Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 61
________________ विदेशों में जैन धर्म 61 पीढ़ियों तक लगातार कश्मीर, तक्षशिला और गांधार पर राज्य किया ।.. प्राग्वैदिक काल में पांचवें तीर्थंकर श्री सुमतिनाथ से भी पहले कश्मीर में जैन धर्म विद्यमान था 20 | इसी काल में सेठ भावड़ नामक जैन श्रावक ने 19 लाख स्वर्ण मुद्रायें खर्च करके कश्मीरक देश में श्री ऋषभदेव, श्री पुण्डरीक गणधर और चक्रेश्वरी देवी की तीन प्रतिमायें जैन मन्दिर का निर्माण कराकर प्रतिष्ठित कराई। वहा से उसने शत्रुंजय तीर्थ पर जाकर वहां लेप्यमय प्रतिमाओं को बदलकर मम्माणी (रत्न विशेष) की जिन प्रतिमायें स्थापित कीं। अध्याय 22 महाराजा कुमारपाल सोलंकी और जैन धर्म विक्रम की बारहवीं तेहरवी शताब्दी में हुआ कुमारपाल सोलंकी जैनधर्मी नरेश था, जो जैन कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्र सूरि का शिष्य था । इसकी राजधानी गुजरात में पाटण थी। इसका राज्य विस्तार 18 देशों और विदेशों में था गुर्जर, लाट, सौराष्ट्र, सिन्धु-सौवीर, मरुधर मालवा. मेदपाट, सपादतक्ष, जम्मेरी, तक्षशिला, गांधार, पुण्ड्र आदि देश (उच्चनगर), कश्मीर, त्रिगर्त प्रदेश (कागडा-जालधर आदि), काशी, आभीर, महाराष्ट्र. कोकण, करणाट देश । उसका राज्य पंजाब के बाहर तुर्किस्तान तक भी विस्तृत था। उसकी राज्य सीमा तुर्किस्तानः कुरु, लंका और मगध तक थी 1122 उसके राज्य में जैन धर्म की महती प्रभावना थी। सारे राज्य में अहिंसा का साम्राज्य था तथा उसने पशुबलि, यज्ञ तथा नरबलि आदि बन्द करा दिए थे। उसने राज्याज्ञा निकलवाई थी कि जो परस्त्री लम्पट होगा और जीव हिंसा करेगा, उसे कठोर दण्ड दिया जायेगा। कुमारपाल सोलंकी ने संघपति बनकर चतुर्विध संष के साथ गिरनार आदि अनेक तीर्थों की यात्रायें कीं। उसने सारे राज्य में 1440 नए जैन मन्दिरों का निर्माण कराया और उन पर स्वर्ण कलश चढ़वाये। उसने 1600 पुराने जैन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। उसने अपनी राजधानी

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