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विदेशों में जैन धर्म
संवत् 84 का सबसे प्राचीन शिलालेख मिला है।
आज गौड़ी जी पार्श्वनाथ 102 के नाम से जो तीर्थ प्रसिद्ध है वह मूलतः सिन्ध में ही था और पाकिस्तान बनने से पहले तक विद्यमान था। प्राचीन तीर्थमाला में भी गौड़ी जी पार्श्वनाथ का मुख्य स्थान सिन्ध ही कहा है। साप्ताहिक समाचार पत्र धर्मयुग, आदि में जनवरी- मई 1972 में इन नगरों के जैन मन्दिर के चित्र छपे थे। तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ एवं चौबीसवें तीर्थकर महावीर का विहार सिन्धु-सौवीर के वीतमयपत्तन आदि में हुआ
था।
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जैन मुनियों और जैन आचार्यों के मंगल विहार निरन्तर इन क्षेत्रों में सदैव होते रहे। लगभग चार सौ विक्रम पूर्व में श्री यक्षदेव सूरि का सिन्ध में विहार और शिव नगर मे चौमासा हुआ था। उन्होंने इस जनपद में अनेक जैन मन्दिरों की प्रतिष्ठाये भी कराई थीं। कक्क सूरि भी इस क्षेत्र के अतिप्रभावक आचार्य थे। श्री कालिकाचार्य ने सिंध, पंजाब, ईरान आदि में मंगल विहार किये थे। इस सम्पूर्ण क्षेत्र में जैन धर्म की महती प्रभावना
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थी। आचार्य कक्क सूरि तृतीय ने लोहाकोट (लाहौर) में विक्रमी संवत् 157 से 174 तक चातुर्मास किया। इस युग प्रमुख आचार्यों के मंगल विहारो. चातुर्मासो आदि से यहां जैन धर्म की महती प्रभावना होती रही ।
पंजाब में लाहौर, मुल्तान, आदि में जैन धर्म का बडा प्रचार था और स्थान-स्थान पर जैन श्रावक और व्यापारी बसे हुए थे और सर्वत्र जैन मन्दिर विद्यमान थे। जैन मत्री वस्तुपाल और तेजपाल ने विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मूल स्थान (मुलतान) के सूर्य मन्दिर का स्वद्रव्य से जीर्णोद्धार कराया था। यहां पर अनेक जैन मन्दिर (दिगम्बर एवं श्वेताम्बर) विद्यमान थे।
पंजाब के सरहदी सूबे में बन्नू, कोहाट, लतम्बर, कालाबाग आदि में बड़ी सख्या में जैन परिवार आबाद थे जिनका काम व्यापार-व्यवसाय था । यहा यंतियो का गमनागमन निरन्तर बना रहा। इन शहरों में जैनियों के अलग मोहल्ले रहे हैं। उन्हीं में उनके मन्दिर और उपाश्रय रहे हैं। लतम्बर, कालाबाग में जैन प्रतिष्ठाओं के उल्लेख मिलते है। कोहाट और बन्नू में और डेरा गाजी खां, डेरा इस्माइल खां, गुजरांवाला आदि में जैन श्रावक और व्यापारी विद्यमान थे। पाकिस्तान बनने से पहले गुजरांवाला में