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विदेशों में जैन धर्म .यटगोहाली विहार की ख्याति जैन विद्या केन्द्र के रूप में भी थी जहां अनेक दिगम्बर मुनि रहकर ध्यान-अध्ययन किया करते थे तथा हजारों यात्री उनके दर्शनों और उनका उपदेश सुनने के लिए आया करते थे, तथा हजारों छात्र विद्याध्ययन के लिए आते थे।
इस विहार की ख्याति जैन विश्व विद्याकंन्द्र के रूप में गुप्तकाल तक रही। बाद में बंगाल के धर्मान्ध हिन्दू राजा शंशाक ने वटगोहाली जैन विहार को बुरी तरह क्षति पहुंचाई और इस पर ब्राह्मणों का अधिकार हो गया। बाद में कट्टर बौद्ध पालवंशी नरेश धर्मपाल ने 770 ईसवीं में वटगोहाली जैन विहार पर अधिकार करके उसे समीपस्थ सोमपुर स्थित विशाल बौद्ध विहार में सम्मिलित कर लिया। तदनन्तर मुस्लिम शासकों ने उसे नष्टभ्रष्ट कर दिया। वटगोहाली (आधुनिक पहाडपुर) से प्राप्त यह उपर्युक्त ताम्रपत्र ऐतिहासिक दृडिट से अत्यन्त महत्वपूर्ण है तथा उससे लगभग सात सौ वर्षों तक विभिन्न रूपों मे विश्वभर में प्रसिद्ध वटगोहाली जैन विहार के सम्बन्ध मे प्रकाश पड़ता है। बगलादेश के पहाडपुर से गुप्त सवत् 159 (478-79 ई) का जहा जैन अभिलेख प्राप्त हुआ है, वह स्थान बंगलादेश के राजशाही जिले में स्थित है। इस अभिलेख से इस स्थान पर तीर्थकरों की सैकडो प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना की बात सिद्ध होती है। विश्वयात्री युवान च्वाग जब बगलादेश से होकर भ्रमण कर रहा था उस समय बगाल के विभिन्न भागो मे निर्ग्रन्थ जैन सम्प्रदाय के साधुओं का सर्वत्र विहार होता था और सभी स्थानों पर जैन श्रावको का निवास था46 | बगाल क्षेत्र में जैन धर्म के प्रचार के सकेत आगे चलकर 9वीं शताब्दी में लिखे गये जैन ग्रन्थ कथाकोष से प्राप्त होते हैं। इसमें उल्लेख हैं कि जैन आचार्य भद्रबाहु उत्तरी बंगाल के देवकोट (कोटिवर्ष) मे पैदा हुए थे471 इसी प्रकार. बगाल के विभिन्न भागां की खुदाई से भी 9वी-10वी शताब्दी के बहुत से जैन अभिलेख एवं मूर्तियां आदि प्राप्त हुए हैं। इससे पता चलता है कि भारत के अन्य भागों की ही भाति बंगाल एवं बंगलादेश क्षेत्र में भी जैनधर्म की विभिन्न शाखाये अपने धर्म एवं संघ का प्रचार-प्रसार कर रही थीं।
बंगलादेश में राजशाही के पास सुरोहर नामक स्थान से जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की एक सबसे प्राचीन प्रतिमा प्राप्त हुई है जो