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जन्म, जरा, मरण और भय से परेशान हुए तथा व्याधि - वेदना से ग्रसित मानव को जिन-वचन के अतिरिक्त इस संसार में कहीं पर भी शरण नहीं है। 220. अशाश्वत् क्या ?
अशाश्वतानि स्थानानि सर्वाणि दिवि चेह च । देवसुरमनुष्याणामृद्धयश्च सुखानि च ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 845] ___ - सूत्रकृतांग सूत्र सटीक 1/8
देव दानव और मानव के इस लोक व परलोक संबंधी समस्त सुख-वैभव अशाश्वत् हैं। 221. अपवित्र काया
रसासृङ्मांसमेदोऽस्थि - मज्जाशुक्रान्त्रवर्चसाम् । अशुचीनां पदं कायः, शुचित्वं तस्य तत्कुतः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 850]
- योगशास्त्र - 4/72 यह काया रस, रूधिर, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, शुक्र, तें और विष्टा आदि अपवित्र वस्तुओं की घररूप हैं । अत: उसमें पवित्रता कहाँ से हो सकती हैं। . 222. महामोह का प्रदर्शन
नवस्त्रोतः स्त्रवद्विस्त्र - रसनिस्यन्दपिच्छिले । देहे शौच संकल्पो, महन्मोह विजृम्भितम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 850]
- योगशास्त्र 4/70 देह के नौ द्वारों से सतत निकलते हुए दुर्गन्धित रस और उसके बहने से सने हुए गंदे शरीर में भी पवित्रता की कल्पना करना या अभिमान करना यह महामोह का प्रदर्शन है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/114