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योगसार टीका।
सिद्धोंको नमस्कार । णिम्मलहाणपरिट्टिया कम्मकलंक डहेवि । अप्या लढूउ जेण परु तं परमप्प णवेवि ॥१॥
अन्वयार्थ (जण) जिन्होंने (णिम्मलझाणपरिडिया) शुद्ध ज्यानमें स्थित होते हुए ( कम्मकलंक डहेवि ) कोंक मलको जला डाला है (परु अप्पा लद्रउ ) तथा उत्कृष्ट परमात्म पदको पा लिया है ( त परमण णवेवि) उन सिद्ध परमात्माओंको नमस्कार करता हूं।
भावार्थ-यहाँ ग्रंथकाने मङ्गलाचरण करते हुए सर्व मिद्धाको नमस्कार किया है | सिद्धपद शुद्ध आत्माका पद हैं। जहां आत्मा अपने ही निजस्वभावमें सदा मगन रहता है । आत्मा शुद्ध आकासक समान निर्मल रहता है। आत्मा द्रव्य गुणोंका अभेद समूह है। सर्व ही गुण वहाँ पूर्ण प्रकाशिन रहने हैं | सिद्ध भगवान पूरा ज्ञानी हैं, परम वीतराग हैं, अतीन्द्रिय सुखके सागर हैं, अनन्तवीर्यधारी हैं, जड मंग रहित अमृतक है, सर्व कर्ममल रहित निमल है । अपनी ही स्वाभाविक परिणनिक की हैं, परमानन्द भाता हैं, परम कृतकृत्य है | सब इच्छाओंमे शून्य हैं, पुरूपाकार हैं। जिस शरीरम सिद्ध हुये हैं उस शरीरमें जसा आत्माका आकार था चैसा ही आकार विना संकोच विस्तारके सिद्धपदमें रहता है, प्रदेशोकी मापसे असंख्यात प्रदशी हैं | सिद्धको ही परमेश्वर. शिव, परमात्मा, परमदेव कहते हैं । वे एकाकी आत्मारूप है, जैसा मृलमें आत्मद्रव्य है वैसा ही सिद्ध स्वरूप है। सिद्ध परमात्मा अनंक हैं, जो संसारी आत्मा शुद्ध आत्माका अनुभव पूर्वक ध्यान करता है । मुनिपदमें अन्तर बाहर निग्रंथ होकर पहले धर्मभ्यान फिर शा
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