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माता-पिता, भ्राता-भगिनी और पुत्रादि के देखते-ही-देखते शरणहीन मनुष्य को स्वयं के कर्म यम के घर खींच ले जाते हैं। 217. मूढ़ मानव !
शोचन्ति स्वजनानऽन्तं नीयमानान् स्वकर्मभिः । नेष्यमाणं न शोचन्ति, नात्मानं मूढबुद्धयः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844] - धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार ।
- योगशास्त्र 4/63 अपने ही कर्मों से मृत्यु पाते स्वजनों को देखकर मूर्ख मनुष्य अफसोस करते हैं, परन्तु वे कर्म उन्हें भी कुछ ही समय में ले जाएँगे; इस बात का उन्हें बिल्कुल दु:ख नहीं होता। 218. अशरण - अनुप्रेक्षा
संसारे दुःखदावाग्नि - ज्वलद् ज्वाला करालिते । वने मृगार्भ कस्येव, शरणं नास्ति देहिनः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844] __ - धर्मसंग्रह सटीक 3 अधिकार
- योगशास्त्र 4/64 जैसे दावानल की सुलगती ज्वालाओं से युक्त भयंकर वन में हिरन के बच्चों का कोई शरण नहीं है वैसे ही दु:खरूपी दावाग्नि की सुलगती . ज्वालाओं से भयंकर इस संसार में (धर्म के अतिरिक्त) प्राणिओं का कोई
शरण नहीं है। 219. जिनवचन शरण
• जन्मजरामरणभयै - रभिद्रुते व्याधिवेदनाग्रस्ते । जिनवरवचनादन्य-त्र नास्ति शरणं क्वचिल्लोके ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 844]
एवं [भाग 2 पृ. 178]] - प्रशमरति प्रकरण 152
अभिधान राजेन्द्र 'कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/113