Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 33
________________ विदेशों में जैन धर्म 33 सिद्धान्त समान है। ___सहस्रों वर्ष पूर्व जैन साधु और प्रचारक विश्वभर मे गये। विशेषकर एशियाई देशों में उन्हें अधिक सफलता मिली। चक्रवर्ती सम्राट भरत, मौर्य सम्राट चन्द्र गुप्त, मौर्य सम्राट सम्प्रति, सम्राट खाखेल आदि जैन शासकों के काल में इस प्रकार के विश्वव्यापी प्रयास किए गए। बौद्ध प्रचारक तो इन क्षेत्रो मे धर्म प्रचार के लिए बाद मे पहुचे तथा उनके हजारों वर्ष पूर्व से इन क्षेत्र में जैन धर्म का ही प्रसार था। अध्याय १ चीनी बौद्ध साहित्य में ऋषभदेव अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के जापानी विद्वान् प्रोफेसर नाकामुरा ने चीनी भाषा के बौद्ध त्रिपिटक साहित्य का गम्भीर मथन किया है तथा उन्होने उसमे सर्वत्र स्थान-स्थान पर ऋषभदेव विषयक सन्दर्भो का विस्तार से चयन और उल्लेखन किया है। उनका कथन है कि बौद्ध धार्मिक ग्रन्थो के चीनी भाषा में जो रूपान्तरित संस्करण उपलब्ध है उनमे यत्र-तत्र जैनों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विषयक उल्लेख मिलते है। ऋषभदेव के व्यक्तित्व से जापानी भी पूर्ण परिचित है। जापानी उन्हे "रोक् शव" ,त्वाइद्ध के नाम से पुकारते है। आर्यदेव द्वारा रचित “षट शास्त्र" के, जिसकी मूल संस्कृत प्रति लुप्त हो चुकी है, प्रथम अध्याय मे कपिल, उलूक (कणाद), ऋषभ आदि का उल्लेख हुआ है, तथा यह लिखा है कि ऋषभ के शिष्यगण निग्रन्थों के धर्मग्रन्थों का पाठ करते हैं। उसमे तपस्या, केशलुंचन आदि क्रियाओं का उल्लेख है। तैशो त्रिपिटक (भा. 33, पृष्ठ 168) में भी इसी प्रकार के उल्लेख हैं। चीन में इस बात की विवेचना करते हुए त्रिशास्त्र सम्प्रदाय के संस्थापक श्री चि-त्सङ्य (549-633 ईसवीं) ने इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है कि ऋषभ एक तपस्वी ऋषि हैं। हमारे पूर्व संचित कर्मों का फल तपस्या द्वारा समाप्त हो जाता है और सुख तुरत प्रकट होता है। उनके धर्मग्रंथ निग्रंथ सत्र कहलाते है जिनमें हजारों कारिकायें है।

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