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विदेशो में जैन धर्म था। सर्वप्रथम तो यह संस्कृति भारत के अधिकांश भागों में फैली और तदुपरान्त वह भारत की सीमाओं को लांघकर विश्व के अन्य देशों में प्रचलित हुई और अन्ततोगत्वा उसका विश्वव्यापी प्रचार-प्रसार हुआ तथा वह सस्कृति कालान्तर में यूरोप, रूस, मध्य एशिया, लघु एशिया, मैसोपोटामिया, मिश्र, अमेरिका, यूनान, बैबीलोनिया. सीरिया. सुमेरिया, चीन, मंगोलिया, उत्तरी और मध्य अफ्रीका, भूमध्य सागर. रोम, ईराक, अरबिया, इथोपिया, रोमानिया, स्वीडन, फिनलैंड, ब्रह्मदेश, थाईलैंड, जावा, सुमात्रा, श्रीलंका आदि संसार के सभी देशो में फैली तथा वह 4000 ईसा पूर्व से लेकर ईसा काल तक प्रचुरता से संसार भर मे विद्यमान रही। इस श्रमण संस्कृति और सभ्यता का उत्स भारत था। ऋषभदेव के प्रति श्रमण और वैदिक संस्कृतियों ने ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्वं ने अपनी श्रद्धा और सम्मान अभिव्यक्त किया है। अपोलो (Appollo) (सूर्यदेव), Bull God (बाउल, वृषदेव), तेशेब (Tesheb), रेशेफ (Reshef) आदि नामो से वे विश्व के विभिन्न भागों में पूजे गये। सार्वभौम वरेण्यता एव विश्वऐक्य की दृष्टि से यह उदाहरण संभवतः विश्व का अप्रतिम उदाहरण है।
लगभग 2000 ईसा पूर्व मे और आर्यो के आक्रमण के समय मध्य एशिया और ईरानी क्षेत्र में वृत्रो का निवास था। अराकोसया और जेद्रोसिया मे वृत्र, दास, दस्यु. पणि, यदु और तुर्वस निवास करते थे। इन जातियों के अतिरिक्त सरस्वती और दृशद्वती नदियों के दोआब क्षेत्र और उसके पूर्व और दक्षिण मे अनु. द्रा, पुरु. मेद, मत्स्य, अजस्, शिग्र और यक्ष जातिया विद्यमान थीं। ये विभिन्न जातिया जैन धर्म (श्रमण धर्म) का पालन करती थीं।
आर्यों ने इन जातियों पर विजय प्राप्त की और 1400 ईसा पूर्व से लेकर 1100 ईसा पूर्व तक युद्धों मे उनके जनपद और महाजनपद नष्ट किए। मध्य एशिया की ही भाति आर्यगण अपने मूल निवास कश्यप सागर के उत्तरवर्ती क्षेत्र से लगभग 2500 ईसा पूर्व मे यूरोप की ओर गए थे। 1400 ईसा पूर्व से 1100 ईसा पूर्व तक भारत के मूल निवासी जैनों (श्रमणो) के साथ आर्यों के घारे सैनिक सघर्ष हुए जिनमें उन्ततोगत्वा भारत पर आर्यो की सैनिक विजय स्थापित हुई। इसके पूर्व आर्य लोग