Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 37
________________ विदेशों में जैन धर्म प्रकार का विवरण दिया है। ईसा पूर्व 12वीं शताब्दी की एक कांसे की रिषभ (रवेभ) की मूर्ति इनकाषी के निकट अलासिया - साइप्रस में मिली थी, जो तीर्थंकर ऋषभ के समान ही थी। ऋषभ की मूर्तियां मलेशिया, तुर्की में और इसबुक्जूर की यादगारों में हित्ती (हत्ती) देवताओ में प्रमुख देवताओं के रूप मे मिली है। 'सोवियत आर्मेनिया की खुदाई में एरीवान के निकट कारमीर ब्लूर टेशावानी के पुरातन नगर यूराटियन में कुछ मूर्तियां मिली हैं जिनमें एक कांसे की ऋषभ की मूर्ति भी है। | 37 ऋषभदेव की तथा अन्य तीर्थकरो की मूर्तियां दूसरे देशों में भी मिली है, जिनके विषय में सचित्र लेख कुछ भारतीय पत्र-पत्रिकाओं में छप चुके हैं। इन देशों में जैन सिद्धान्त और ब्राह्मी लिपि स्वीकार की गई है। सिन्धुघाटी की लिपि फिलिस्तीन के यहूदियों की प्राचीन लिपि थी । मिश्र की प्राचीन हीरो लिफिक्स प्राचीन चीनी लिपि तथा सुमेरियन लिपि ब्राह्मी से मिलती जुलती थी। अमेरिका की कोलम्बस से पूर्व की संस्कृति का प्रारम्भ भारत से ही हुआ था जिनका पुरातत्व युरोप की चार प्रमुख प्राचीन संस्कृतियों से समानता रखता था। ये प्राचीन संस्कृतियां थीं अमेरिका में, दक्षिण पश्चिम के प्यूबघों में, घाटियो वाले अजटेक में तथा मवेशी के ऊंचे भाग में। वहां के यूकाटन प्रायदीप की मय संस्कृति और पीरू की संस्कृति ये सब प्राचीन मिश्र, मेसोपोटामियां और सिन्धुघाटी की संस्कृतियों से समानता रखती थीं । - टोकियो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर नाकामूरा को एक जैन सूत्र मिला था। इससे प्रमाणित होता है कि शताब्दियों पहले चीन में भी जैन धर्म प्रचलित था। भारतीय और युरोपीय धार्मिक इतिहास से इस बात के विश्वसनीय प्रमाण मिलने संभव हैं कि आर्हत धर्म दुनियां के अनेक भागों में मानव समाज का प्रमुख धर्म था। विश्व प्रसिद्ध इतिहासकार श्री भिक्खु चमन लाल ने अनेक वर्षों की शोध-खोज के बाद 20 जुलाई, 1975 के हिन्दुस्तान टाइम्स, नई दिल्ली में अनेक शोध लेख छपवाये थे जिनका सारतत्त्व इस प्रकार है 53 : "प्राचीनकाल में भारत सदियों तक बहुत अच्छे प्रकार जहाजं बनाता था जो प्रशान्त महासागर आदि में चला करते थे, और मैक्सिको,

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