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45. श्रमण-निवास
मणोहरं चित्तहरं, मल्लधूवेण वासियं । सकवाडं पंडुरूल्लोयं, मणसा वि न पत्थए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 280]
- उत्तराध्ययन 35/4 मुनि ऐसे निवास की मन से भी इच्छा नहीं करे, जो मनोहर हो, जो चित्र युक्त हो, जो माला और धूप से सुगन्धित हो, दरवाजे सहित हो
और श्वेत चन्द्रवे वाला हो। 46. निर्ग्रन्थ-निवास
फासुयम्मि अणाबाहे, इत्थीहिं अणभिदुए । तत्थ संकप्पए वासं, भिक्खू परम संजए ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 280]
- उत्तराध्ययन 35/7 ' जो स्थान प्रासुक हो, किसी को पीडाकारी न हो एवं जहाँ स्त्रियों का उपद्रव न हो, परम संयमी साधु वहाँ निवास करे । 47. आहार क्यों ?
न रसट्टाए भुंजेज्जा जवणट्ठाए महामुणी ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 281]
- उत्तराध्ययन 35/17 - मुनि स्वाद के लिए अथवा शारीरिक धातुओं की वृद्धि के लिए आहार न करे, अपितु संयम रूप यात्रा के निर्वाह के लिए ही आहार ग्रहण
करे।
48. कंचन माटी जाने
समलेठु कंचणे भिक्खू ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 281] - एवं [भाग 7 पृ. 281] - उत्तराध्ययन 35/13
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/67