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विदेशों में जैन धर्म करके सौराष्ट्र. आन्ध्र, द्रमिल (तमिल) पलिदस; अनूप. महिष्मंडल आदि देशों पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् गौड़, विदेह, बंग, कामरूप, प्राग्ज्योतिष, पुण्ड. काशी, कोशल, कोसांबी, अंग. चेदि, पुलीन्द्र. अटवी आदि देशों पर विजय प्राप्त की। तदुपरान्त सम्प्रति ने उत्तर में हस्तिनापुर, मत्स्य, सूरसेन (शरसेन), कुरु, पांचाल, मद्र, ब्रह्मवर्त, कश्मीर, तिब्बत, खोतान, नेपाल-भूटान आदि देशों पर विजय पताका फहराई। तदनन्तर, सम्राट सम्प्रति ने उत्तर पश्चिम में वाल्हीक, योन. कंबोज, गांधार पठाण (अफगानिस्तान), शक-फारस, अरबस्तान, एशियाई तुर्किस्तान, सीरिया, ग्रीस, उत्तर एवं पूर्व अफ्रीका इजिप्ट, एबीसीनियां आदि पर आक्रमण करके ताशकन्द, समरकन्द, सिन्धु-सौवीर पर विजय प्राप्त की। तत्पश्चात् सम्प्रति ने उत्कल कलिंग, चोल, पाण्ड्य, सत्यपुत्र. केरलपुत्र. ताम्रपर्णी आदि देशों को फतह किया। प्रत्येक दिशा में विजयोपरान्त उसने पाटलीपुत्र में आकर अपने को पुनः सुसज्ज किया और आगे विजयार्थ पुनः प्रयाण किया।
उसकी सेना में पचास हजार हाथी दल, नौ लाख रथ-दल. एक करोड अश्वारोही तथा सात करोड पैदल सैनिक थे। इससे पूर्व भी शान्तिकाल में, मेगस्थनीज के प्रवास के समय भी उसकी सुविशाल सैन्य शक्ति थी। उसकी सेना में चार लाख नौकादल भी थे।
प्रियदर्शी सम्राट सम्प्रति मौर्य पर जैन आचार्य महागिरि (282 ईसा पूर्व) का वरद हस्त रहा तथा सम्प्रति ने जीवन भर जैन साधुओं की अर्चना की एवं देवमूर्तियों (जैन मूर्तियों) की स्थापना कराई। उसने विश्वव्यापी जैन धर्माभियानों का आयोजन किया एव उनमें अपूर्व सफलता प्राप्त की। उसके विभिन्न शिलालेखों से उसकी धर्म विजयों पर पूरा प्रकाश पडता है।
सम्राट सम्प्रति विश्व विजय करना चाहता है तथा चीन पर भी आक्रमण कर सकता है, इस आशंका से चीन के शहंशाह शी ह्यांग ने सम्राट सम्प्रति के आक्रमणों से अपने बचाव के लिए उपयुक्त भव्य दीवाल बनवाई थी जो आज भी विद्यमान है और विश्व के महाआश्चयों में गिनी जाती है।
मगध. अवंती. गांधार. सौराष्ट्र, कश्मीर, नेपाल, कोसांबी, तिब्बत, सुवर्णगिरी. तोसली आदि में सम्प्रति ने राजवंशी सूबाओं की स्थापना की। उसकी पुत्री चारुमती का देवपाल के साथ नेपाल में विवाह हुआ था।