Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 82
________________ 82 विदेशों में जैन धर्म हैं जिस संख्या का जैन परम्परा में बड़ा महत्व है। जैन परम्परा के अनुसार अष्टाहिनका पर्व के अवसर पर नन्दीश्वर द्वीप के 52 चैत्यालयों की वर्ष में तीन बार आराधना की जाती है। यहां के नवीं शताब्दी के एक शिलालेख में 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का उल्लेख आया है। इसमें "कल्याण कारक" नामक जैन चिकित्सा ग्रन्थ का भी उल्लेख हुआ है। अनाम (चम्पा). टोन्किन (दक्षिण चीन). बर्मा, सुमात्रा और मलय द्वीप समूह के लिए सुवर्ण भूमि नाम प्रचलित था। विक्रमी संवत् 1200 के आसपास जैन आचार्य कालक (क्षमा श्रमण) का सुवर्ण भूमि में विहार हुआ था। उन्होंने अनाम (चम्पा) तक विहार किया था। आचार्य सागरप्रमण और चारुदत्त का भी (ईसा पूर्व 74.69 में) विहार हुआ था। निमित्त शास्त्र के पंडित एवं अनेक ग्रन्थों के रचयिता कालकाचार्य (वंकालकाचार्य) और सागर श्रमण और उनके शिष्य-प्रशिष्यों का ईसा की पहली या दूसरी शती में सुवर्ण भूमि गमन जैन धर्म के इतिहास की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। इसका समर्थन टालेमी एवं वासुदेव हिण्डी से भी होता है। इन प्रदेशों की सस्कृति पर व्यापक श्रमण प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। कम्बुज, चम्पा आदि के प्राथमिक भारतीय राजवंश नाग जातीय थे। इन 'सभी क्षेत्रों में मद्य, मांस का प्रचार नहीं था तथा पश-बलि आदि का अभाव था। वहां के अनेक शिलालेखों मे पार्श्वनाथ आदि तीर्थकसें तथा जैन आयुर्वेद ग्रन्थ "कल्याण कारक" आदि का उल्लेख पाया जाता है। यहां वर्ष का आरम्भ महावीर निर्याण वर्ष की भांति कार्तिक मास से होता है। समस्त दक्षिण पूर्वी एशिया में सर्वत्र प्रांत, नागबुद्ध की मानी जाने वाली प्रसिद्ध मूर्तियां श्री हरिसत्य महाचार्य आदि इतिहास-पुरातत्त्वज्ञों के अनुसार तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तिया हैं। ईसा की पहली-दूसरी शताब्दियों में भारत का पूर्व के देशो के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध था। दक्षिण वर्मा से पैदल रास्ते से जैनाचार्य आगे सुवर्ण भूमि के प्रदेशों में गये, जहां उनके आहार-विहारार्थ जैन गृहस्थ बड़ी संख्या में पहले ही निवास करते थे।

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