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विदेशों में जैन धर्म
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उनकी बनावट जैन मन्दिरों (बावन चैत्यालयों) के अनुरूप हैं।
इब्न-अन-नजीम के अनुसार, अरबो के शासन काल में यहिया इब्नखालिद बरमकी ने खलीफा के दरबार और भारत के साथ अत्यन्त गहरा सम्बन्ध स्थापित किया। उसने बड़े अध्यवसाय और आदर के साथ भारत के हिन्दु, बौद्ध और जैन विद्वानों को निमन्त्रित किया। प्राचीन काल से ही मक्का में जैन धर्म का व्यापक प्रचार था। मक्का में इस्लाम का प्रचार होने पर जैन मन्दिरो की मूर्तियां नष्ट कर दी गई और उन मन्दिरों की बनावट से भी होती है। वास्तुकला मर्मज्ञ फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक "विश्व की दृष्टि में लिखा है कि मक्का में भी मोहम्मद साहब के पूर्व जैन मन्दिर विद्यमान थे, किन्तु काल की कुटिलता से जब जैन लोग उस देश मे न रहे तो मधुमती के दूरदर्शी श्रावक मक्का स्थित जैन मूर्तियों को वहा से ले आये थे जिनकी प्रतिष्ठा उन्होने अपने नगर मे करा दी थी जो आज भी विद्यमान ह ।
रोमानिया, नार्वे, आस्ट्रिया, हगरी, ग्रीस या मैसिडोनिया के निवासी मिश्रियो के अनुगामी थे। वे जैन धर्मानुयायििों के उपदेशो से प्रभावित थे। यूनानियो के धार्मिक इतिहास से भी ज्ञात होता है कि उनके देश में जैन सिद्धान्त प्रचलित थे। पाइथागोरस 32 पाइरो 33 (पिर्रहो ), प्लोटीनस आदि महापुरुष श्रमण धर्म और श्रमण दर्शन के मुख्य प्रतिपादक थे ।
इनमें से पाइथागोरस ने पार्श्वनाथ-महावीर काल में, छठी शताब्दी ईसा पूर्व में भारत की यात्रा की थी। उसे श्रमणो और ब्राह्मणों ने एलोरा और एलीफेन्टा के मन्दिर दिखाये थे और उसे यूनानाचार्य की आरम्भिक उपाधि प्रदान की थी। उसे आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म मे आस्था थी ।
इसी प्रकार, पाइरो 133.द्ध (पिर्रहो) और प्लोटिनस, अपोलो और दमस ने भी भारत आकर जैन दीक्षा ग्रहण की थी। ग्रीक फिलासफर पिर्रहो चपतीवद्ध ईसा से पूर्व की चौथी शताब्दी में भारत आया था और उसने जैन साधुओं से विधाध्ययन किया था। बाद में पाइरों ने यूनान में जैन सिद्धान्त का प्रचार किया था। वह स्याद्वाद के सिद्धान्त का प्रचारक था। यूनान का प्राचीन यूनानी डायोनीशियन धर्म भी जैन सिद्धान्तों से प्रभावित था। जैनों की भांति प्राचीन यूनानी दिगम्बर मूर्तियों के उपासक थे और आत्मा की मुक्ति और पुनर्जन्म में आस्था रखते थे तथा मौनव्रत और