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- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 608]
- योगबिन्दु 188 जो पुरुष धनाढ्य, सुन्दर एवं युवा नहीं है वह उत्तम भोगों का आनन्द नहीं ले सकता, उसीतरह जो व्यक्ति अशान्त तथा निम्न है वह शुद्ध क्रियानुष्ठान - धर्मानुसंगत श्रेष्ठ कार्य नहीं कर सकता। 165. कर्मः दग्ध-बीज
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः । कर्म बीजे तथा दग्धे, न रोहति भवाङ्करः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 610] - एवं भाग 3 पृ. 334 - तत्त्वार्थाधिगम भाष्य 10/7 एवं
- स्याद्वाद मंजरी पृ. 329 जिसप्रकार बीज के जल जाने पर बीज से अंकुर पैदा नहीं होता, उसीप्रकार कर्म-बीज के जल जाने पर संसाररूपी अंकुर पैदा नहीं होता । 166. अब्रह्मचर्य
अबंभं......जरामरण रोग सोग बहुलं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 675]
- प्रश्न व्याकरण 1/4/13 अब्रह्मचर्य, वृद्धावस्था-बुढ़ापा, मृत्यु, रोग और शोक की प्रचुरतावाला है। 167. अब्रह्मचर्य विघ्न
अबंभं च.......तव संजम बंभचेर विग्धं भेयायतण बहु पमादमूलं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 675]
- प्रश्न व्याकरण 1/4/13 अब्रह्मचर्य तपश्चर्या, संयम और ब्रह्मचर्य के लिए विघ्न स्वरूप है और सदाचार - सम्यक् चारित्र के विनाशक प्रमाद का मूल है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/99