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77. दम्भ !
जइ वियणिगिणे किसे चरे,जइविय भुंजियमासमंतसो। जे इह मायादि मिज्जती, आगंता गब्भायऽणंत सो ॥ . - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/9 भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कृश एवं क्षीण कर डाले, किन्तु जो अन्दर में दम्भ रखता है, वह जन्म-मरण के अनन्त चक्र में भटकता ही रहता है । 78. जीवन-मरण
ताले जह बंधणच्चुते, एवं आउक्खयम्मि तुट्टती ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/6 जैसे बंधन से गिरा हुआ ताड़फल टूट जाता है, वैसे ही आयुष्य के क्षय होते ही प्राणी परलोक चला जाता है । 79. जीवन-क्षणभंगुर
पुरिसोरमपाव कम्मुणा, पलियंतं मणुयाण जीवियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/10 हे पुरुष ! तू जीवन की क्षणभंगुरता को जानकर शीघ्र ही पापकर्मों से मुक्त हो जा। 80. मोहकर्म संचयी
सन्ना इह काम मुच्छिया, मोह जंति नरा असंवुडा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 332]
- सूत्रकृतांग 1/2/1/10 जो मनुष्य इस संसार में आसक्त हैं, विषय-भोगों में मूर्छित हैं और हिंसा झूठ आदि पापों से निवृत्त नहीं है, वे मोहकर्म का संचय करते रहते हैं।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/76