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ज्यों - ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है त्यों - त्यों चारित्र की हानि होती है। 143. किञ्चित् कषाय से चारित्र - हनन
जं अज्जियं चरित्तं, देसूणाए वि पुव्व कोडिए । तं पिय कसायमित्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575] ___ - तित्थोगाली पइण्णय 1201 - निशीथ भाष्य 2793
बृहत्कल्प भाष्य 2715 देशो कोटि पूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्ज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है। 144. शीतगृह - सम आचार्य
रागद्दोस विमुक्को, सीयघर समो आयरिओ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575]
- निशीथ भाष्य 2794 राग-द्वेष से रहित आचार्य भगवन्त शीतगृह [सब ऋतुओं में एक समान सुखप्रद] भवन के समान है । 145. अकषाय से मोक्ष
अकसायं निव्वाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 575]
- आगमीय सूक्तावलि पृ. 72, बृहत्कल्पलोकोक्तयः (76-2-10)
अकषाय [वीतरागता] ही निर्वाण है । 146. घोर अज्ञानी
तमतिमिर पडल भूतो पावं चिंतेइ दीह संसारी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग | पृ. 581]
- निशीथ भाष्य 2847 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/94