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20. पुण्य-कर्म
वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च । अन्न प्रदानमेतत्तु पूर्त तत्त्व विदो विदुः ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 180] __- मनुस्मृति 4/226
- योगदृष्टि समुच्चय - 117 वापी, कूप, सरोवर तथा देवमंदिर बनवाना, अन्न का दान देना पूर्त-पुण्य कर्म है, ऐसा ज्ञानीजन कहते हैं। 21 बुद्धियुक्त वाणी
अचक्खु ओवनेयारं, बुद्धिं अणेसए गिरा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 181]
- व्यवहार भाष्य पीठिका 76 अंधा व्यक्ति जिसप्रकार पथ-प्रदर्शक की अपेक्षा रखता है, उसीप्रकार वाणी, बुद्धि की अपेक्षा रखती है। 22. ज्ञानी-अखिन्न
नाणी नो परिदेवए। - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 190]
एवं [भाग 4 पृ. 2146]
- उत्तराध्ययन 2/15 ज्ञानी खेद नहीं करें। 23. भोजन अनुचित
अजीर्णे अभोजनमिति ।
- अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 1 पृ. 203]
- धर्मबिन्दु 21/43 अजीर्ण में भोजन उचित नहीं है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-1/60