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विदेशों में जैन धर्म
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श्रीलका के बाद के इतिहास से ज्ञात होता है कि बाद में जब राजा योगाधाना कास्सपा -1 द्वारा निकाले जाने पर अट्ठारह वर्ष तक भारत में निर्वासन में रहा तब उसने श्रीलंका के सेनापति और विशाल जैन समुदाय के साथ गुप्त रूप से निरन्तर सम्पर्क बनाये रखा था तथा श्रीलंका के जैन साधु वर्ग के सहयोग और सहायता से सन् 495 में पुनः विजयी होकर श्रीलका का शासक बना, यद्यपि बाद में मांगांलाना बौद्ध लोगों के श्रीलंका मे समिरिया, अनुराधापुर आदि अनेक जैन केन्द्र और विशाल मठ रहे है। श्रीलंका में जैन श्रावकों और साधुओं ने स्थान-स्थान पर चौबीसों जैन तीर्थंकरों के भव्य मन्दिर बनवाये। सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद फर्ग्यूसन ने लिखा है कि कुछ युरोपियन लोगों ने श्रीलका में सात और तीन फणो वाली मूर्तियो के चित्र लिए थे। सात या नौ फण पार्श्वनाथ की मूर्तियों पर और तीन फण उनके शासनदेव धरणेन्द्र और शासनदेवी पद्मावती की मूर्ति पर बनाये जाते हैं। भारत के सुप्रसिद्ध इतिहास वेत्ता श्री पी.सी. राय चौधरी ने श्रीलंका में जैन धर्म के विषय में विस्तार से शोध खोज की है।
विक्रम की 14वीं शती में हो गये जैनाचार्य जिन प्रभसूरि ने अपने चतुरशिति ( 84 ) महातीर्थ नामक कल्प में यहां श्री शान्तिनाथ तीर्थंकर के महातीर्थ का उल्लेख किया है। 143
अध्याय 38
तिब्बत देश में जैन धर्म
तिब्बत के हिमिन मठ में रूसी पर्यटक नोटोबिच ने पाली भाषा का एक ग्रन्थ प्राप्त किया था। उसमें स्पष्ट लिखा है कि ईसा ने भारत तथा भोट देश (तिब्बत) जाकर वहा अज्ञातवास किया था और वहां उन्होंने जैन साधुओं के साथ साक्षात्कार किया था । 35.
हिमालय क्षेत्र में तिब्बत में महावीर का विहार हुआ था तथा वहां निवसित वर्तमान डिंगरी जाति के पूर्वज तथा गढ़वाल और तराई के क्षेत्र में निवसित डिमरी जाति के पूर्वज जैन थे। "डिंगरी" और "डिमरी" शब्द 'दिगम्बरी" शब्द के अपभ्रंश रूप हैं। वहां जैन पुरातात्विक सामग्री प्रचुरता