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श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 87] बृहदावश्यक भाष्य 4584
जो अपने लिए चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए। जो अपने लिए नहीं चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए - बस इतना मात्र जिनशासन हैं । तीर्थंकरों का उपदेश है ।
6.
समाधि
सव्वारंभ परिग्गह-णिक्खेवो सव्वभूतसमया य । एक्कग्गमण समाही, - णया अह एत्तिओ मोक्खो | श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 87] बृहदावश्यक भाष्य 4585
सर्व प्रकार के आरंभ और परिग्रह का त्याग, सभी प्राणियों के प्रति समता तथा चित्त की एकाग्रता रूप समाधि - बस इतना मात्र मोक्ष है ।
विवेकान्ध
एकं हि चक्षुरमलं सहजोविवेकः, तद्वद्भिरेव सह संवसति द्वितीयम् ।
एतद् द्वयं भुवि न यस्य तत्त्वतोऽन्धस्,
7.
तस्यापमार्ग चलने खलु कोऽपराधः ॥
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 1 पृ. 105] एवं अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 5 पृ. 70] आचारांग सटीक 1/2/3
धर्मरत्नप्रकरण सटीक 1/17/184
एक पवित्र नेत्र तो है सहज विवेक, दूसरा है - विवेकी जनों के
साथ निवास । संसार में ये दोनों आँखें जिसके नहीं है, वह वस्तुतः अन्धा
। अगर वह कुमार्ग पर चलता है, तो अपराध ही क्या है ?
8.
किञ्चित् श्रेयस्कर !
अकरणान्मन्दं करणं श्रेयः ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस खण्ड-1 /56