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विदेशों में जैन धर्म
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बिम्बसार ने आर्द्रराज नेबुचंदनेजर को भेंट भेजी थीं और उसके पुत्र अभय कुमार ने नेबुचंदनजर के राजकुमार आर्द्र कुमार को अपनी तरफ से जिन प्रतिमा की भेंट भेजी, जिसको देखने पर आर्द्र कुमार प्रतिबोध पाकर भारत वर्ष में आया था।
उस समय के विश्व के इतिहास का अवलोकर करने से ज्ञात होता है कि भारत के बाहर बेबीलन साम्राज्य के सिवाय दूसरा एक भी ऐसा अन्य साम्राज्य नहीं था जिसके सम्राट को मगधाधिपति बिम्बसार भेंट भेजता।
उस समय भारत और बेबीलन साम्राज्य के बीच सांस्कृतिक और व्यापारिक सम्पर्क और वाणिज्यिक आदान प्रदान होता था तथा लाखों भारतीय और प्रमुखतया जैन अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारी समस्त मध्य एशिया, मैसोपोटामिया, बेबीलन आदि में बसे हुए थे तथा उनके व्यापारिक काफिले (सार्थवाह) नियमित रूप से आते जाते थे और बेबीलन साम्राज्य के साथ-साथ रोमन साम्राज्य, फिनीशिया, युरोप तथा सम्पूर्ण विश्व से अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार करते थे जो कि हजारों वर्ष तक निरन्तर चलता रहा ।
सम्राट नेबुचन्द्रनेजर ने गिरिनार पर्वत (गुजरात-भारत) स्थित विश्वविश्रुत नेमीनाथ के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था और उसके नियमित निर्वाह के लिए एक विशाल धनराशि वार्षिक रूप से भेंट की थी। बाद में जब उसका पुत्र आर्द्र कुमार भगवान महावीर से जैन दीक्षा लेकर भारत चला आया तो उसकी नियमित साल सभाल के लिए नेबुचंद्रनेजर ने उसके पीछे पांच सौ सैनिक भेजे। बाद मे संभवत वे सैनिक उसे छोडकर भाग निकले तब नेबुचन्द्रनेजर अपने पुत्र की खोज में स्वय रौराष्ट्र आया तथा उस समय जैन धर्म का प्रभाव पडने से उसने जैन धर्म अपना लिया। बाद में उसने और आर्द्र कुमार ने समस्य मध्य एशिया में जैन धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। सायरस के शिलालेखो से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उसने बेबीलोन मे वंश परम्परागत रूप से चली आती हुई मक की पूजा और बलिदान की प्रथा बन्द कराई थी । उत्तरावस्था के नेबुचंद्रनेज़र के शिलालेखों से पता चलता है कि उसने प्रजा की सूचनार्थ डिंडोरा पिटवाया था कि मर्जूक की पूजा के समय बलिदान बन्द किया जाता है। जब नेबुचंद्रनेजर ने ज़ेरोसिलम को लूटा था तब वहां काफी क्षति पहुची
थी। आरंभ में इसके बनवाये हुए मर्दूक के भव्य मन्दिर से यह तो निश्चित
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