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विदेशों में जैन धर्म धर्मावलम्बी थे। इनकी भाषाओं और भारत की प्राचीन भाषाओं में बड़ा साम्य है। इतिहास काल में इनका भारत से निरन्तर व्यापारिक सम्बन्ध बना रहा। उस काल में हिमालय पर्वत की इतनी ऊंचाई नहीं थी और वह केवल निचला पठार था। सुदूर उत्तरी ध्रुव तक भारत से सार्थवाहों. रथों काफिलों आदि का निरन्तर गमनागमन होता था। __ कालान्तर में राजनैतिक उथल-पुथल के कारण पणि व्यापार-साम्राज्य तो छिन्न-भिन्न हो गया किन्तु सांस्कृतिक स्थिति अपरिवर्तित बनी रही। वर्तमान फिनलैंड क्षेत्र में बसी पणि जाति के कारण इस क्षेत्र का नाम पणिलैंड (फिनलैंड) पडा प्रतीत होता है। इस लोगों ने सत्रहवी शताब्दी तक अपनी मूल संस्कृति को कायम रखा तथा सत्रहवी शताब्दी में ही फिनलैंड में ईसाई धर्म का प्रसार हुआ।
अध्याय 7
सोवियत गणराज्य संघ और पश्चिम एशियाई
देशों में जैन संस्कृति का व्यापक प्रसार
कतिपय हस्तलिखित ग्रन्थो मे ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण मिल हैं कि अफगानिस्तान, ईरान, ईराक, टर्की आदि देशो तथा सोवियत संघ के आजोब सागर से ओब की खाडी से भी उत्तर तक तथा लाटविया से उल्ताई के पश्चिमी छोर तक किसी काल मे जैन धर्म का व्यापक प्रसार था। इन प्रदेशो मे अनेक जैन मन्दिरो, जैन तीर्थंकरो की विशाल मूर्तियो, धर्म शास्त्रो तथा जैन मुनियों की विद्यमानता का उल्लेख मिलता है। कतिपय व्यापारियो और पर्यटकों नं, जो इन्हीं दो-तीन शताब्दियो मे हुए है, इन विवरणो मे यह दावा किया है कि वे स्वय इन स्थानो की अनेक कष्ट सहन करके यात्रा कर आये हैं। ये विवरण आगरा निवासी तीर्थयात्री बुलाकीदास खत्री (1625 ई.) और अहमदाबाद के व्यापारी पद्मसिह के है तथा तीर्थमाला' मे भी उल्लिखित हैं। इन यात्रा विवरणो मे लाहौर, मुलतान, कन्धार, इस्फहान, खुरासान, इस्तम्बूल. बब्बर, तारातम्बोल, काबुल, परेसमान, रोम, सासता आदि का सविस्तार वर्णन है। इन सब नगरों में जैन संस्कृति