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विदेशों में जैन धर्म
के थे और सब जैन धर्म के अनुयायी थे। खारवेल का जन्म 197 ईसा पूर्व में हुआ था। खारवेल सन् 173 ईसा पूर्व में 24 वर्ष की आयु में राज्यगद्दी पर बैठा । चेदि वंश का उल्लेख वेदों में भी आता है।
मगध देश के राजा नन्दवर्धन (प्रथम) ने 457 ईसा पूर्व में उड़ीसा पर 'आक्रमण करके वहां से अन्य धन-धान्य के साथ आदिजिन (ऋषभदेव) की प्रतिमा को भी उठाकर ले गया, जिसे नन्दवर्धन ने अपनी राजधानी पाटलीपुत्र (पटना) में जैन मन्दिर का निर्माण कराकर उसमें स्थापित किया। वह मूर्ति कलिंगजिन के नाम से प्रसिद्ध हुई। मगध का सम्पूर्ण नन्दवंश जैन धर्म का अनुयायी था तथा समस्त उत्तर भारत और पूर्व भारत में जैन संस्कृति व्याप्त थी। यह घटना महावीर के निर्वाण के 70 वर्ष बाद की है।
शदाब्दियों बाद खारवेल ने अपने पूर्वजो की पराजय का बदला लेने के लिए अपने पूर्वजों के इष्टदेव आदिजिन की वह मूर्ति वापिस लाकर पुनः अपने यहां स्थापित करने के लिए ईसा पूर्व 165 में मगध पर आक्रमण करके विजय प्राप्त की और बहुत धन-माल के साथ कलिंगजिन की प्रतिमा को वहां से लाकर एक विशाल मन्दिर में विराजमान किया। खारवेल स्वयं ऋषभदेव की इस प्रतिमा का पूजन करके आत्म-कल्याण की साधना करता था। यह मन्दिर राजमन्दिर के नाम से प्रसिद्ध था । अपने राज्य के तेरहवें वर्ष में खारवेल ने कुमारी पर्वत पर जैन धर्म का विजयचक्र प्रवृत्त किया और वहां जैन गुफा का निर्माण कराया।
खारवेल ने चारों दिशाओं में दूर-दूर तक अपने राज्य का विस्तार किया। अपने राज्य के बारहवें वर्ष में उसने उत्तरापथ उत्तरदिशा में स्थित कश्मीर, तक्षशिला, गाधार आदि जनपदों पर आक्रमण करके उन पर विजय पाई | 119 महामेघवाहन ने कश्मीर, तक्षशिला तथा गांधार पर भी शासन किया। उसने सारे भारत में तथा समुद्रपार के द्वीपों और देशों में भी अपना राज्य स्थापित कर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था और सर्वत्र जैन धर्म की प्रभावना की थी। उसने कश्मीर और गांधार में भी अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया था। उसकी मृत्यु ईसा पूर्व 148 में हुई। उसके बाद उसके पुत्र श्रेष्ठसेन ने सन् 61 ईसा पूर्व तक तीस वर्ष राज्य किया। खारवेल मेघवाहन से लेकर उसके प्रपोत्र प्रवरसेन तक चेदिवंश ने चार