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67. निमित्तज्ञ
जे लक्खणं सुविणं पउंजमाणे । निमित्त कोऊहल संपगाढे ॥ कुहेड विज्जासवदार जीवी । न गच्छइ सरणं तंमि काले ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 326]
- उत्तराध्ययन 20/45 जो श्रमण लक्षण और स्वप्नों का शुभाशुभ फल बताता है, निमित्त भूकंपादि द्वारा भविष्य कहता है, जो कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है तथा इन असत्य एवं आश्चर्यकारिणी विद्याओं से अपना जीवन बीताता है वह कर्मफल भोगने के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। 68. आत्महन्ता
न तं अरी कंठ छेत्ता करेइ, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/48 गर्दन काटनेवाला शत्रु वैसा अनर्थ नहीं करता, जैसे बिगड़ा हुआ अपना मन [आत्मा] करता है। 69. अग्निवत् सर्वभक्षी - श्रमण
उद्देसियं कीयगडं नियागं, __ त मुंचई किंचि अणेसणिज्जं । अग्गिविवा सव्वभक्खी भवित्ताइओ
चुए गच्छइ कटु पावं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 327]
- उत्तराध्ययन 20/47 जो श्रमण औद्देशिक, क्रीतकृत, नियतपिंड और अनेषणीय किंचित मात्र भी पदार्थ नहीं छोड़ता, वह अग्निवत्-सर्व भक्षी होकर पापकर्म करके नरकादि में जाता है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/73