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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 219 ] -
उत्तराध्ययन 29/50 गद्य आलापक
दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है ।
32. संतुलित स्व- पर
जे अज्झत्थं जाणति से बहिया जाणति । जे बहिया जाणति से अज्झत्थं जाणति ॥ एतं तुलमसिं ।
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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] एवं [भाग 6 पृ. 1061] आचारांग 1/1/7/56
जो अपने अन्दर [अपने सुख-दु:ख की अनुभूति] को जानता है, वह बाहर [दूसरों के सुख-दुःख की अनुभूति] को भी जानता है । जो बाहर को जानता है, वह अन्दर को भी जानता है । इसतरह दोनों को, स्व और पर को एक तुला पर रखना चाहिए ।
33.
अध्यात्म- दोष
कोहं च माणं च तहेव मायं । लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] सूत्रकृतांग 1/6/26
क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चारों अन्तरात्मा के (अध्यात्म के) भयंकर दोष हैं ।
34.
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अध्यात्म-स्वरूप
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औचित्याद् वृत्तमुक्तस्य वचनात् तत्त्व- चिन्तनम् । मैत्र्यादि सारमत्यन्त- मध्यात्मं तद् विदो विदुः ॥ श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 227] योगबिन्दु - 358
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1 /63