Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 67
________________ विदेशों में जैन धर्म 67 अकृत्रिम जिनालयों अनन्य भक्त थे 154 प्रो. हेवीन्ट ने उन लोगों को भारत से आया हुआ बताया है। उनके बीस हजार वर्ष पुराने नगरादि अवशेषों के नाम प्राकृत भाषा के अनुरूप हैं, जैसे "उर" "पुर" का द्योतक है "एरोदु" "ऐरद्रह" का अपभ्रंश है। उनके अनुसार जन्म मरण के चक्र से मुक्त हुआ प्राणी महान् बन कर परमात्मा बन सकता है। जैन धर्म की भी यही शिक्षा है। -अक्कड़ आदि के मेल-मिलाप से बने राज्य बाबुल : ठंइलसवदपद्ध के सम्राट् नेबुचडनेजर (जो संभवतः "नमचन्द्रेश्वर" का अपभ्रंश रूप है) का एक ताम्रपट लेख काठियावाड से मिला है, जिसे प्रो प्राणनाथ ने पढ़ा हे । अत. निस्सन्देह रूप से स्पष्ट है कि सुमेर लोग भूलतः भारत के निवासी थे और जिनेन्द्र के भक्त थे। उस लेख में उनको रेवा नगर के राज्य का स्वामी लिखा है तथा गिरनार के जिनेन्द्र नेमिनाथ की वदना करने के लिए आया लिखा है। "जैन" (गुजराती साप्ताहिक भावनगर) 2 जनवरी, 1937 (462) 55 नेबुचडनेजर के पूर्वज रेवानगर के ही निवासी थे। सुमेरुवंश के राजाओं का आदर्श भारतीय राजाओं की भांति अहिंसा पर था। उनके एक बड़े राजा हम्मुरावी ने इसी आशय का एक शिलालेख खुदवाया था जिसमें ऋषभदेव को सूर्य के रूप में स्मरण किया गया है । सुमेरु के लोगों का मुख्य देवता "सिन" (चन्द्रदेव ) मूल में "जूइन कहलाता था जिसका सुमेरी भाषा में अर्थ "सर्वज्ञ ईश" था। उसे "नन्नर" (प्रकाश) भी कहते थे। सुमेर और सिंघु उपत्यका की मुद्राओं पर प्रोफेसर प्राणनाथ ने सिन, नन्नर, श्रीं ह्रीं आदि देवताओं के नाम भी पढे हैं और उन्हें जैनादि मतों के देवताओं के अनुरूप बताया है। तम्मुज और इश्तर के प्राचीन सुमेरीय कथानक के प्रतीकों में पूरा जैन सिद्धान्त भरा हुआ है। उसके सूकर के रूप में तीर्थंकर विमलनाथ का उल्लेख होना संभव है 1 ग्रीस, मिश्र और ईरान के प्राचीन लेखकों की कृतियों में पाये जाने वाले उल्लेखों, बेबीलोन, चम्पा (इण्डोचाइना), कम्बोज (कम्बोडिया) के भूखनन तथा मध्य अफ्रीका, मध्य अमेरिका के अवशेषों में बिखरी पड़ी जैन- सस्कृति पर प्रकाश डालने अथवा शोध-खोज करने की तरफ न तो प्रचार और न हमारे जैन चक्रवर्तियों के विजय मार्गों आदि को ऐतिहासिक

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