्राप्त नहीं होना] मेरे लिए श्रेष्ठ तप है। 189. क्षुधा-परिषह
लद्धे पिंडे अलद्धे वा, णाणुतप्पेज्ज संजए । ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 772]
- उत्तराध्ययन 2/30 आहार मिले अथवा नहीं मिले तो भी बुद्धिमान् साधक खेद नहीं करे ।
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190. कैसा सत्य ?
अलिअंन भासि अव्वं,अस्थि हुसच्चं पिजंन वत्तव्वं । सच्चं पि तं न सच्चं, जं पर पीडाकरं वयणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 773]
- धर्मसंग्रह 2 अधिकार पृ. 59 झूठ नहीं बोलना चाहिए। ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए जो परपीडाकारक हो और वह सत्य, सत्य भी नहीं है । 191. असत्य भाषण
दुग्गइ - विणिवाय विवड्ढणं । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग । पृ. 777
एवं 784]
- प्रश्न व्याकरण 1/2/5 असत्य भाषण से अध:पतन होता है । 192. असत्य स्वरूप
अलियंणियडिसाति जोयबहुलं नीयजण निसेवियं । निस्संसं अपच्चयकारकं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 777-784]
- प्रश्न व्याकरण 1/2/5 यह झूठ धूर्तता और अविश्वास की प्रचुरतावाला है । नीच लोग ही इसका आचरण करते हैं । यह नृशंस - क्रूरता से परिपूर्ण है और विश्वसनीयता का विघातक है। 193. लोभी - प्रवृत्ति
निक्खेवे अवहरंति, परस्स अत्थम्मि गढियगिद्धा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 778]
- प्रश्न व्याकरण 1/216 पराये धन में अत्यन्त आसक्त मृषावादी लोभी धरोहर को हड़प जाते हैं।
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194. भवितव्यता
नहिभवति यन्न भाव्यं, भवतिचभाव्यं विनाऽपि यत्नेन । करतलगतमपि नश्यंति, यस्य तु भवितव्यता नास्ति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 780]
- प्रश्न व्याकरण सटीक 2 आश्रवद्वार यदि भवितव्यता नहीं है तो वह नहीं होता और जो होनहार है वह बिना प्रयास के भी हो जाता है। जिसकी भवितव्यता नहीं है वह हथेली में रहा हुआ भी चला जाता है। 195. सर्वव्यापी ईश्वर
जले विष्णुः, स्थले विष्णुः विष्णुपर्वत मस्तके । ज्वाल माला कुले विष्णुः, सर्वं विष्णुमयं जगत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 780]
- सुभाषित श्लोक संग्रह 406 . जल में विष्णु हैं । स्थल में विष्णु हैं । पर्वत के शिखर में विष्णु हैं। आग में, हवा में विष्णु हैं और हरी वनस्पति में भी विष्णु व्याप्त हैं । अत: यह सम्पूर्ण जगत् विष्णुमय हैं। 196. परमात्मा
एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव, दृश्यते जल चन्द्रवत् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 780]
- ब्रह्मबिन्दूपनिषद 12 एक परमात्मा ही प्रत्येक जीव में स्थित है, जो जल में चंद्रमा की तरह एक या अनेक रूपों में दिखाई देता है । 197. विराट् ब्रह्म !
पुरुष एवेदं सर्व यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 780]
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- वेद पुरुष सूक्त 10/90/2 वे सब ब्रह्म हैं, जो उत्पन्न हैं अथवा भविष्य में उत्पन्न होंगे। 198. मिथ्याशयी मानव कैसे ? ।
अलिया हिंसंति संनिविट्ठा असंत गुणुदीरकाय संतगुण नासकाय ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 781]
- प्रश्न व्याकरण 1/216 मिथ्या आशयवाले असत्यभाषी लोग गुण हीन के लिए गुणों का वखाण करते हैं और गुणी के वास्तविक गुणों का अपलाप करते हैं। 199. असत्य विपाक
अलिय वयणं........अयसकर वेरकरगं........मण संकिलेस वियरणं । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 784]
- प्रश्न व्याकरण 1/2/5 असत्य वचन बोलने से बदनामी होती है, परस्पर वैर बढ़ता है और मन में संक्लेश की वृद्धि होती है। 200. षट्-दुर्वचन
इमाई छ अवतणाइं । तंजहा - अलिय वयणे, हीलिय वयणे, खिसित वयणे, फस्स वयणे, गारत्थिय वयणे, विउ सवितं वा पुणो उदीरित्ते ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 795] .
- स्थानांग 6/6/527 छह तरह के वचन नहीं बोलना चाहिए - असत्य वचन, तिरस्कार युक्त वचन, झिड़कते हुए वचन, कठोर वचन, साधारण मनुष्यों की तरह अविचारपूर्ण वचन और शान्त हुए कलह को फिर से भड़कानेवाले वचन । 201. धिग् ! धनम्
धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम् । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/108
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 803]
- पञ्चतन्त्र 2/124 दु:ख की अभिवृद्धि करनेवाले ऐसे धन को धिक्कार है । 202. महासत्त्वशील मनीषी
अपाय बहुलं पापं, ये परित्यज्य संसृताः । तपोवनं महासत्त्वा - स्ते धन्यास्ते मनस्विनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 803]
- दशवकालिक सटीक 1 अ. जो महासत्त्वशील पुरुष बहुत सारे पाप को दूरकर तपोवन में चले गए हैं, वे मनीषी हैं और धन्य हैं, कृतकृत्य हैं। 203. अध्ययन अयोग्य
चत्तारि अवातणिज्जा पन्नता, तंजहा - अविणीवीई पडिबद्धे, अविओ सवित पाहुडे मायी । __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 804]
- स्थानांग 4/4/3/326 . चार व्यक्ति शास्त्राध्ययन के योग्य नहीं है - अविनीत, चटोरा, झगड़ालू और धूर्त । 204. अविनीत
अह चोद्दसहि ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए । अविणीए वुच्चई सोउनिव्वाणं च गच्छई ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 806]
- उत्तराध्ययन 11/6 चौदह प्रकार से वर्तन करने वाला संयमी अविनीत कहलाता है और वह निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता। 205. अविनीत कौन ?
असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 806] - उत्तराध्ययन 11/9
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जो असंविभागी है, प्राप्त सामग्री को साथियों में बाँटता नहीं है और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है, वह अविनीत कहा जाता है। 206. मा प्रमाद
असंखयं जीविय मा पमायए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 819]
- उत्तराध्ययन 4/1 जीवन का धागा टूट जाने पर पुन: जुड़ नहीं सकता, वह असंस्कृत है; इसलिए प्रमाद मत करो। 207. वृद्धावस्था रक्षक नहीं
जरोवणीयस्सहु नत्थि ताणं ।।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 819]
- उत्तराध्ययन 4/1 बुढ़ापा आने पर कोई भी त्राण नहीं देता । 208. एकरूपता
यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः । धन्यास्ते त्रितये येषां, विसंवादो न विद्यते ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 835]
- धर्मरत्न प्रकरण 1 अधि. पृ. 11 जैसा चित्त वैसी वाणी, जैसी वाणी वैसी क्रिया (आचरण) इन तीनों की जिनमें एकरूपता हैं, वे मानव धन्य हैं। 209. मायावी, अविश्वसनीय
मायाशील: पुरुषो यद्यपि न करोति किंचिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो, भवति तथाप्यात्मदोषहतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 835]
- प्रशमति प्रकरण 28 मायावी पुरुष यद्यपि कोई अपराध नहीं करता है, तथापि अपने माया दोष के कारण सर्प के समान वह लोक में अविश्वसनीय ही रहता है।
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210. श्रेष्ठ पुरुष के लक्षण
वरं प्राण परित्यागो, मा मान परिखण्डना । प्राण त्यागे क्षणं दुःखं, मान भने दिने दिने ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 836] - विक्रमचरित्र - 1/1
चक्रदेव चरित एवं चाणक्य नीति श्रेष्ठ पुरुष प्राण त्याग कर सकते हैं, किन्तु मानभंग नहीं कर सकते हैं; क्योंकि मृत्यु से क्षणमात्र ही कष्ट होता है, परन्तु मानभङ्ग से जीवन भर कष्ट होता है। 211. मिथ्यात्व
न मिथ्यात्व समः शत्रु - न मिथ्यात्व समं विषम् । न मिथ्यात्व समो रोगो, न मिथ्यात्व समं तपः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 840]
- धर्मसंग्रह 1 अधिकार, पृ. 20 मिथ्यात्व के समान कोई शत्रु नहीं, मिथ्यात्व से बढ़कर कोई जहर नहीं; मिथ्यात्व के समान कोई रोग नहीं और मिथ्यात्व के समान कोई अंधकार नहीं ! 212. मिथ्यात्व - भयंकर
द्विषद् विषतमो रोगै र्दुःखमेकत्र दीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तो जन्मनि जन्मनि ॥ __ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 840]
- धर्मसंग्रह 1 अधिकार पृ. 20 जहर, अंधकार और रोग एक बार ही दुःख देता है, किन्तु भयंकर मिथ्यात्व तो प्राणी को जन्म-जन्मान्तर में कष्ट देता है । 213. मिथ्यात्व-जीवन
वरं ज्वाला कुले क्षिप्तो, देहिनाऽत्मा हुताशने । न तु मिथ्यात्व संयुक्तं, जीवितव्यं कदाचन ॥
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देहधारी आत्मा का अग्नि की ज्वाला में कूदना श्रेष्ठ है, परन्तु मिथ्यात्व युक्त जीवन जीना कभी भी श्रेयस्कर नहीं है ।
214. पाप - हेतु
हिंसाऽनृतादयः पञ्च तत्त्वा श्रद्धानमेव च । क्रोधादयश्च चत्वारः इति पापस्य हेतवः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 840] धर्मसंग्रह 1 अधिकार
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 840 ] धर्मबिन्दु 2/63
हिंसा, मृषा, चोरी, मैथुन व परिग्रह - ये पाँच तत्त्व में अश्रद्धा, तथा क्रोध-मान-माया और लोभ (ये चार कषाय) ये कारण हैं ।
कुल दस पाप के
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215. कौन शरण ?
इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् । अहो तदन्तकातङ्के कःशरण्य शरीरिणाम् ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 844] योगशास्त्र 4/61
अरे ! जब इन्द्र, उपेन्द्र वासुदेव आदि भी मृत्यु के अधीन हैं; तो मृत्यु-भय के आने पर दीन-हीन, सामान्य मनुष्यों को कौन शरण दे सकता है ?
216. अशरण - चिन्तन
पितुर्मातु: स्वसुर्भातु स्तनयानां च पश्यताम् । अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 844] धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार योगशास्त्र 4/62
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माता-पिता, भ्राता-भगिनी और पुत्रादि के देखते-ही-देखते शरणहीन मनुष्य को स्वयं के कर्म यम के घर खींच ले जाते हैं। 217. मूढ़ मानव !
शोचन्ति स्वजनानऽन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं न शोचन्ति, नात्मानं मूढबुद्धयः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844] - धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार ।
- योगशास्त्र 4/63 अपने ही कर्मों से मृत्यु पाते स्वजनों को देखकर मूर्ख मनुष्य अफसोस करते हैं, परन्तु वे कर्म उन्हें भी कुछ ही समय में ले जाएँगे; इस बात का उन्हें बिल्कुल दु:ख नहीं होता। 218. अशरण - अनुप्रेक्षा
संसारे दुःखदावाग्नि - ज्वलद् ज्वाला करालिते । वने मृगार्भ कस्येव, शरणं नास्ति देहिनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844] __ - धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार
- योगशास्त्र 4/64 जैसे दावानल की सुलगती ज्वालाओं से युक्त भयंकर वन में हिरन के बच्चों का कोई शरण नहीं है वैसे ही दु:खरूपी दावाग्नि की सुलगती . ज्वालाओं से भयंकर इस संसार में (धर्म के अतिरिक्त) प्राणिओं का कोई
शरण नहीं है। 219. जिनवचन शरण
• जन्मजरामरणभयै - रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844]
एवं [भाग 2 पृ. 178]] - प्रशमरति प्रकरण 152
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जन्म, जरा, मरण और भय से परेशान हुए तथा व्याधि - वेदना से ग्रसित मानव को जिन-वचन के अतिरिक्त इस संसार में कहीं पर भी शरण नहीं है। 220. अशाश्वत् क्या ?
अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि दिवि चेह च । देवसुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 845] ___ - सूत्रकृतांग सूत्र सटीक 1/8
देव दानव और मानव के इस लोक व परलोक संबंधी समस्त सुख-वैभव अशाश्वत् हैं। 221. अपवित्र काया
रसासृङ्मांसमेदोऽस्थि - मज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 850]
- योगशास्त्र - 4/72 यह काया रस, रूधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, तें और विष्टा आदि अपवित्र वस्तुओं की घररूप हैं । अत: उसमें पवित्रता कहाँ से हो सकती हैं। . 222. महामोह का प्रदर्शन
नवस्त्रोतः स्त्रवद्विस्त्र - रसनिस्यन्दपिच्छिले । देहे शौच संकल्पो, महन्मोह विजृम्भितम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 850]
- योगशास्त्र 4/70 देह के नौ द्वारों से सतत निकलते हुए दुर्गन्धित रस और उसके बहने से सने हुए गंदे शरीर में भी पवित्रता की कल्पना करना या अभिमान करना यह महामोह का प्रदर्शन है।
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223. लोकधर्म विरुद्ध त्याग
लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोक विरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥ ___ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 867]
एवं [भाग 4 पृ. 2682] - प्रशमरति प्रकरण 131
- धर्मबिन्दु 1/46 धर्म-मार्ग पर चलने वाले सभी का आधार लोक है । इसलिए जो लोक-विरुद्ध और धर्म-विरुद्ध हो, उसका त्याग करें। 224. अहिंसा, क्षेमंकरी
तत्थ पढमं अहिंसा, तस थावर सव्व भूय खेमकरी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 872]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/21 .. अहिंसा - सत्यादि पाँचों में प्रथम अहिंसा त्रस और स्थावर (चर-अचर) सब प्राणियों का कुशल क्षेम करनेवाली है। 225. हिंसा - अर्थ
प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 872]
- तत्त्वार्थ सूत्र 7/8 प्रमत्त योग (प्रमाद पूर्वक) के द्वारा दूसरों के प्राणों का नाश करना हिंसा है। 226. अहिंसा
अहिंसा जा सा सदेव मणुया सुरस्स लोगस्स भवति दीवो ताणं सरणं गती पइट्ठा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 872] - प्रश्न व्याकरण 216/21
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यह अहिंसा भगवती देवों, मनुष्यों और असुरों सहित समूचे विश्व के लिए द्वीप/दीपक है, शरणदात्री है, गति है तथा समस्त गुणों और सुखों का आधार है। 227. शरणदात्री कौन ?
एसा भगवती अहिंसा.............भीयाणं विव सरणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 873]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/22 यह भगवती अहिंसा भयभीतों का शरण है। 228. शुद्धि के पञ्चहेतु
सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियसंग्रहः सर्वभूत दया शौचं, जलशौचं च पञ्चमम् - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 873]
एवं [भाग 7 पृ. 1004 एवं 1165] - प्रश्न व्याकरण सूत्र सटीक 1 संवर द्वार - चाणक्य राजनीति शास्त्र 3/42
एवं स्कन्द पुराण, काशीखंड - 6 शौच (शुद्धि) के पाँच कारण हैं - सत्यशुद्धि, तपशुद्धि, इन्द्रिय - निग्रहशुद्धि, सब जीवों की दया और जलशुद्धि । प्रथम चार आत्म-शुद्धि के कारण हैं और पाँचवां जल शरीर-शुद्धि की अपेक्षा से है। 229. भगवती अहिंसा
एसा सा भगवइ अहिंसा जा सा भीयाणं विव सरणं, पक्खीणं पिव गमणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमज्झे व पोत वहणं चउप्पयाणं व आसपयं दुहट्टिहियाणं च ओसहिबलं अडवि मज्झे वि सत्थ गमणं एत्तो विसिट्टतरिका अहिंसा । अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/116
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 873]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/22 यह भगवती अहिंसा भयभीतों का शरण है । पक्षियों को जैसे गगन, तृषितों को जैसे जल, बुभुक्षितों को जैसे भोजन, समुद्र के मध्य में जैसे यात्रियों को जलयान, रोगियों को जैसे औषध का बल और अटवी में जैसे सार्थवाह का साथ महत्त्वपूर्ण है, भगवती अहिंसा का महत्त्व इससे भी बहुत अधिक है। 230. अपण्डित कौन ?
वाहत्तारिकलाकुसला, पंडिय पुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवरं, जे धम्मकला न जाणंति ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 873]
- प्रश्न व्याकरण सटीक 1 संवर द्वार । बहत्तर कलाओं में कुशल पण्डित पुरुष यदि सभी कलाओं में श्रेष्ठ 'धर्मकला'को नहीं जानता है, तो वह अपण्डित ही है । 231. थोथा शास्त्र
किं तीए पढ़ियाए पय कोड़िए पलाल भूयाए । जत्थेत्तियं ण नायं, परस्स पीडा न कायव्वा ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 873] - सूत्रकृतांग 1 श्रुत. 11 अ.
- प्रश्न व्याकरण सटीक 1 संवर द्वार जब तक दूसरों के दु:ख को दूर नहीं किया जाय तब तक निरर्थक पुआल तुल्य उन करोड़ों पदों-शास्त्रों को पढ़ लेने से क्या ? 232. जिनवाणी - ध्येय - सव्व जग जीव रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 874]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/22 भगवान् ने समस्त प्राणी जगत् की रक्षा रूप दया के निमित्त प्रवचन दिये हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/117
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233. निंदा त्याग
सव्वे पाणा ण हीलियव्वा न निंदियव्वा ।
-
प्रश्न व्याकरण 2/6/23
विश्व के किसी भी प्राणी की न अवहेलना करनी चाहिए और न
निंदा |
234. अहिंसाराघक
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 874]
वि मित्त- पत्थण- सेवणाते भिक्खं गवेसियव्वं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 874]
प्रश्नव्याकरण 2/6/22
अहिंसा का आराधक श्रमण मित्रता प्रकट करके, प्रार्थना करके, सेवा करके भी भिक्षा की गवेषणा नहीं करें ।
235. भिक्षा ग्रहण - विधि
-
वि हिलाते णवि णिदणाते भिक्ख गवेसियव्वं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 874]
प्रश्न व्याकरण 2/6/22
सुसाधु अन्य लोगों के समक्ष न तो गृहस्थ की बदनामी करके और न ही उसके निन्दा - दोष प्रकट करके भिक्षा ग्रहण करे ।
236. अहिंसाराधक-कर्त्तव्य
णवि वंदण माणणं - पूयणाते भिक्खं गवेसियव्वं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 874]
-
-
प्रश्न व्याकरण 2/6/22
अहिंसाराधक को गृहस्थ की प्रशंसा सम्मान - पूजा - सेवा करके
भिक्षा की गवेषणा नहीं करना चाहिए ।
237. भोजन का उद्देश्य
अक्खो वंजणवणाणुलेवण भूयं संजम जाया णिमित्तं । संजम भार वहणट्ठाए भुंजेज्जा पाण धारणट्टयाए ||
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/118
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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 875]
- प्रश्न व्याकरण -2/6/23 जैसे गाड़ी की धुरी में तेल देना, घाव पर मरहम लगाने के समान है, उसीप्रकार केवल संयम-यात्रा को निभाने के लिए, संयम भार को वहन करने के लिए तथा प्राणों को धारण करने के उद्देश्य से साधक को यतनापूर्वक भोजन करना चाहिए। 238. निर्ग्रन्थ साधक
मणं परिजाणइ से णिग्गंथे ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 875]
- आचारांग 2/3/15/778 जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है, वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है। 239. दुश्चिन्तन . न कया वि मणेण पावतेणं पावगं किंचिवि झायव्वं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 875]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/23 मन से कभी भी बुरा नहीं सोचना चाहिए । 240. दुर्वचन
न कया वि (वइए) तीए पावियाते पावकं किंचिवि भासियव्वं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 875]
- प्रश्न व्याकरण 2/6/23 वचन से कभी भी बुरा नहीं बोलना चाहिए । 241. सुसाधु
अहिंसए संजए सुसाहू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 875] - प्रश्न व्याकरण 2/6/23
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/119
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अहिंसक संयमशील साधु ही सुसाधु होता है । 242. धर्म-सार : समता
एतं खु णाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं । अहिंसा समयं चेव, इत्ता वंतं विजाणिया ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 878-879] - सूत्रकृतांग 1/1/4/10
- एवं 1/11/10 ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा मूलक समता ही धर्म का सार है । बस, इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए। 243. अहिंसक बनो !
सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अतो सब्वे अहिंसिया ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष
. [भाग 1 पृ. 878-879) __ - सूत्रकृतांग 1/1/4/9 एवं 1/11/9
सभी जीवों को दु:ख अप्रिय है, ऐसा मानकर सभी को अहिंसक बने रहना चाहिए। 244. हिंसा - निषेध
न हिंस्यात् सर्वभूतानि ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 878]
- छान्दोग्य उपनिषद् अ. ४ किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो । 245. धार्मिक कौन ?
न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च । आत्मवत् सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 878] - छान्दोग्य उपनिषद् अ. 8
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/120
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किसी भी स और स्थावर प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए । जो सभी प्राणियों को अपनी आत्मा के समान देखता है, वस्तुत: वही धार्मिक है।
246. धर्म का अङ्ग
अहिंसा परमं धर्माङ्गम् ।
-
उत्कृष्ट
अहिंसा 247. सत्य - संरक्षा क्यों ?
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 879 ] सूत्रकृतांग सटीक 2/2
धर्म का अङ्ग है ।
अहिंसैव मता मुख्या स्वर्ग मोक्षप्रसाधिनी । अस्याः संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्याऽऽदिपालनम् । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 882 ] एवं [भाग 4 पृ. 2457 ] हरिभद्रीय 16 अष्टक एवं धर्मरत्न प्रकरण 1 अधि० पृ. 14
स्वर्ग, मोक्षप्रसाधिनी अहिंसा ही मुख्य कही गई है और सत्यादि का पालन इसकी संरक्षा के लिए ही उचित है ।
248. उपशम
उवसमसारं (खु) सामण्णं ।
श्रमणत्व का सार है - उपशम ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 884 ] बृहत्कल्प सूत्र 1/34
249. आराधक - विराधक
-
जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा ।
जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा ॥
1
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 884] बृहत्कल्पसूत्र 1 3. / 34
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /121
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जो कषाय को शान्त करता है, वही आराधक है । जो कषाय को उपशान्त नहीं करता, उसकी आराधना, आराधना नहीं होती। 250. हितकारी-अहितकारी आहार
अहिताशनसम्पर्का - त्सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्तदहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिवेषणम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 887]
एवं [भाग 2 पृ. 549]
- पिण्ड नियुक्ति वृत्ति अहितकारी आहार करने से सारे रोग उत्पन्न होते हैं । इसलिए अहितकारी आहार का त्याग करना चाहिए और हितकारी (पथ्यकारक) आहार का सेवन करना ही उचित है। 251. व्यर्थ प्रयत्न
क्षान्तं न क्षमया गृहोचित सुखं त्यक्तं न सन्तोषतः, सोढा दुःसह तापशीतपवनाः क्लेशान्न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्द्वै न तत्त्वं परं, यद्यत् कर्म कृतं सुखाथिभिरहो ! तैस्तैः फलैर्वञ्चितः ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 887]
एवं [भाग 7 पृ. 647] - सूत्रकृतांग सूत्र सटीक 1/2/1
एवं सुभाषित श्लोक संग्रह 695 आश्चर्य है, हे मानव ! गृहस्थाश्रम के सुखों को तूने क्षमा द्वारा कभी क्षान्त या दमित नहीं किया और न उनमें सन्तोष किया । गृहस्थ सुखों की पिपासा में दु:सह शीत-गर्मी और वायु-कष्ट तो सहन कर लिए, परन्तु इन क्लेशों के उद्धार हेतु तपस्या नहीं की। तूने रातदिन वित्तेषणा का ध्यानचिन्तन तो किया, किन्तु द्वन्द्वों-विकल्पों से परे उस परम तत्त्व परमात्मा का नियमित ध्यान नहीं किया। हे भव्य ! सुखैषणा में तूने जिन - जिन भौतिक सुखों के लिए प्रयत्न किया उन - उन से तू वञ्चित ही होता रहा ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/122
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प्रथम
परिशिष्ट अकारादि अनुक्रमणिका
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Page #133
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सूक्ति
नम्बर
2.
4.
60.
अकारादि अनुक्रमणिका
अहासुहं देवाणुप्पिया ।
अइरोसो अइतोसो अइहासो दुज्जणेहिं संवासो ।
अइ उब्भडो य वेसो, पंच वि गुरुयं पि लहुयं पि ॥ 1
2
8.
अकरणान्मन्दं करणं श्रेयः ।
1
1
15.
1
13. अक्कोसेज्जपरो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले । अगीयत्थस्स वयणेणं, अमियं पि न घोट्टए । 17. अगीयत्थेण समं एक्कं, खणर्द्धपि न संवसे । 18. अग्गं च मूलं च विगिंच धीरे ।
1
1
40. अहासुतं रियं रीयमाणस्स इरियावहिया किरियाकज्जति । उस्सुतं रीयं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जति ।
1
64.
सूक्ति
अ
1
51. अच्चणं रयणं चेव, वंदणं पूयणं तहा । इड्ढी सक्कार - सम्माणं, मणसा वि न पत्थए । अप्पणा अणाहो संतो, कहस्स ना हो भविस्ससि । 59. अप्पामित्तममित्तं च दुप्पट्ठि य सुपट्ठिओ ।
58.
1
1
2
-
अप्पा नई वैतरणी, अप्पा कूडसामली । अप्पा कामदुहा धेनू, अप्पा मे नंदणं वणं ।।
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुक्खाण य सुहाण य ।
81. अभिनूम कडे हि मुच्छिए,
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग
पृष्ठ
तिव्वं से कम्मेहिं किच्चती ।
21. अचक्खु ओवनेयारं, बुद्धि अणेसए गिरा । 23. अजीर्णे अभोजनमिति ।
1
1
2
1
2
1
1
1
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/125
11
900
123
131
162
162
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272
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231
325
231
325
231
332
181
203
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________________
सूक्ति
219
246
332
392
421
सूक्ति
अभिधान राजेन्द्र कोष नम्बर
भाग पृष्ठ 24. अजीर्ण प्रभवा रोगाः।
203 29. अजीर्णे भोजने वारि, जीणे वारि बलप्रदम्। 1 203 30. अज्जवयाएणं काउज्जुययं भासुज्जुययं अविसंवायणं जणयइ।
1 31. अवि संवायणं संपन्नयाएणं जीवे । धम्मस्स आराहए भवइ ।।
1 219 37. अहिंसा सत्य मस्तेयं, ब्रह्मचर्यमसङ्गता।
गुरुभक्ति स्तपोज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते ।। 1 82. अणुसासण मेवपक्कमे । 90. अतीन्द्रियं परं ब्रह्म, विशुद्धानुभवं विना।
शास्त्र युक्ति शतेनापि, नगम्यं यद् बुधा जगुः ॥ 1 93. अणुसासणं पुढो पाणे। 104. अज्ञानं खलु कष्टम् ।
488 103. अज्ञानं खलु कष्टं, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः ।
अर्थं हितमहितं वा न वेत्ति येनावृत्तो लोकः ॥ 1 107. असंकि याइं संकंति, संकियाइं असंकिणो। 1 109. अप्पणो य परं णालं कुतो अण्णेऽणु सासिउं? 1 114. अच्छेद्योऽयमदाह्योऽय-म मविकार्योऽयमुच्यते । नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ।। 1 502
6 115. अर्थानामर्जने दुःखमर्जितानां च रक्षणे ।
आये दुःखं व्यये दुःखं, धिगर्थं दुःखकारणम् ।।
___(पाठान्तरम् - धिगर्थोऽनर्थ भाजनम् ।।) 1 506-803 119. अत्थित्तं अत्थित्ते परिणमइ
नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ। 120. अथिरे पलोट्टति, नो थिरे पलोट्टति;
अथिरे भज्जति, नो थिरे भज्जति ।। 122. अदक्खुवं दक्खुवाहितं सद्दहसु । 1 525
747
518
518
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/126
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नम्बर
अभिधान राजेन्द्र कोष सूक्ति
भाग पृष्ठ 123. अदिण्णादाणं हर दह मरण भय कलुसतासण पर
संतिकभेज्ज लोभमूलं । 124. अदत्तादाणं..............अकित्तिकरणं
अणज्जं..............सदा साहु गरहणिज्ज। 1 126. अच्चंत विपुल दुक्खसय संपलिता परस्सदव्वेहिजे अविरया।
526
526
533
541
542
542
127. अणणुण्ण विय पाण भोयण भोई........से णिग्गंथे
अदिण्णं भुंजेज्जा। 128. अणुन्न वियगेण्हियव्वं । 130. असंविभागी, असंगहरूती........अप्पमाण
भोई........सेतारिसए नाराहए वयमिणं । 131. अपरिग्गह संवुडेणं लोगम्मि विहरियव्वं। 1 138. अढे परिहायती बहू, अहिगरणं न करेज्ज पंडिए। 1 140, अवच्छलत्ते य दंसण हाणी।
1 141. अकसायं खु चरित्तं ।
___1 145. अकसायं निव्वाणं। 148. असज्जमाणे अप्पडिबद्धेयावि विहरइ । 150. अप्पडिबद्धयाएणं, निस्संगत्तं जणयइ । 151. अप्पमत्ते समाहित झाती।
1 153. अकुसलमण निरोहो, कुसलमण उदीरणं वा। 1
542 571 574 574 575
594
594
597 597 1154 597 597 598
154. अप्पमत्ते जए निच्चं। 155. अप्पमत्ते सया परिक्कमेज्जासि । 156. अणण्ण परमं णाणी णो पमादे कयाइ वि। 159. असुताणं धम्माणं सम्म सुणणताते
अब्भुद्वैतव्वं भवति। 160. अलं कुसलस्स पमादेन। 162. असंगिहीत परितणस्स संगिण्हणताते
अब्भुट्टेयव्वं भवति।
598
598
598
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/127
Page #136
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________________
सूक्ति
608
675
691
772
अभिधान राजेन्द्र कोष नम्बर
भाग पृष्ठ 164. अनीद्दशस्य च यथा न भोगसुखमुत्तमम् ।
अशान्तादेस्तथा शुद्धं नानुष्ठानं कदाचन ।। 166. अबंभं........जरामरण रोग सोग बहुलं । 167. अबंभं च....तव संजम बंभचेर विग्धं
भेयायतण बहु पमादमूलं। • 1 . 675 173. अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात् सकला: कलाः ।
अभ्यासाद् ध्यान मौनादि. किमभ्यासस्य दुष्करम् ।। 1 184. अरइं आउट्टे से मेधावी।
753 187. अज्जेवाहं न लब्भामि, अविलाभो सुए सिया।
जो एवं पडि संचिक्खे, अलाभो तं न तज्जए॥ 1 772 188. अलाभो मे परमं तपः । 190. अलिअं न भासि अव्वं, अत्थि हु सच्चं पिजं न वत्तव्वं ।।
सच्चं पि तं न सच्चं, जं पर पीडाकरं वयणं। 1 773 192. अलियंणियडिसाति जोयबहलं नीयजण निसेवियं ।। निस्संसं अपच्चयकारकं।
1 777-784 198. अलिया हिंसंति संनिविट्ठा असंत गुणुदीरकाय संतगुण नासकाय। .
1 781 199. अलिय वयणं........अयसकरं वेरकरगं........मण संकिलेस वियरणं ।
1 784 202. अपाय बहुलं पापं, ये परित्यज्य संसृताः ।
तपोवनं महासत्त्वा - स्ते धन्यास्ते मनस्विनः ।। 1 204. अह चोद्दसहिं ठाणेहिं वट्टमाणे उ संजए।
अविणीए वुच्चई सोउनिव्वाणं च गच्छई ।। 205. असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई। 1 206. असंखयं जीविय मा पमायए। 220. अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणिदिवि चेह च।
देवसरमनष्याणामद्धयश्च सुखानि च ॥ 1 845 226. अहिंसा जा सा सदेव मणुया सुरस्स लोगस्स भवति
दीवो ताणं सरणं गती पइट्ठा।
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/128
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। अभिधान राजेन्द्र कोष नम्बर सूक्ति
भाग पृष्ठ 237. अक्खो वंजणवणाणु लेवण भूयं संजम जाया णिमित्तं __संजम भार वहण छाए भुंजेज्जा पाण धारणट्ठयाए। 1 875 241. अहिंसए संजए सुसाहू । 246. अहिंसा परमं धर्माङ्गम् ।
1 879 247. अहिंसैव मता मुख्या स्वर्ग मोक्षप्रसाधनी । अस्याः संरक्षणार्थं च न्याय्यं सत्याऽऽदिपालनम्। 1
2457 250. अहिताशनसम्पर्का, - त्सर्वरोगोद्भवो यतः । तस्मात्त दहितं त्याज्यं, न्याय्यं पथ्यनिवेषणम् ॥ 1 887
2
आ 10. आरम्भसत्तां गढिता य लोए, धम्मं न याणंति विमोख हेडं।
1
126 25. आमं विदग्धं विष्टब्धं, रसशेषं तथा परम्। 1 26. आमे तु द्रव गन्धित्वं, विदग्धे धूमगन्धिता। विष्टब्धे गात्रभङ्गोऽत्र रसशेषे तु जाड्यता ।।
203 36. आहंसु विज्जा चरणं पमोक्खं ।
549
203
240
556
423
351
95. आदीपमा व्योम सम स्वभावं ।
स्याद्वाद मुद्रानति भेदिवस्तु ॥ 83. आमे घड़े निहित्तं, जहा जलं तं घडं विणासेइ।
इअ सिद्धंत रहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ 62. आउत्तया जस्स य नत्थि काई।
इरियाए भासाए तहेसणाए । . आयाण निक्खेव दुगुंछणाए।
नवीर जायं अणु जाई मग्गं ।' 157. आत गुत्ते सदा वीरे जाता माताए जावए।
1 325-326
1
598
44. इच्छा कामं च लोभं च, संजओ परिवज्जए।
1
280
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/129
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1968966580888560
सूक्ति
सूक्ति
अभिधान राजेन्द्र कोष | नम्बर
भाग पृष्ठ 100. इच्चेय गणि पिडगं, निच्चं दव्वट्ठियाए नायव्वं ।
पज्जाएण अणिच्चं, निच्चानिच्चं च सियवादो ॥ 1 441 76. इत्यनित्यं जगद्वृत्तं, स्थिर चित्तः प्रतिक्षणम् ।।
तृष्णा कृष्णाहिमन्त्राय निर्ममत्वाय चिन्तयेत् ॥ 1 332 169. इहलोए वि ताव नट्ठा, पर लोए वि नट्ठा। 1 679 200. इमाई छ अवतणाइं। तंजहा - अलिय वयणे, __हीलिय वयणे, खिसित वयणे, फरुस वयणे,
गारत्थिय वयणे, विउ सवितं वा पुणो उदीरित्तते। 1 795 215. इन्द्रोपेन्द्रादयोऽप्येते, यन्मृत्योर्यान्ति गोचरम् ।
अहो तदन्तकातङ्के, कःशरण्य शरीरिणाम् ।। 1
844
69. उद्देसियं कीयगडं नियागं, त मुंचई किंचि अणेसणिज्जं। अग्गिविवा सव्वभक्खी भवित्ताइओ चुए गच्छइ कटु पावं ।।
1 327 168. उवणमंति मरण धम्म अवितत्ता कामाणं। 1 677-679
678 248. उवसमसारं (खु) सामण्णं ।।
884
7.
एकं हि चक्षुरमलं सहजो विवेकः, तद्वद्भि रेव सह संवसति द्वितीयम् । एतद् द्वयं भुवि न यस्य तत्त्वतोऽन्धर, तस्यापमार्ग चलने खलु को ऽ पराधः ।।
105
493
544
110. एवं तक्काए साहेंता धम्माऽधम्मे अकोविया ।
दुक्खं ते नाइ तुटंति, सउणी पंजरं जहा॥ 133. एगे चरेज्ज धम्मं । 178. एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवर दक्षिणा ।
एक तो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ॥ 1 196. एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः। ___एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जल चन्द्रवत् ।। 1
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/130
706
780
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________________
सूक्ति
नम्बर
सूक्ति
1
227. एसा भगवती अहिंसा भीयाणं विव सरणं । 229. एसा सा भगवइ अहिंसा जा सा भीयाणं विव सरणं, पक्खीणं पिव गमणं, तिसियाणं पिव सलिलं, खुहियाणं पिव असणं, समुद्दमज्झे व पोत वहणं चउप्पयाणं व आसपयं दुहट्टिहियाणं च ओसहिबलं अडवि मज्झे वि सत्थ गमणं एत्तो विसितरिका अहिंसा । 242. एतं खुणाणिणो सारं जं न हिंसति किंचणं । अहिंसा समयं चेव, इत्ता वंतं विजाणिया || औ 34. औचित्याद् वृत्तमुक्तस्य वचनात् तत्त्व- चिन्तनम् । मैत्र्यादि सारमत्यन्त-मध्यात्मकतद् विदो विदुः ॥ 1 अं
108. अंधो अंध पहंणितो, दूरमद्धाण गच्छती ।
क
75. कल्लोल चपला लक्ष्मी:, सङ्गमाः स्वप्नसंनिभाः । वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त - तुलतुल्यं च यौवनम् ॥ 139. कसाय सहितो न संजओ होइ ।
92. केषां न कल्पनादव, शास्त्र क्षीराऽवगाहिनी । विरलातद्रसास्वाद विदोऽनुभव जिह्वया ॥
को
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग:
पृष्ठ
33. कोहं च माणं च तहेव मायं ।
लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा ॥
85. को कल्लाणं नेच्छइ ।
1
1
का
53. कामं परितावो, असायहेतु जिणेहिं पणतो । आत- परहित करो पुण, इच्छिज्जइ दुस्सले खलुउ ॥ 1 के
1
1
1
1
1
1
873
किं
231. किं तीए पढियाए पय कोडिए पलाल भूयाए । थेत्ति नायं परस्स पीडा न कायव्वा ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/131
1
873
878-879
227
492
331
574
297
393
227
353
873
Page #140
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नम्बर
सूक्ति
- अभिधान राजेन्द्र कोष सूक्ति
भाग पृष्ठ । 186. क्लिश्यन्ते केवलं स्थूलाः, सुधीस्तु फलमश्नुते ।
दन्ता दलन्ति कष्टेन, जिह्वया गिलति लीलया॥ 1 762
43. खंती य मद्दवऽज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे ।
सच्चं सोयं आकिंचणं च, बंभं च जइ धम्मो ॥ 1
279
158. गिलाणस्स अगिलाते वेयावच्चंकरणताए अब्भुट्टेयव्वं भवइ।
1 598
86. गुण सुट्ठियरस वयणं, घयपरिसित्तुव्व पावओ भाइ।
गुण हीणस्स न सोहइ, नेह विहूणो जह पईवो ॥ 1
353
97. घटमौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोद माध्यस्थं जनोयाति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यति न पयोऽति दधिव्रतः। अगोरस व्रतो नोभे तस्माद् वस्तु त्रयात्मकम् ॥
1
425
264
39. चत्वारो नरक द्वाराः, प्रथमं रात्रि भोजनम्।
परस्त्री सङ्गमश्चैव, सन्धानानन्त कायिके ॥ 1 89. चरण पडिवत्ति हेडं, धम्मकहा। 203. चत्तारि अवातणिज्जा पन्नता, तंजहा अविणीवीई पडिबद्धे,
अविओ सवित पाहुडे मायी।
356
1804
804
17
3. जहा जाएणं अवस्सं मरियव्वं ।। 56. जहा महातलागस्स, सन्निरूद्धे जलागमे।
उस्सिचणाए तवणाए, कमेणं सोसणा भवे ।। एवं तु संजयस्सा वि पावकम्म निरासवे। भवकोड़ि संचियं कम्मं तवसा निज्जरिज्जइ ॥
1 321 42199-2200
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/132
Page #141
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238888888342958
नम्बर
अभिधान राजेन्द्र कोष सूक्ति
भाग पृष्ठ 77. जइ वि य णिगिणे किसे चरे, जइविय भुंजियमासमंतसो ।
जे इह मायादि मिज्जती, आगंता गब्भायऽणंत सो ॥ 1 332 142. जह कोहाइ विवड्ढी, तह हाणी होइ चरणे वि। 1 574 175. जहि णत्थि सारणा वारणा य पडिचोवायणा य गच्छम्मि ।
सो उ अगच्छो गच्छो संजम कामीण मोत्तव्यो। 1 195. जले विष्णुः, स्थले विष्णुः विष्णुपर्वत मस्तके।
ज्वाल माला कुले विष्णुः, सर्वं विष्णुमयं जगत् ।। 1 207. जरोवणीयस्सहु नत्थि ताणं ।
1 219. जन्मजरामरणभयै - रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ 1 844
2 178
जि 116. जिणवयणम्मि परिणए, अवत्थविहि आणु ठाणओ धम्मो।
सच्छा ऽ सयप्पयोगा, अत्थो वीसंभओ कामो ॥ 1 507
780
819
32. जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति ।
जे बहिया जाणति से अज्झत्थं जाणति ।। एतं तुल्लमण्णेसि।
227
1061
67. जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे ।
निमित्त को ऊहल संपगाढे ॥ कुहेड विज्जासवदार जीवी। न गच्छइ सरणं तंमि काले ॥
___1 171. जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असम्मत्तं दंसिणो। __. असुद्धं तेसिं परक्कंतं, सफलं होइ सव्वसो॥ 1
5
326
326
684 60
63. जो पव्वइत्ताण महव्वयाई सम्मंनो फासयति पमाया।
अनिग्गहप्पा य रसेसु गिद्धे, न मूलओ छिंदइ बंधणं से ।।1
325
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/133
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________________
सूक्ति
नम्बर
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग
पृष्ठ
सूक्ति
1
87. जो उत्तमेहिं पहओ, मग्गो सो दुग्गमो न सेसाणं । 101. जो सियवायं भासति, पमाण नय पेसलं गुणाधारं । भावेइ सेण णसेयं, सो हि पमाणं पवयणस्स || 102. जो सियवायं निंदति, पमाण नय पेसल गुणाधारं । भावेण दुट्टभावो, न सो पमाण पवयणस्स ॥
1
1
249. जो उवसमइ तस्स अस्थि आराहणा ।
जो न उवसमइ तस्स नत्थि आराहणा || जं
5.
जं इच्छसि अप्पणतो, जंवण इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छं परस्स वियं, इत्तियगं जिण सासणयं ॥ 143. जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्व कोडीए । तं पिय कसायमित्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं ॥
1
172. जं अब्भासइ जीवो, गुणं च दोसं च एत्थ जम्मम्मि । तं पावइ परलोए, तेण य अब्भास जोएण ।।
1
99.
1
1
ण
हु सासण भत्ती मे - तएण सिद्धन्त जाणओ होइ ।
1
ण वि जाणओ विणियमा, पणवणा निच्छिओ णाम ।। 1 234. णवि मित्त- पत्थण- सेवणाते भिक्खं गवे सियव्वं । 235. णवि हिलणाते णवि णिदणाते भिक्ख गवेसियव्वं । 1 236. णवि वंदण - माणणं - पूयणाते भिक्खं गवेसियव्वं । 1 णी
54. णीवारे य न लीएज्जा, छिन्न सोते अणाइले ।
त
1
136. तवो वि धम्मो ।
1
1
146. तमतिमिर पडल भूतो पावं चिंतेइ दीह संसारी । 224. तत्थ पढमं अहिंसा, तस थावर सव्व भूय खेमकरी । 1 -
ता
78. ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउक्खयम्मि तुट्टती । 1
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/134
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441
441
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87
575
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874
874
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306
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332
Page #143
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________________
सूक्ति
नम्बर
सूक्ति
द
12. ददतु ददतु गालीं गालिमंतो भवन्तः । वयमपि तदभावात् गालिदानेऽप्यशक्ताः । जगति विदितमेतद्दीयते विद्यमानं ।
न ददतु शशविषाणं ये महात्यागिनोऽपि ॥ 88. दविए दंसण सुद्धा, दंसण सुद्धस्स चरणं तु । 98. दव्वं खित्तं कालं, भाव पज्जाय देससंजोगे ।
भेदं च पमुच्च समा, भावाणं पणवण पज्जा ।। 165. दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः I कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्कुरः
179. दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतम् । सर्वाण्य भय दानस्य, कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥
दु
191. दुग्गइ - विणिवाय विवडढणं ।
||
द्वि 212. द्विषद् विषतमो रोगै दुःखमेकत्र दीयते । मिथ्यात्वेन दुरन्तेन, जन्तो र्जन्मनि जन्मनि ॥
47.
अभिधान राजेन्द्र कोष
भागः
पृष्ठ
1
1
1
1
3
1
1
ध
19. धर्मार्थं यस्य वित्तेहा, तस्या नीहा गरीयसी । प्रक्षालनाद्धिपङ्कस्य दूरादस्पर्शनं वरम् ॥
1
117. धम्मो अत्थो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसवत्ता । जिणवयण उत्तिन्ना, अवसत्ता होंति नायव्वा ॥
118. धम्मस्स फलं मोक्खो ।
174. धम्मस्स मूलं विणयं वयन्ति । 185. धम्मारामे निरारंभे उवसंते मुणी चरे ।
धि
201. धिग् द्रव्यं दुःखवर्धनम् ।
1
1
1
1
1 777 एवं 784
1
न
न रसट्ठाए भुंजेज्जा जवणट्ठाए महामुणी ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /135
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1
438
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507
696
754
803
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PR6888888888888
सूक्ति नम्बर
सक्ति
-
अभिधान राजेन्द्र कोष भाग पृष्ठ ।
327
585
68. न तं अरी कंठ छेत्ता करेइ,
जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। 147. नवणीय तुल्ल हियया साहू। 181. नहीं भूयस्तमो धर्मस्तस्मादन्योऽस्ति भूतले ।
प्राणीनां भयभीतानाम भयं यत्प्रदीयते ॥ 1 . 706 194. न हि भवति यन्न भाव्यं, भवति च भाव्यं विनाऽपि यत्नेन ।
करतलगतमपि नश्यंति, यस्य तु भवितव्यता नास्ति ।। 1 780 211. न मिथ्यात्व समः शत्रु - न मिथ्यात्व समं विषम्।।
न मिथ्यात्व समो रोगो, न मिथ्यात्व समं तपः ।। 1 840 222. नवस्त्रोतः स्त्रवद्विस्त्र - रसनिस्यन्दपिच्छिले।
देहे शौच संकल्पो, महन्मोह विजृम्भितम् ।। 1 850 239. न कया वि मणेण पावतेणं पावगं किंचिवि झायव्वं। 1 875 240. न कया वि (वइए) तीए पावियाते पावकं
किंचिवि भासियव्वं। 244. न हिंस्यात् सर्वभूतानि। 245. न हिंस्यात्सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च ।
आत्मवत् सर्वभूतानि, यः पश्यति स धार्मिकः ।। 1
875
878
.878
190 2146
22. नाणी नो परिदेवए।
1
4 106. नानाशास्त्र सुभाषितामृतरसैः श्रोत्रोत्सवं कुर्वताम्,
येषां यान्ति दिनानि पण्डितजन व्यायामखिन्नात्मनाम् । तेषां जन्म च जीवितं च सफलं तै रेव भूर्भूषिता,
शेषै किं पशुवद्विवेक रहित भूभार भूतैनरैः ॥ 1 121. नासतो जायते भावो, ना भावो जायते सतः। 1
488
518
नि
52. निम्ममो निरहंकारो, वीयरागो अणासवो।
संपत्तो केवलं नाणं, सासए परिनिव्वुडे।
1
282
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/136
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000000000000000000
_ अभिधान राजेन्द्र कोष सूक्ति
भाग पृष्ठ 72. निरासवे संख वियाण कम्मं, उवेइ ठाणं विउलुत्तमं धुवं।
327 149. निसंगत्तेणं जीवे एगे, एगग्ग चित्ते । 1 594 193. निक्खेवे अवहरंति, परस्स अत्थम्मि गढियगिद्धा। 1 778
528
125. परदव्वहशणरा णिरनुकंपा। 183. पद्मावती च समुवाच विना वधूटी,
शोभा न काचन नरस्य भवत्यवश्यम्। नो केवलस्य पुरुषस्य करोति कोऽपि, विश्वासमेव विट एव भवेदभार्यः ।।।
पि 216. पितुर्मातुः स्वसुर्भातु - स्तनयानां च पश्यताम् ।
अत्राणो नीयते जन्तुः कर्मभिर्यमसद्मनि ॥
1
709
1
844
79. पुरिसोरमपाव कम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं । 1 197. पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम्।
332 780
225. प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।
1
872
46. फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहिं अणभिदुए।
तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परम संजए ।।
1
280
55. भव कोडी संचियं कम्मं, तवसानिज्जरिज्जई।
1।
321
2200
भा 96. भागे सिंहो नरो भागे, योऽर्थो भाग द्वयात्मकः । तम भागं विभागेन, नरसिंह: प्रचक्षते ।।
भि 49. भिक्खावित्ती सुहावहा।
425
281
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/137
Page #146
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अभिधान राजेन्द्र काष भाग पृष्ठ
| नम्बर
सूक्ति
203
'280
27. मलवातयोर्विगन्धो, विड्भेदो गात्रगौरवमरूच्यम् ।
अविशुद्धश्चोद्गारः, पड जीर्ण व्यक्त लिङ्गानि ॥ 1 45. मणोहरं चित्तहरं, मल्ल धूवेण वासियं ।
सकवाडं पंडुरूल्लोयं, मणसा वि न पत्थए । 1 70. मग्गं कुसीलाण जहाय सव्वं, महानियं ठाणवए पहेणं। 1 180. महतामपि दानानां, कालेन क्षीयते फलम् ।
भीता भय प्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ।। 238. मणं परिजाणइ से णिग्गंथे।
327
706
875
274
322.
1. मा पडिबंध करेह।
1 41. मायी विउव्वति, नो अमायी विउव्वति । 57. माणुस्सं खु सुदुल्लहं। 209. मायाशीलः पुरुषो यद्यपि न करोति किंचिदपराधम् । सर्प इवाविश्वास्यो, भवति तथाप्यात्मदोषहतः ॥ 1
मि 9. मिच्छत्तं वेयन्तो, जं अन्नाणी कहं परिकहेइ ।
लिंगत्थो व गिही वा, सा अकहा देसिआ समए ।। 1
835
124
274
170. मित्ताणि खिप्पं भवंति सत्तू ।
679
203
28. मूर्छा प्रलापो वमथुः, प्रसेकः सदनं भ्रमः ।
उपद्रवा भवन्त्येते, मरणं वाऽप्य जीर्णतः ।। 1 105. मूर्खत्वं हि सखे ! ममापि रुचितं तस्मिन् यदष्टौ गुणाः।
निश्चिन्तौ। बहुभोजनो- ऽत्रपमाना' नक्तं दिवा शायकैः ।। कार्याकार्य विचारणान्धबधिरो मानापमाने समः । प्रायेणामय वर्जितो' दृढ वपु मूर्खः सुखं जीवति ।। 1
488
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/138
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सूक्ति
नम्बर
सूक्ति
मै
112. मैत्र्या सर्वेषु सत्त्वेषु, प्रमोदेन गुणाधिके । मध्यस्थेष्वविनीतेषु, कृपया दुःखितेषु च ॥
य
73. यत्प्रातस्तन्न मध्याह्ने, यन्नमध्याह्ने न तन्निशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन् हि, पदार्थानामनित्यता । 84. यत्राकृतिस्तत्र गुणाः वसन्ति । 176. य स्वभावात्सुखौषिभ्यो, भूतेभ्यो दीयते सदा । अभयं दुःख भीतेभ्योऽभयदानं तदुच्यते ॥
208. यथा चिंत तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः । धन्यास्ते त्रितये येषां, विसंवादो न विद्यते ॥
र
65. राढामणी वेरूलि यप्पकासे, अमहग्घए होइ हु जाणएसु ।
144. रागद्दोस विमुक्को, सीयघर समो आयरिओ ।
ल
189. लद्धे पिंडे अलद्धे वा, णाणुतप्पेज्ज संजए । लो 223. लोकः खल्वाधारः सर्वेषां ब्रह्मचारिणां यस्मात् । तस्माल्लोक विरुद्धं, धर्मविरुद्धं च संत्याज्यम् ॥
व
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग
पृष्ठ
35. वइगुत्ते अज्झप्प संवुडे परिवज्जए सदा पावं । 210. वरं प्राण परित्यागो, मा मान परिखण्डना ।
प्राण त्यागे क्षणं दुःखं, मान भङ्गे दिने दिने ।
1
2
1
1
221. रसासृङ्मांसमेदोऽस्थि - मज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ।।
1
रा
1
1
1
1
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/139
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________________
सूक्ति
नम्बर
सूक्ति
213. वरं ज्वाला कुले क्षिप्तो, देहिनाऽत्मा हुताशने । मिथ्यात्व संयुक्तं, जीवितव्यं कदाचन ॥
न तु
वा
1
20. वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । अन्न प्रदानमेततु पूर्तं तत्त्व विदो विदुः ॥ 230. वाहत्तरिकलाकुसला, पंडिय पुरिसा अपंडिया चेव । सव्वकलाणं पवरं, जे धम्मकला न जाणंति ॥
1
66. विसं तु पीयं जह काल कूडं,
हणाइ सत्थं जह कुग्गिहीयं । एसेव धम्मो विसओ ववन्नो, हणाइ वेयाल इवाविवण्णो || 134. विणओ वि तवो ।
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग
पृष्ठ
वि
16. विसं खाएज्ज हालाहलं, तं किर मारेइ तक्खणं । ण करेऽगीयत्थसंसरिंग, विढवे लक्खंपिजं तहिं ॥
1
91.
व्या
व्यापारः सर्वशास्त्राणां दिक्प्रदर्शनमेव हि । पारंतु प्रापयत्येकोऽनुभवो भववारिधेः ॥
स
1
80.
94. सच्चे तत्थ करे हु वक्कमं ।
111. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वरं ।
1
1
1
6. सव्वारंभ परिग्गह-णिक्खेवो सव्वभूत समया य । एक्कग्गमण समाही, - णया अह एत्तिओ मोक्खो || 1 11. सरिसो होइ बालाणं, तम्हा भिक्खू ण संजले । सम सुह दुक्ख सहे य जे, स भिक्खू । 48. समलेट्टु कंचणे भिक्खू ।
1
14.
1
1
7
सन्ना इह काम मुच्छिया, मोह जंति नरा असंवुडा । 1
1
जे उ तत्थ विउस्संति संसारं ते विउस्सिया ||
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162
326
545
392
87
131
132
281
281
332
421
493
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति
नम्बर
सूक्ति
129. सया अप्पमाण भोती सततं अणुबद्धवेरेय तिव्वरोसी, सेरिस नाहए वयमिणं ।
177. सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च, यत्कुर्यात् प्राणिनां दया ।। 228. सत्यं शौचं तपः शौचं, शौचमिन्द्रियसंग्रहः सर्वभूत दया शौचं, जलशौचं च पञ्चमम्
233. सव्वे पाणा ण हीलियव्वा न निंदियव्वा ।
243. सव्वे अक्कंत दुक्खाय, अतो सव्वे अहिंसिया ।
सा
42.
सारद सलिल इव सुद्धहियया विहग इव विप्पमुक्का
232. सव्व जग जीव रक्खणदयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।
1
1
1
वसुंधरा इव सव्व फास विसहा ।
135. साहम्मिए विणओ पउंजियव्वो ।
अभिधान राजेन्द्र कोष
भाग
पृष्ठ
सी
61. सीयन्ति एगे बहु कायरा नरा ।
सु
50. सुक्कज्झाणं झियाएज्जा, अनियाणे अकिंचणे ।
वोसट्टकाए विहरेज्जा, जाव कालस्स पज्जओ ||
1
1
1
137. सामन्नमणु चरंत - स्स कसाया जस्स उक्कडा होंति ।
मन्नामि उच्छु पुष्पं च निफ्फलं तस्स सामन्नं ॥
1
5
152. सुस्सूसए आयरिएऽ प्पमत्तो ।
161. सुयाता धम्माणं ओगिण्णताते उवधारणयाते अब्भुतव्वं भवति ।
1
1
873
7 1004 एवं 1165
1
1
1
1
542
706
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/141
874
874
878-879
278
545
571
· 382
325
282
597
598
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
-2560566699945636-5689658042609665800
अभिधान राजेन्द्र कोष भाग पृष्ठ
1
543
132. संविभाग सीले संग हो वग्गह कुसलेसे,
तारिसे आराहते वयमिणं। 218. संसारे दुःखदावाग्नि - ज्वलद् ज्वाला करालिते।
वने मृगार्भकस्येव, शरणं नास्ति देहिनः ॥ 1
844
74. शरीरं देहिनां सर्व - पुरुषार्थ निबन्धनम् ।
प्रचण्डपवनोधूत, - घनाघनविनश्वरम् ।।
1
331 .
247
38. शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा ।
ऊहोऽपोहोऽर्थ विज्ञानं, तत्त्व ज्ञानं च धी गुणाः ॥ 1 163. शुद्धयल्लोके यथा रत्नं जात्यं काञ्चनमेववा । गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम् ॥ 1
शो 217. शोचन्ति स्वजनानऽन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः ।
नेष्यमाणं न शोचन्ति, नात्मानं मूढबुद्धयः ॥ 1
607
844
182. हेम धेनु धरादीनां दातारः सुलभाभुवि ।
दुर्लभ पुरुषोलोके, यः प्राणिष्वभयप्रदः ।
1
706
214. हिंसाऽनृतादयः पञ्च, तत्त्वाश्रद्धानमेव च ।
क्रोधादयश्च चत्वारः इति पापस्य हेतवः ।।
1
840
क्षा
251. क्षान्तं न क्षमया गृहोचित सुखं त्यक्तं न सन्तोषतः,
सोढा दुःसह तापशीतपवना: क्लेशान्न तप्तं तपः। ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितं द्वन्द्वैर्न तत्त्वं परं, यद्यत् कर्म कृतं सुखार्थिभिरहो! तैस्तैः फलैर्वञ्चितः ।।
1
887
647
:
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/142
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय
परिशिष्ट विषयानुक्रमणिका
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयानुक्रमणिका सूक्ति नम्बर
सक्ति शीर्षक
। क्रमाङ्क
अकथा अपशब्द अज्ञानी में अविश्वास अगीतार्थ-संसर्गः दुःखद अगीतार्थ के साथ मत रहो अजीर्ण-प्रकार अजीर्ण-लक्षण अजीर्ण से रोग अध्यात्म-दोष अध्यात्म-स्वरूप अष्ट-पूजा-पुष्प अनाथ नाथ कैसे? अग्निवत् सर्वभक्षी-श्रमण अनित्य-चिन्तन अनुशासन अज्ञानः दुःखरूप अज्ञानता कष्ट अन्धों का भटकाव अनुशासन अर्थः दुःखद अनार्य कर्म अदत्त-भोजी अदत्त-त्याग अस्तेय-अनाराधक असंविभागी कौन? अपरिग्रह अकषाय से मोक्ष अप्रतिबद्ध-विचरण अप्रमत्त अप्रमत्त-भाव
103
104
108
109
115
124 127
128
129
130
131
27
145
148
151
. 154
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/145
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमाङ्क
सूक्ति नम्बर
सूक्ति शीर्षक
31
163
176
184
191
192
159
अश्रुत धर्म-श्रवण 160
अप्रमाद 162
असहाय-आश्रय
अन्तःशोधन 166
अब्रह्मचर्य 167
अब्रह्मचर्य-विघ्न 172
अभ्यास-तद्पता 173
अभ्यास से सर्वसुलभ
अभयदान 178
अनुपम-अभयदान 179
अभयदान-श्रेष्ठ 181
अभयदान-परमधर्म
अनुद्विग्न-सुधी 187
अलाभ-परिषह असत्य-भाषण
असत्य-स्वरूप 199
असत्य-विपाक 203
अध्ययन के अयोग्य 204
अविनीत 205
अविनीत कौन ? 216
अशरण-चिन्तन 218
अशरण-अनुप्रेक्षा 220
अशाश्वत क्या ?
अपवित्र-काया 224
अहिंसा, क्षेमंकरी 226
अहिंसा सर्वगुण-सम्पन्न 230
अपण्डित कौन ? अहिंसा का आराधक
अहिंसाराधक-कर्तव्य 243
अहिंसक बनो !
आत्मवत् चाहो ! 10
आरम्भासक्त जीव अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/146
221
234
236
62
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
he
249
188
208
क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर सूक्ति शीर्षक
आर्जव-अंकुर आहार क्यों ? आत्मा ही सब कुछ
आत्महन्ता 113
आत्मवत्-स्वरूप 114
आत्म-स्वरूप 152
आचार्य-शुश्रूषा 157
आत्मगुप्त-साधक 161
आचरण-तत्परता
आराधक-विराधक 169
इह-परत्र नाश 137
ईख का फूल
उत्तम-तप 248
उपशम
एकरूपता 183
एकल अशोभनीय 163
कर्मबन्ध-अनुच्छेद 64
कर्ता-भोक्ता-आत्मा
कर्म-विपाक 85
कल्याण-कामना 138
कलह-हानि 139
कषायी-असंयमी 142
कषाय, चारित्र-हानि 165
कर्मः दग्धबीज
कायर-जन 88 . 168
काम-भोग अतृप्ति 170
कैसा सत्य ? 90 215
कौन-शरण्य ? 91 48
कञ्चन माटी जाने 92 143
किञ्चित् कषाय से चारित्र-हनन किञ्चित् श्रेयस्कर !
क्रिया-बन्ध अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/147
61
40
Page #156
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________________
क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर
सूक्ति शीर्षक
06
07
26
133
101
126
6
107
95 11
क्रोध-परिणाम
गृद्धात्मा कुररीवत् 146
घोर-अज्ञानी चतुर्विध अजीर्ण व्याख्या
चक्षुष्मान् 100
चल, अकेला 125
चोर, निर्दयी 102
चौर्य कर्म 103
चौर्य कर्म-विपाक 104 219
जिन वचन शरण 105 232
जिनवाणी-ध्येय जीवन-मरण
जीवन-क्षणभंगुर 108
जीवनदान 109
तपश्चरण 11056
तप, कर्मक्षय-प्रक्रिया 111
तप-धर्म 112
तीन आई-गई 113
तेजस्वी-वचन 114 231
थोथा-शास्त्र 115
दुर्लभ मानव-भव 116
दुराग्रह-पाश 117 239
दुश्चिन्तन 118 240
दुर्वचन 119
दृष्टि-दर्पण 120 77
दम्भ ! 121 1
धर्म में शीघ्रता 122 19
धर्म की बैसाखी पर धर्म नहीं चलता 12389
धर्म-कथा 12493
धर्म-पात्रता 125 116
धर्म-अर्थ-कामः अविरोधी 126
धर्म-अर्थ-काम अविसंवादी अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/148
136
75
86
51
111
80
93
117
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमाङ्क
127
128
129
130
131
132
133
134
135
136
137
138
139
140
141
142
143
144
145
146
147
148
149
150
151
152
153
154
155
156
157
सूक्ति नम्बर
118
185
242
246
245
201
18
39
41
46
70
72
149
2363286 1224486 -
150
67
73
90
97
155
20
52
4
110
177
29
21
सूक्ति शीर्षक
धर्म-फल
धर्म-विहार
धर्म-सार, समता
धर्म का अङ्ग
धार्मिक कौन ?
धिग् ! धनम्
धीर साधक
नरक -द्वार
नाना-प्रदर्शन
निर्ग्रन्थ-- निवास निर्ग्रन्थ-पथ
निर्ग्रन्थ- निराश्रव
निःसङ्ग भाव श्रेष्ठतम निर्द्वन्द्वता से निःसङ्ग निर्ग्रन्थ साधक
नैमितज्ञ
निन्दा त्याग
पदार्थ क्षणभंगुर
परब्रह्म - अगम्य पदार्थ-स्वरूप
पराक्रम कहाँ ?
परमात्मा
पात्रता
पाप-हेतु
पुण्य-कर्म
पूर्ण आत्मस्थ पञ्चाति वर्जित
पिञ्जरे का पक्षी
प्राणी दया श्रेष्ठतम
बलप्रदः जल
बुद्धियुक्त वाणी
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /149
Page #158
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________________
| क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर
सूक्ति शीर्षक
38
13
167
168
169
171
170
158
बुद्धि-गुण 159 194
भवितव्यता 160 229
भगवती अहिंसा 161 112
भाववासित-हृदय 162
भिक्षु सहिष्णु रहे 163
भिक्षावृत्ति-सुखावह 164
भिक्षा ग्रहण-विधि 165 23
भोजन अनुचित 166 237
भोजन का उद्देश्य 87
महाजन-मार्ग 202
महासत्त्वशील मनीषी 222
महामोह का प्रदर्शन 170 206
मा प्रमाद 209
मायावी अविश्वसनीय 172 59
मित्र-शत्रु कौन ? 173
मित्र भी शत्रु 174 198
मिथ्याशयी-मानव कैसे? 175 211
मिथ्यात्व 212
मिथ्यात्व-भयङ्कर 213
मिथ्यात्व-जीवन
मुनिप्रवृत्ति 179 105
मूर्ख-गुण 217
मूढ़ मानव 1813
मृत्यु-निश्चित
मोह कर्म-सञ्चय 183 107
मोह-मूढ़
मन्दबुद्धि उपदेश पात्र नहीं 1852
यथोचित 18684
यथा आकृति तथा गुण 187
योग्य-प्रवक्ता 188
रत्न पारखी 189 158
रोगी सेवा अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/150
176
177
178
50
180
184
65
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर
190
191
192
193
194
195
196
197
198
199
200
201
202
203
204
205
206
207
208
209
210
211
212
213
214
215
216.
217
218
219
220
221
सूक्ति शीर्षक
रोग का मूल
लड़े सिपाही नाम सरदार का
लोभ में अनाकृष्ट
लोभी प्रवृत्ति लोक-धर्म विरूद्ध त्याग
वचनगुप्त - आत्मसंवृत्त
वस्तुतत्त्व-प्ररूपता
वात्सल्य - महत्ता
विवेकान्ध
24
186
54
193
223
35
98
140
7
66
74
134
174
182
197
62
141
207
251
6
14
31
94
106
119
121
171
195
24
51
135
241
सुसाधु
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /151
विषय वेष्टित धर्म
विनश्वर शरीर
विनय-तप
विनय
विरले- अभयदाता
विराट् ब्रह्म
वीर मार्गानुसरण के अयोग्य
वीतरागता
वृद्धावस्था रक्षक नहीं
व्यर्थ प्रयत्न
समाधि
सच्चा भिक्षु
सच्चा आराधक
सत्योपदेश
सफल जीवन
सत्-सत्
सत्-असत्
सम्यग्दर्शन विहीन
सर्वव्यापी ईश्वर
सत्य- संरक्षा क्यों ?
साधक एषणा रहित साधर्मिक-विनय
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
88888888888
क्रमाङ्क सूक्ति नम्बर
सूक्ति शीर्षक
222 32 22342 224
225
226
132 175 147
227
228
95
229
96
230
100
231
101
232
102
233
120
234
227
235
91
92
संतुलित-स्वपर सन्त-हृदय संयमी आत्मा संविभागी कौन ? संघ, संघ नहीं ! सन्त हृदय नवनीत-सम स्याद्वाद का सिक्का स्याद्वाद स्यावाद नित्यानित्य स्याद्वाद महिमा स्याद्वाद निंदक स्थिर शाश्वत ! शरणदात्री कौन ? शास्त्र: मात्र दिग्दर्शक शास्त्रास्वादी-विरले शीतगृह-सम आचार्य शुभ-चिन्तन शुद्धि के पंचहेतु श्रमण-धर्म श्रमण-निवास श्रेष्ठ पुरुष के लक्षण षट्-दुर्वचन हितकारी परिताप हितकारी-अहितकारी आहार हिंसा-अर्थ हिंसा-निषेध क्षुधा परिषह ज्ञानी-अखिन्न ज्ञान और कर्म ज्ञानी मुनि
236 237 238 239 240
144
153 228
241
45
242
210
243
200
244
53
245
2500 225
246
247
244
248
189
249 25036 251 156
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/152
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
58883
8888
तृतीय परिशिष्ट अभिधान राजेन्द्रः
पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका
2015
888888
3
388888888888
225
358
288638
FEACHERE
1838
8888
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति
क्रम
679 a
1 2 3 4 5
777
10
11
12
13
14
15
16
17
18
19
222 22 2 2 2 2828
20
21
23
24
25
अभिधान राजेन्द्रः पृष्ठ संख्या अनुक्रमणिका
26
27
29
30
पृष्ठ
संख्या
11
18
भाग-1
एवं भाग 2 पृ. 900 में भी है ।
87
87
105
123
124
126
131
131
131
132
162
162
162
164
179
180
181
190
203
203
203
203
203
203
203
219
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /155
एवं भाग 5 पृ. 70 में भी है ।
एवं भाग 6 पृ. 274 में भी है ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
38888888888888888
:
संख्या 219
एवं भाग 6 पृ. 1061 में भी है।
227 227
227 229 240
246
247
264 272 274
278
279 280 280 280
281
281
281
282 282 282 297
306
321
321
एवं भाग 4 पृ. 2199 - 2200 में भी है।
322
323
325
एवं भाग 2 पृ. 231 में भी है। एवं भाग 2 पृ. 231 में भी है।
325 325 325
एवं 326
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/156
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
Éརྞྞ འཱུཟུ ྤ༦e⌘gęཊྛFn༄ggཊྛ༄ęBzg
सूक्ति
ch4
63
64
65
66
67
68
69
70
71
72
73
74
75
76
77
78
79
80
81
82
83
84
85
86
87
88
89
90
91
92
93
94
पृष्ठ
संख्या
325
325
326
326
326
327
327
327
327
327
331
331
331
332
332
332
332
332
332
332
351
352
353
353
353
356
356
392
392
393
421
421
भाग-1
एवं भाग 2 पृ. 231 में भी है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/157
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति
क्रम
95
96
97
98
99
100
101
102
103
104
105
106
107
108
109
110
111
112
113
114
115
116
117
118
119
120
121
122
123
124
125
पृष्ठ
संख्या
423
425
425
438
440
441
441
441
488
488
488
488
491
492
492
493
493
496
502
एवं 780
502
506
507
507
507
518
518
518
525
526
526
528
भाग-1
एवं भाग 2 पृ. 503 में भी है एवं भाग 6 पृ. 747 में भी है
1
एवं भाग 6 पृ. 747 में भी है
I
एवं 803
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /158
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
| सूक्ति
पृष्ठ
भाग-1
ख्या
126
533
541
127 128
542
129
542
130
542
131
542
543
132 133
544
545
134 135 136
545 545 571
.137
एवं भाग 5 पृ. 382 में भी है।
571
138 139
574
140
574
141
574
142
574 575
143
144
575
145
575
146
581
147
585 594
148
149
594
150
594
151
597
152
597 597
153
एवं भाग 6 पृ. 1154 में भी है।
154
597
155
156
597 598 598
157
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/159
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति
क्रमः
158
159
160
161
162
163
164
165
166
167
168
169
170
171
172
173
174
175
176
177
178
179
180
181
182
183
184
185
186
187
188
189
पृष्ठ
संख्या
598
598
598
598
598
607
608
610
675
675
677,678,679
679
679
684
691
691
696
699
706
706
706
706
706
706
706
709
753
754
762
772
772
772
भाग-1
भाग 3 पृ. 334 में भी है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /160
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ
भाग-1
सूक्ति क्रम
संख्या
190 191 192 193
773 777,784 777,784
778
194 195
780 780
196
780
197
780
198
781
199
784
200
795
201 202
803 803
203
804
204
806
205 206 207 208 209 210
806 819 819 835 835 836 840 840
211
212 213
840
214
840
215
216
217
218
844 844 844 844 844 845 850
219
एवं भाग 2 पृ. 178 में भी है।
220
221
आभयान सवेद को सुणास अण्ड
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/161
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
भाग-1
सूक्ति क्रम
संख्या
222
850
867
एवं भाग 4 पृ. 2682 में भी है ।
223 224
872
872
225 226
227
एवं भाग 7 पृ. 1004 एवं 1165 में भी है।
228 229 230 231 232 233
234
235
236 237
872 873 873 873 873 873 874 874 874 874 874 875 875 875 875 875 878, 879 878, 879 878 878 879
238
239
240
241
242
243
244 245 246 247 248 249 250
882
एवं भाग 4 पृ. 2457 में भी है ।
884 884
887
एवं भाग 2 पृ. 549 में भी है । एवं भाग 7 पृ. 647 में भी है।
251
887
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/162
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
१
चतुर्थ
परिशिष्ट जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि अनुक्रमणिका
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन एवं जैनेतर ग्रन्थः गाथा/श्लोकादि
अनुक्रमणिका अन्तकृदृशा सूत्र सूक्ति क्रम
अभिधान चिन्तामणि एवं कामन्दकीय नीतिसार सूक्ति क्रम अध्ययन श्लोक ___38 2 210-211 एवं कामन्दकीय नीतिसार 4/21
अन्ययोग व्यवच्छेदिका सूक्ति क्रम, श्लोक चरण ___955 प्रथम-द्वितीय
अष्टक प्रकरण सूक्ति क्रम अष्टक श्लोक ___373 6 247 165
आचारांग सूत्र सूक्ति क्रम प्रथम श्रुतस्कंध अध्ययन उद्देशक सूत्र गाथा चरण ।
1 1 7 56 - - 1 2 2 29 - -
32
184
160 18 157
1 1
2 3
4 2 3
3 ___ 1
4 2
156
85 115 123 123 133 165 67
- 7 तृतीय 10 प्रथम-द्वितीय 10 तृतीय-चतुर्थ
155
- 35
1 1
5 9
- -
- चतुर्थ
151
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/165
Page #174
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________________
सूक्तिक्रम द्वितीय श्रुत चूलिका अध्ययन सूत्र
238
2
3
15
778
127
2
784
सूक्ति क्रम
22
185
13
11
189
187
206
207
3
15
आगमीय सूक्तावली
204
205
57
58
60
64
59
61
सूक्ति क्रम
103
104
145
पृष्ठ
19
19
72
आप्तमीमांसा
सूक्ति क्रम
97
ऋग्वेद पुरुष सूक्त
श्लोक
10/90/2
सूक्ति क्रम
197
उत्तराध्ययन सूत्र
गाथा
अध्ययन
2
2
2
2
2
2
4
4
11
11
20
20
20
28822
श्लोक
59-60
20
20
20
15
17
26
26
30
33
1
1
6
9
11
12
36
37
37
पूरी गाथा
तृतीय- चतुर्थ
चतुर्थ
तृतीय- चतुर्थ
पूरी गाथा
प्रथम-द्वितीय तृतीय- चतुर्थ
चतुर्थ
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/166
सूक्तानि
23 (113)
23 (113)
(76-2-10)
333
38
चरण
चतुर्थ
तृतीय- चतुर्थ
प्रथम-द्वितीय
तृतीय- चतुर्थ
तृतीय- चतुर्थ
प्रथम-द्वितीय
प्रथम
द्वितीय
I│
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
सूक्ति क्रम
63
62
66
67
69
68
71
70
72
149
150
148
31
30
555 + + + = +5
56
44
45
46
48
49
47
51
50 52
अध्ययन
22222222222222222335 mm mm mmm
20
20
20
20
20
20
20
20
20
20
29
29
29
29
29
30
30
35
35
35
35
35
35
35
गाथा
39
40
42
44
45
47
48
50
51
52
32
32
32
50
50
5-6
6
3
4
7
13
15
17
18
19
21
चरण
पूरी गाथा
पूरी गाथा
तृतीय- चतुर्थ
पूरी गाथा
पूरी गाथा
पूरी गाथा
प्रथम-द्वितीय
तृतीय- चतुर्थ
तृतीय- चतुर्थ तृतीय- चतुर्थ
गद्य आलापक
गद्य आलापक
गद्य आलापक
गद्य आलापक
गद्य आलापक
गद्य आलापक
तृतीय- चतुर्थ
तृतीय - चतुर्थ
पूरी गाथा
पूरी गाथा
तृतीय
तृतीय तृतीय- चतुर्थ
पूरी गाथा
पूरी गाथा
पूरी गाथा
उत्तराध्ययन निर्युक्ति
सूक्ति क्रम
अध्ययन
7:
12
2
105
3
106
3
सटीक
सटीक
सटीक
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________________
ओघ नियुक्ति ( भाष्य सह) सूक्ति क्रम गाथा चरण 897
प्रथम
7 तृतीय चतुर्थ कल्प सुबोधिका टीका सूक्ति क्रम क्षण _183 1 ___ 1867
कुलक संग्रह सूक्ति क्रम गाथा ___172 8 गुणानुराग कुलक
___ छान्दोग्य उपनिषद् सूक्ति क्रम अ0 श्लोक चरण 244 8 - प्रथम चरण 245 8 - पूरा श्लोक गच्छाचार पइण्णय [प्रकीर्णक ] टीका
सूक्ति क्रम अधिकार श्लोक ___ 176 2 -
चाणक्य नीति सूक्ति क्रम अध्याय सूत्र 298
7 तत्त्वार्थ सूत्र सूक्ति क्रम अध्याय सूत्र 22578
तत्त्वार्थाधिगम भाष्य सूक्ति क्रम अध्याय श्लोक ___165 107 एवं स्याद्वाद मंजरी पृ. 329
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/168
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--------------------------------------------------------------------------
________________
43
1
872
तित्थोगाली पइण्णय [प्रकीर्णक]
सूक्ति क्रम गाथा 143
1201 1207
870 101
871 102
___ दशवैकालिक सूत्र सूक्ति क्रम अध्ययन उद्देशक गाथा चरण 1548 - 16 तृतीय 152 __9 1 17 द्वितीय 14 10 - 11 चतुर्थ 202 1 __ - - सटीक
___ दशवैकालिक नियुक्ति
सूक्ति क्रम गाथा
सूत्र -
- -
9
209
117
137
262 116
264 118
265
301 द्वात्रिंशत् - द्वात्रिंशिका सटीक सूक्ति क्रम श्लोक 84
1 धर्मबिन्दु सटीक सूक्ति क्रम अध्याय
श्लोक
[107] 33
34
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/169
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--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्मरत्न प्रकरण सटीक सूक्ति क्रम श्लोक
181
180
179
178 177
धर्मसंग्रह सटीक सूक्ति क्रम अधिकार
24
213 212
211
1902
13
173
श्लोक 15
नलचम्पू सूक्ति क्रम अध्याय 2083 __ 3
निशीथ भाष्य सूक्ति क्रम
गाथा 2794
144
146
2847
83
6243 निशीथ भाष्य एवं बृहत्कल्प भाष्य सूक्ति क्रम गाथा _142 2790 निशीथ भाष्य एवं
2711 बृहत्कल्प भाष्य
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/170
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--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रश्न व्याकरण सूत्र आस्त्रव द्वार अध्ययन
| सूक्ति क्रम
सूत्र
199
192
191
193
198
124
125
126
123
166 167
168 - 169
170
• 194
संवर द्वार
224
226 227
229
234
235
236
232. 233 237
239
240
241
136
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/171
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिक्ति क्रम
संवर द्वार
अध्ययन
135
133
134
132
131
129
130
230
228
सटीक पद्म पुराण सूक्ति क्रम अ. श्लोक 195 19 252 एवं हारिभद्रीयाष्टक 4/6
पञ्चसंग्रह सटीक सूक्ति क्रम
श्लोक ___ 188 - 4 द्वार
पञ्चतन्त्र सूक्ति क्रम अ. श्लोक ___201 2 124 115
124 प्रशमरति प्रकरण । सूक्ति क्रम 209
28 223 219 - 152
प्रवचनसारोद्धार सूक्ति क्रम द्वार 112
67 पिण्ड नियुक्ति वृत्ति सूक्ति क्रम 250
श्लोक
131
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/172
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________________
ब्रह्मबिन्दूपनिषद् सूक्ति क्रम श्लोक 196
___12 बृहत्कल्प सूत्र (बारसा सूत्र) सूक्ति क्रम सूत्र पृष्ठ
2486 0 151 249 59 151
बृहत्कल्प भाष्य सूक्ति क्रम . गाथा चरण 86 245 - 85 247 - 87 249 - 139 2712 प्रथम 140
2711
2712 द्वितीय बृहदावश्यक भाष्य सूक्ति क्रम
गाथा 174
4441 175
4464
141
4584
सूक्ति क्रम 119 120
40
4585
5108 भगवती सूत्र शतक उद्देशक सूत्र 1 3 7(1)
9 28
16(2)
9 26 भगवद्गीता सूक्तिक्रम अध्याय श्लोक 121
1 . 16 113
2 114
13
23
2
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/173
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________________
सूक्ति क्रम
_16
श्लोक
महानिशीथ सूत्र अध्ययन गाथा . चरण
6 144 प्रथम-द्वितीय ___ 6 148 तृतीय-चतुर्थ
6 150 पूरी गाथा
___ योगबिन्दु सूक्ति क्रम _163
181 164 34
358 योगदृष्टि समुच्चय सूक्ति क्रम श्लोक ___20 117 एवं मनुस्मृति 4/226
योगशास्त्र सूक्ति क्रम प्रकाश गाथा
188
74
75 76 215
216 217 218 221
222 व्यवहार भाष्य पीठिका सूक्ति क्रम अध्ययन गाथा 147 7 215 21 - 76 153 - 77
विक्रमचरित्र सूक्ति क्रम सर्ग प्रकरण 210 1 1
8 1 3 1827 95
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/174
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________________
195
सन्मति तर्क प्रकरण सूक्ति क्रम काण्ड श्लोक
98 3 60 993 63
सुभाषित श्लोक संग्रह सूक्ति क्रम श्लोक
406
सूत्रकृतांग सूत्र सटीक [सूक्ति क्रम प्रथम श्रुत, अध्ययन उद्देशक गाथा चरण 107
6 तृतीय-चतुर्थ 109
1 2 17 तृतीय-चतुर्थ 108
19 प्रथम-द्वितीय 110
22 पूरी गाथा 111
23 पूरी गाथा 243
9 तृतीय-चतुर्थ 242
___10 पूरी गाथा 78
____6 तृतीय-चतुर्थ 1 7 तृतीय-चतुर्थ
9 पूरी गाथा _10 प्रथम द्वितीय
___ 10 तृतीय-चतुर्थ 1 11 तृतीय
2 19 तृतीय-चतुर्थ 122
___11 प्रथम 94
2 3 14 द्वितीय ।
___ 26 प्रथम द्वितीय 171
____ 22 पूरी गाथा 220 1 8
- - पूरी गाथा 10
- 16 तृतीय-चतुर्थ . 231
- सटीक एवं प्रश्न
व्याकरण सटीक 1 संवर द्वार
M
82
138
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/175
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________________
36
चतुर्थ
। सक्ति क्रम प्रथम श्रुत, अध्ययन उद्देशक गाथा चरण
1 12 - 11 93 1 15 - 11 प्रथम 54 1 15 - 12 प्रथम-द्वितीय 42 2 2 - 38 गद्य आलापक
- 1 2 . 1 246
स्थानांग सूत्र सूक्ति क्रम अध्ययन स्थान (ठाणा) उद्देशक सूत्र 203 44
326 200
527
251
161
649
162
649
159
649
158
649
88
8 ज्ञानसाराष्टक सूक्ति अष्टक श्लोक 91 26 2 90 263 92 265
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/176
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--------------------------------------------------------------------------
________________
888888856353589338500
88003888888888
पञ्चम
परिशिष्ट 'सूक्ति-सुधारस' __ में प्रयुक्त संदर्भ-ग्रंथ सूची
388
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
i Foo
सन्दर्भ ग्रन्थ-सूची क्रमांक “सूक्ति-सुधारस" में प्रयुक्त जैन तथा अन्य ग्रन्थ 1. अन्तकृदृशा सूत्र - 2. अभिधान चिन्तामणि (कोष) - हेमचन्द्राचार्य - व्याख्याकार - हरगोविन्द
शास्त्री, चौरवम्भा विद्या भवन, वाराणसी 3. अन्ययोग व्यवच्छेदिका - हेमचन्द्राचार्य
अष्टक प्रकरण – श्री हरिभद्र सूरि, श्री महावीर जैन विद्यालय, गोवालिया,
टैंक रोड, बम्बई, प्रथम आवृत्ति, सन् 1940 5. आचारांग सूत्र – पंचम गणधर सुधर्मास्वामी, सम्पादक - मुनि जम्बूविजय,
श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई-400036 प्रथम संस्करण, ई सन् 1977
आचारांग सूत्र (शीलांक वृत्ति) प्रकाशक - आगमोदय समिति, सूरत 7. आगमीय सूक्तावलि -
आप्तमीमांसा (देवागम) - स्वामी समन्तभद्राचार्य, हिन्दी टीकाकार - पं0 जयचन्द्रजी, मुनि अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला समिति, कालबादेवी
रोड, बम्बई, प्रथम आवृत्ति । 9. उत्तराध्ययन सूत्र - 10. उत्तराध्ययन-नियुक्ति -
ओघनियुक्ति - आचार्य भद्रबाहु स्वामी (द्रोणाचार्यवृत्ति), आचार्य
विजयदानसूरि जैन ग्रन्थमाला । 12. कल्प सुबोधिका टीका 13. कामन्दकीय नीतिसार -
कुलक संग्रह - पूर्वाचार्य विरचित; प्रका. गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय,
गांधी रस्ता अहमदाबाद (गुज.)
गच्छाचार पइण्णय टीका - 16. चाणक्यनीति (चाण्क्यशास्त्र) 17. छान्दोग्योपनिषद् - गीताप्रेस, गोरखपुर । 18. तत्त्वार्थ सूत्र - आचार्य उमास्वाति, विवे. पं. सुखलालजी संघवी,
सम्पा. - पं. कृष्णचन्द्र जैनागम दर्शनशास्त्री, एवं पं. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/179
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
दलसुखमालवणिया, श्रीमोहनलाल दीपचन्द चोकसी, जैनाचार्य श्री आत्मानन्द जन्म शताब्दि स्मारक ट्रस्ट बोर्ड, बम्बई - 3, प्रथम
संस्करण, 1996 । 19. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य - स्वोपज्ञवृत्ति सहित
तित्थोगाली पइण्णय - 21. दशवैकालिक नियुक्ति भाष्य -
दशवैकालिक सूत्र - श्री शय्यंभवसूरि, द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिका - आचार्य सिद्धसेन धर्मबिन्दु - आचार्य हरिभद्र - श्री मुनिचन्द्र सूरि रचित टीका,
टीकानुसारी-हिंदी भाषान्तर, सार्वजनिक पुस्तकालय, नागजीभूधरकी
पोल-अहमदाबाद 25. धर्मरत्नप्रकरण सटीक - 26. धर्मसंग्रह सटीक - ' 27. निशीथ भाष्य 28. प्रश्न व्याकरण सूत्र - (पण्हावागरणं) - 29. पञ्चसंग्रह सटीक
पद्म पुराण - पञ्चतन्त्र - पिंड नियुक्ति
बृहदावश्यक भाष्य - 34. बृहत्कल्प सूत्र - 35. बृहत्कल्प भाष्य - __भगवती सूत्र - पंचमगणधर सुधर्मास्वामी
भगवद्गीता – गीताप्रेस, गोरखपुर ।
सुभाषित श्लोक संग्रह - 39. महानिशीथ सूत्र - 40. मनुस्मृति 41. योगबिन्दु - आचार्य हरिभद्र सूरि, सेठ ईश्वरदास मूलचंद, श्री जैनग्रन्थ
प्रकाशक सभा, अहमदाबाद, ई. सन् 1940 42. योगदृष्टि समुच्चय - आचार्य हरिभद्रसूरि, (देखिए श्री हरिभद्रसूरि ग्रन्थ
संग्रह)। वाचस्पत्याभिधान (कोष)
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/180
36.
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
43.
44.
45.
46.
47.
विक्रम चरित्र
व्यवहार भाष्य - पीठिका
सन्मति तर्कप्रकरण – आचार्य सिद्धसेन दिवाकर - श्री अभयदेवसूरि प्रणीत तत्त्वबोध विधायिनी व्याख्या, श्री जैनग्रन्थ प्रकाशन सभा, भावनगर, विक्रम संवत् 1996 |
सूत्रकृतांग सूत्र - (श्रीमद् शीलांकाचार्य वृत्तियुक्तम्) सम्पादक एवं संशोधक मुनि श्री जम्बूविजयजी, मोतीलाल बनारसीदास, इण्डोलाजिक ट्रस्ट, बंगलारोड, जवाहरनगर, दिल्ली 7 प्रथम संस्करण, सन् 1978
स्याद्वादमंजरी - ( कारिका टीका सह) - हेमचन्द्राचार्य - अन्ययोग व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका स्तवन टीका मल्लिषेण सूरि प्रणीता - सम्पा. - डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, श्री परमश्रुत प्रभावक मण्डल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास, तृतीय आवृत्ति, ई0 सन् 1970 1 स्थानांग सूत्र (ठाणांग)
शास्त्रावार्ता समुच्चय
48.
49.
50. ज्ञानसाराष्टक
--
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उपाध्याय यशोविजय, केशरबाई ज्ञानभंडार संस्थापक, संघवी नगीनदास करमचन्द, प्रथम आवृत्ति, विक्रम सं. 1994 |
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/181
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विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय
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विश्वपूज्य प्रणीत सम्पूर्ण वाङ्मय अभिधान राजेन्द्र कोष [1 से 7 भाग] अमरकोष (मूल) अघट कुँवर चौपाई अष्टाध्यायी अष्टाह्निका व्याख्यान भाषान्तर अक्षय तृतीया कथा (संस्कृत) आवश्यक सूत्रावचूरी टब्बार्थ उत्तमकुमारोपंन्यास (संस्कृत) उपदेश रत्नसार गद्य (संस्कृत) उपदेशमाला (भाषोपदेश) उपधानविधि उपयोगी चौवीस प्रकरण (बोल) उपासकदशाङ्गसूत्र भाषान्तर (बालावबोध) एक सौ आठ बोल का थोकड़ा कथासंग्रह पञ्चाख्यानसार कमलप्रभा शुद्ध रहस्य कर्तुरीप्सिततमं कर्म (श्लोक व्याख्या) करणकाम धेनुसारिणी कल्पसूत्र बालावबोध (सविस्तर) कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी कल्याणमन्दिर स्तोत्रवृत्ति (त्रिपाठ) कल्याण (मन्दिर) स्तोत्र प्रक्रिया टीका काव्यप्रकाशमूल कुवलयानन्दकारिका केसरिया स्तवन खापरिया तस्कर प्रबन्ध (पद्य) गच्छाचार पयन्नावृत्ति भाषान्तर गतिषष्ठया - सारिणी .
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/185
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ग्रहलाघव चार (चतुः) कर्मग्रन्थ - अक्षरार्थ चन्द्रिका - धातुपाठ तरंग (पद्य) चन्द्रिका व्याकरण (2 वृत्ति) चैत्यवन्दन चौवीसी चौमासी देववन्दन विधि चौवीस जिनस्तुति चौवीस स्तवन ज्येष्ठस्थित्यादेशपट्टकम् जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति बीजक (सूची) जिनोपदेश मंजरी तत्त्वविवेक तर्कसंग्रह फक्किका तेरहपंथी प्रश्नोत्तर विचार द्वाषष्टिमार्गणा - यन्त्रावली दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रचूर्णी दीपावली (दिवाली) कल्पसार (गद्य) दीपमालिका देववन्दन दीपमालिका कथा (गद्य) देववंदनमाला घनसार - अघटकुमार चौपाई ध्रष्टर चौपाई धातुपाठ श्लोकबद्ध धातुतरंग (पद्य) नवपद ओली देववंदन विधि नवपद पूजा नवपद पूजा तथा प्रश्नोत्तर नीतिशिक्षा द्वय पच्चीसी पंचसप्तति शतस्थान चतुष्पदी पंचाख्यान कथासार पञ्चकल्याणक पूजा
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/186
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पञ्चमी देववन्दन विधि
पर्यूषणाष्टका
पाइय सद्दम्बुही कोश ( प्राकृत) पुण्डरीकाध्ययन सज्झाय प्रक्रिया कौमुदी
प्रभुस्तवन - सुधाकर प्रमाणनय तत्त्वालोकालंकार
प्रश्नोत्तर पुष्पवाटिका
प्रश्नोत्तर मालिका
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व्याख्यान भाषान्तर
प्रज्ञापनोपाङ्गसूत्र सटीक ( त्रिपाठ) प्राकृत व्याकरण विवृत्ति
प्राकृत व्याकरण (व्याकृति ) टीका प्राकृत शब्द रूपावली
बाव्रत संक्षिप्त टीप बृहत्संग्रहणीय सूत्र चित्र (टब्बार्थ) भक्तामर स्तोत्र टीका (पंचपाठ) टब्बार्थ)
भक्तामर ( सान्वय
भयहरण स्तोत्र वृत्ति
भर्त्तरशतकत्रय
महावीर पंचकल्याणक पूजा
महानिशीथ सूत्र मूल (पंचमाध्ययन)
मर्यादापट्ट
मुनिपति (राजर्षि) चौपाई
रसमञ्जरी काव्य
राजेन्द्र सूर्योदय
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लघु संघयणी (मूल)
ललित विस्तरा
वर्णमाला (पाँच कक्का)
वाक्य-प्रकाश
बासठ मार्गणा विचार
विचार
प्रकरण
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विहरमाण जिन चतुष्पदी स्तुति प्रभाकर स्वरोदयज्ञान - यंत्रावली सकलैश्वर्य स्तोत्र सटीक सद्य गाहापयरण (सूक्ति-संग्रह) सप्ततिशत स्थान-यंत्र सर्वसंग्रह प्रकरण (प्राकृत गाथा बद्ध) साधु वैराग्याचार सज्झाय सारस्वत व्याकरण (3 वृत्ति) भाषा टीका सारस्वत व्याकरण स्तुबुकार्थ (1 वृत्ति) सिद्धचक्र पूजा सिद्धाचल नव्वाणुं यात्रा देववंदन विधि सिद्धान्त प्रकाश (खण्डनात्मक) सिद्धान्तसार सागर (बोल-संग्रह) सिद्धहैम प्राकृत टीका सिंदूरप्रकर सटीक सेनप्रश्न बीजक शंकोद्धार प्रशस्ति व्याख्या षड् द्रव्य विचार षड्द्रव्य चर्चा षडावश्यक अक्षरार्थ शब्दकौमुदी (श्लोक) 'शब्दाम्बुधि' कोश शांतिनाथ स्तवन हीर प्रश्नोत्तर बीजक हैमलघुप्रक्रिया (व्यंजन संधि) होलिका प्रबन्ध (गद्य) होलिका व्याख्यान त्रैलोक्य दीपिका - यंत्रावली ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/188
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लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कतियाँ
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लेखिकाद्वय की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ
आचाराङ्ग का नीतिशास्त्रीय अध्ययन (शोध प्रबन्ध) ___ लेखिका : डॉ. प्रियदर्शनाश्री, एम. ए. पीएच.डी. २. आनन्दघन का रहस्यवाद (शोध प्रबन्ध) | लेखिका : डॉ. सुदर्शनाश्री, एम. ए., पीएच.डी. ३. अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस (प्रथम खण्ड) ४. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति सुधारस (द्वितीय खण्ड) ५. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (तृतीय खण्ड) ६. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (चतुर्थ खण्ड) |७. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (पंचम खण्ड) ८. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (षष्ठम खण्ड) ९. अभिधान राजेन्द्रकोष में, सूक्ति-सुधारस (सप्तम खण्ड) १०. 'विश्वपूज्य' : (श्रीमद्राजेन्द्रसूरिः जीवन-सौरभ) (अष्टम खण्ड) ११. अभिधान राजेन्द्र कोष में, जैनदर्शन वाटिका (नवम खण्ड) १२. अभिधान राजेन्द्र कोष में, कथा-कुसुम (दशम खण्ड) १३. जिन खोजा तिन पाइयाँ (प्रथम महापुष्प) | १४. जीवन की मुस्कान (द्वितीय महापुष्प) | १५. सुगन्धित-सुमन(FRAGRANT-FLOWERS) (तृतीय महापुष्प)
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प्राप्ति स्थान :
श्री मदनराजजी जैन द्वारा - शा. देवीचन्दजी छगनलालजी आधुनिक वस्त्र विक्रेता, सदर बाजार,
पो. भीनमाल-३४३०२९ जिला-जालोर (राजस्थान)
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अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/191
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राजेन्ट कोषा
'अभिधान राजेन्द्र कोष' : एक झलक
विश्वपूज्य ने इस बृहत्कोष की रचना ई. सन् 1890 सियाणा (राज.) में प्रारम्भ की तथा 14 वर्षों के अनवरत परिश्रम से ई. सन् 1903 में इसे सम्पूर्ण किया। इस विश्वकोष में अर्धमागधी, प्राकृत और संस्कृत के कुल 60 हजार शब्दों की व्याख्याएँ हैं। इसमें साढे चार लाख श्लोक हैं।
इस कोष का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें शब्दों का निरुपण अत्यन्त सरस शैली में किया गया है । यह विद्वानों के लिए अविरलकोष है, साहित्यकारों के लिए यह रसात्मक है, अलंकार, छन्द एवं शब्द-विभूति से कविगण मंत्रमुग्धहो जाते हैं । जन-साधारण के लिए भी यह इसी प्रकार सुलभ है, जैसे–रवि सबको अपना प्रकाश बिना भेदभाव के देता है। यह वासन्ती वायु के समान समस्त जगत् को सुवासित करता है। यही कारण है कि यह कोष भारत के ही नहीं, अपितु समस्त विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में उपलब्धहै।
विश्वपूज्य की यह महान् अमरकृति हमारे लिए ही नहीं, वरन् विश्व के लिए वन्दनीय, पूजनीय और अभिनन्दनीय बन गई है। यह चिरमधुर और नित नवीन
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________________ विश्वपूज्य श्रीमद् राजेन्द्रसूरिजी गुरु मन्दिर (भीनमाल) विश्वपूज्य गुरुदेवश्री द्वारा प्रदत्त अभिधान राजेन्द्र कोष : अलौकिक चिन्तन अ अविकारी बनो, विकारी नहीं ! भि भिक्षुक (श्रमण) वनो, भिखारी नहीं ! धार्मिक बनो, अधार्मिक नहीं ! नम्र वनो, अकड़ नहीं ! रा राम बनो, राक्षस नहीं ! जे जेताविजेता बनो, पराजित नहीं ! न्यायी बनो, अन्यायी नहीं ! द्रष्टा बनो, दृष्टिरागी नहीं ! कोमल बनो, क्रूर नहीं ! षट्काय रक्षक बनो, भक्षक नहीं ! 1 hour