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172. अभ्यास - तद्रूपता
जं अब्भासइ जीवो, गुणं च दोसं च एत्थ जम्मम्मि । तं पावइ परलोए, तेण य अब्बास जोएण ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 691] . - श्री कुलक संग्रह - गुणानुराग कुलक 8
इस संसार में जीव गुण या दोष जिसका परिशीलन करता है [पुन: पुन: अभ्यास करता है, वह तद्प हो जाता है अर्थात् उसके अन्त:करण में वह संस्कार बैठ जाता है जिसका परिणाम भवान्तर में वह उसीको प्राप्त करता है । गुणग्राही पुरुष गुणी ही होता है और दोषग्राही पुरुष दोषी होता है । 173. अभ्यास से सर्व-सुलभ
अभ्यासेन क्रियाः सर्वाः, अभ्यासात् सकलाः कलाः। अभ्यासाद्ध्यान मौनादि, किमभ्यासस्य दुष्करम् ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 691]
- धर्मसंग्रह सटीक 2 अधिकार अभ्यास से सब क्रियाएँ, अभ्यास से सब कलाएँ और अभ्यास से ही ध्यान, मौन आदि होते हैं । संसार में ऐसी क्या बात है, जो अभ्यास से साध्य न हो ? अर्थात् अभ्यास से समस्त कार्य सिद्ध हो सकते हैं । 174. विनय
धम्मस्स मूलं विणयं वयन्ति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 696]
- बृहदावश्यक भाष्य 4441 धर्म का मूल विनय कहा गया है। 175. संघ, संघ नहीं !
जहिणत्थिसारणा वारणाय पडिचोवायणाच गच्छम्मि। सो उअगच्छो गच्छो संजम कामीण मोत्तव्वो॥ __- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 699] अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/101