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________________ 161. आचरण-तत्परता सुयाता धम्माणं ओगिण्णताते उवधारणयाते अब्भुटुंतव्वं भवति । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 598] - स्थानांग 8/8/649 सुने हुए धर्म को ग्रहण करने, उस पर आचरण करने को तत्पर रहना चाहिए। 162. असहाय - आश्रय असंगिहीत परितणस्स संगिण्हणताते अब्भुटेयव्वं भवति। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 598] - स्थानांग 8/8/649 जो अनाश्रित एवं असहाय है - उन्हें सहयोग तथा आश्रय देने में सदा तत्पर रहना चाहिए। 163. अन्तःशोधन शुद्धयल्लोके यथा रत्नं जात्यं काञ्चनमेववा । गुणैः संयुज्यते चित्रैस्तद्वदात्माऽपि दृश्यताम् ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 607] - योगबिन्दु 181 लोक में जैसे शुद्ध किया हुआ संमार्जित - संशोधित या परिष्कृत किया हुआ उच्च जाति का रत्न या स्वर्ण विभिन्न गुणों से समासयुक्त हो जाता है, शोधण तथा परिष्कार से उसमें अनेक विशेषताएँ आ जाती हैं, उसी प्रकार जीव भी अन्त:शोधन के क्रम में सदनुष्ठान द्वारा अनेक उच्च गुण संयुक्त हो जाता है । इसपर चिन्तन पर्यालोचन करें। 164. पात्रता . अनीद्दशस्य च यथा न भोगसुखमुत्तमम् । अशान्तादेस्तथा शुद्धं नानुष्ठानं कदाचन ॥ अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/98
SR No.002316
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages202
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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