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विदेशों में जैन धर्म
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ऋषभदेव की खड़गासन मूर्ति मिली है जो 175 फुट ऊंची है और उसके साथ 23 अन्य तीर्थकरों की छोटी प्रतिमायें पहाड़ को तराश कर बनाई गई थी। दूर-दूर के लाग यहां जैन तीर्थ यात्रा करने के लिए आते थे ।
चीनी यात्री ह्वेनसांग (686-712 ईसवी) के यात्रा विवरण के अनुसार, कपिश देश में 10 जैन देव मन्दिर हैं। यहां निर्ग्रन्थ जैन मुनि भी धर्म प्रचारार्थ विहार करते है। 15 काबुल में भी जैन धर्म का प्रसार था। वहां जैन प्रतिमायें उत्खनन में निकलती रहती है। (सी.जे. शाह "जैनिस्म इन नारदर्न इंडिया, लंदन, 1932 )
अध्याय 40
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हिन्देशिया, जावा, मलाया, कंबोडिया आदि देशों में जैन धर्म
भारतीय दर्शन और धर्म, पुरातत्व और साहित्य, सगीत और चिकित्सा के क्षेत्र में इन द्वीपों के सांस्कृतिक इतिहास और विकास में भारतीयों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इन द्वीपों के प्रारम्भिक आप्रावासियों का अधिपति सुप्रसिद्ध जैन महापुरुष कौंडिन्य था जिसका कि जैनधर्म कथाओं में विस्तार से उल्लेख हुआ है। जैन व्यापारियों की जावा द्वीप, मलाया द्वीप, सुमात्राद्वीप और अन्य ऐसे ही द्वीपों की यात्राओं के जैन वृत्तांत इतने रोचक और सही है कि विद्वानों ने उन्हें ऐतिहासिक महत्त्व का माना है। आरंम्भिक मध्य युग में जब भारतीय अधिवासी दक्षिण भारत से दक्षिण पूर्वी एशिया और हिन्देशिया के द्वीपों में बसने गये तो दक्षिण भारत में जैन धर्म का व्यापक प्रसार था। अतः स्वाभाविक है कि वे अपने साथ जावा और मलाया आदि में जैन धर्म भी ले गये। कैन्टी का भारतीय मूल का प्रथम राजवंश नागों से सम्बन्धित था जिनका कि जैन साहित्य में आरम्भ से ही विस्तृत उल्लेख मिलता है। कम्बोडिया में बसे भारतीय अधिवासियों के प्रथम पूर्वज कौडिन्य का उल्लेख अर्हत् (जैन) वैद्यों में किया गया है। इन द्वीपों के भारतीय अधिवासी विशुद्ध शाकाहारी थे। उन देशों से प्राप्त मूर्तियां तीर्थंकर मूर्तियों से मिलती-जुलती हैं। वहां 52 चैत्यालय भी मिले