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विदेशों मे जैन धर्म
पाश्चात्य पुरातत्त्ववेत्ताओं कनिघम आदि ने भी ऐसी स्तूपाकृतिये (घेरों) को हमेशा बौद्ध स्तूप कहा है। जहा कही भी उनको टूटे-फूटे स्तूप मिले तब भ्रमवश यही समझा गया कि उस स्थान का सम्बन्ध बौद्धो से है। 1897 ईसवी मे बुहलर ने मथुरा के जैन स्तूप का पता लगा लिया था । 1901 ईसवी में उनका इस विषय पर शोध निबन्ध छपा, तब संभवतः सर्वप्रथम पुरातत्त्व जगत को यह ज्ञात हुआ कि बौद्धो के समान, बौद्ध काल के पहले से ही जैनों के स्तूप बहुलता से मौजूद थे जो हजारों वर्ष सं विद्यमान थे।
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स्तूप उल्टे कटोरे के आकार का होता है जो किसी महापुरूष के दाह-संस्कार के स्थान पर बनाया जाता 27 था या सिद्धों अथवा तीर्थंकरों की मूर्तियों और चरण- बिम्बों सहित उस विशेष आराध्यदेव की पूजा आराधना के लिए निर्मित किया जाता था । स्तूप मे तीर्थकर और सिद्ध की प्रतिमा होने का स्पष्ट उल्लेख प्रसिद्ध जैन ग्रथ तिलोय पण्णत्ति में मिलता है। जैन मन्दिरों के साथ ही इन स्तूपो की पूजा भी होती थी। जैन ग्रन्थो में कितने ही स्थलों पर तीर्थकरो की पूजा सम्बन्धी वर्णन आते हैं। 1 29 इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि जैन स्तूपों में मूर्तिया होती थी और उनकी पूजा भी होती थी। जैनो से सम्बन्धित खुदाई का और उनके शिलालेखो आदि के वाचन का काम भारत मे नहीं के बराबर हुआ है। परन्तु मथुरा के कंकाली. टी का एक ज्वलन्त प्रमाण जैन स्तूप सम्बन्धी प्राप्त है। उसमें कितनी ही जैन मूर्तिया प्राप्त हुई है। 30 जो ईसा पूर्व काल मे जैनो ने स्थापित की थीं।
अहिच्छत्रा में भी जैन स्तूप मिला है और उसमे जैन मूर्तियां भी मिली है। इसी प्रकार, मध्य प्रदेश में भी ईसा पूर्व 600 वर्ष प्राचीन जैन मूर्तियां और जैन स्तूप मिले हैं 31 |
जैनों के अनेक वास्तविक स्मारकों, मूर्तियो मन्दिरों आदि को भ्रमवश बौद्धों आदि का मान लिया गया है। आज से लगभग 1800 वर्ष पूर्व सम्राट् कनिष्क ने भी एक बार एक जैन स्तूप को भूल से बौद्ध स्तूप समझ लिया था । किन्तु वस्तुतः सर कनिंघम ने तो जीवन भर इस प्रकार की भूलें की है। उसने कभी नहीं जान पाया कि जैनो ने भी बौद्धों से हजारों वर्ष पूर्व से या बौद्धों के समय में ही स्वभावतः सैकड़ों जैन स्तूप बनाये थे। वास्तव
मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और दक्षिण एशिया के विभिन्न देशो मे