Book Title: Videsho me Jain Dharm
Author(s): Gokulprasad Jain
Publisher: Bharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha

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Page 42
________________ 42 विदेशों में जैन धर्म I पूर्ण विकास होता चला गया। डा. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार, महाजनपदों का युग 1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व तक रहा । वस्तुतः राजनैतिक, सास्कृतिक और आर्थिक जीवन की इकाई बन गये थे इनकी संख्या घटती-बढ़ती रही है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में 22 जनपदों का उल्लेख आया है। महावस्तु में केवल सात जनपदों का वर्णन है । बाद में आपसी संघर्ष और साम्राज्यवादी प्रवृति के कारण जनपदो की संख्या कम होने लगी थी । बडे-बडे जनपदों ने छोटे-छोटे जनपदों पर विजय प्राप्त कर उन्हें अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया था और इस प्रकार महाजनपदों का उद्विकास हुआ। पार्श्व- महावीर - बुद्ध युग में 16 महाजनपद विद्यमान थे। जैन भगवती सूत्र और बौद्ध अंगुत्तर निकाय में इनका विस्तृत विवरण मिलता है। डा. राजबली पाडेय ने भी इनका विवरण दिया है। वस्तुत सम्पूर्ण भारत मे महाजनपद राज्यों की स्थापना हो चुकी थी जो मौर्य साम्राज्य की स्थापना तक चलती रही। सिकन्दर के सैनिकों ने जैन धर्म को बैक्ट्रिया, औक्सियाना, कास्पियाना तथा अफगानिस्तान और भारत के बीच की सब घाटियो मे उन्नत रूप में फैला हुआ पाया था। जैनधर्म अत्यन्त प्राचीन काल से चीन से कास्पियाना तक उपदेशित होता था। जैन धर्म आक्सियाना और हिमालय के उत्तर मे महावीर से 2000 वर्ष पूर्व मौजूद था । 22 अध्याय 14 मध्य पूर्व और जैन धर्म महात्मा ईसा द्वारा प्रवर्तित ईसाई धर्म के आधारभूत तीन मौलिक तत्त्व हे विकृत यहूदी धर्म, विकृत मित्रवाद और यूनान के और्फिक मार्ग का आत्मतत्त्व । इनमे से मित्रवादी ऋग्वेदोक्त मित्र की धारा के अनुयायी हैं और इन पर ऋषभ के आत्म मार्ग का प्रभाव पड़ा। यूनान का और्फिक मार्ग तो पूर्णतया ऋषभ के आत्म मार्ग पर ही चला जिसका कि यूनान क्षेत्र और भूमध्य सागर क्षेत्र पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस मार्ग के अनुयायी पाइथागोरस

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