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विदेशों में जैन धर्म सर्वप्रथम धर्मचक्र तीर्थ की स्थापना की थी। प्राचीन काल में तक्षशिला अति प्रसिद्ध और जैन संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। ऋषभदेव ने अपने द्वितीय पुत्र बाहुबली को तक्षशिला का राज्य दिया था।
भारतीय इतिहास के मौर्यकाल में सम्राट सम्प्रति के समय में जैनाचार्य आर्य सुहस्ति. उनके शिष्य पट्टधर जैनाचार्य आर्य सुस्थित व आर्य सुप्रतिबद्ध और इनके शिष्य आर्य इन्द्रदिन्न विद्यमान थे। सम्राट् सम्प्रति का राज्याभिषेक ईसा पूर्व सन् 283 मे हुआ था। इसने 54 वर्ष राज्य किया।
गांधार जनपद में विहार करने वाले जैन श्रमण-श्रमणियां गांधारा गच्छ के नाम से विख्यात थे। सम्पूर्ण जनपद जैन धर्म बहुल जनपद था। तक्षशिला ध्वंस कर दिए जाने के पश्चात् इसके निकटस्थ नगर "उच्च नगर" ने इसका स्थान ले लिया गया था जो सिन्धु नदी के तट पर स्थित प्रसिद्ध नगर था।
चीनी बौद्ध यात्री फाहियान सन् 400 ईसवीं मे भारत आया था। वह तक्षशिला से 16 मील पर स्थित हीलो नगर गया था। वह उच्चक्षेत्र की राजधानी थी। उच्च नगर सिंधु नदी के तट पर स्थित था। प्राचीन काल मे तक्षशिला मे एक विश्वविद्यालय भी था, जहां अनेक संसार-प्रसिद्ध आचार्य शिक्षा देते थे और बडी दूर-दूर से तथा विदेशों से विद्यार्थी यहां आकर शिक्षा प्राप्त करने में अपना गौरव समझते थे। बौद्ध जातक साहित्य मे इस विश्वविद्यालय का विस्तृत विवरण मिलता है, जिससे ज्ञात होता है कि देश और विदेशो के राजपुरुष और राजकुमार भी यहां शिक्षा प्राप्त करते थे। तक्षशिला पाकिस्तान में रावलपिण्डी से 20 मील की दूरी पर स्थित था, जहां से सीधे मध्य एशिया और पश्चिम एशिया के लिए सडक मार्ग थे। इन्हीं से मध्य एशिया और पश्चिम एशिया और भारत के बीच. प्राचीन काल में अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार होता था। द्वितीय शताब्दी में हुए ग्रीक इतिहासकार स्पिन ने भारत और सिकन्दर के सम्बन्धों पर विस्तार से लिखा है। उसके अनुसार, सिकन्दर के समय में तक्षशिला बहुत बड़ा और ऐश्वर्यशाली नगर था तथा विशाल अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार केन्द्र था। सातवीं शताब्दी मे आये चीनी बौद्ध यात्री हुएनसांग ने भी तक्षशिला की समृद्धि पर विस्तार से लिखा है। तक्षशिला मौर्य काल से पूर्व बसा हुआ था जो द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में उजड़ गया और बाद में ग्रीक लोगों ने उसे सिरकप