Book Title: Vachandutam Uttarardha
Author(s): Mulchand Shastri
Publisher: Prabandh Karini Committee Jaipur

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Page 8
________________ ( ix ) और पाते चले जा रहे हैं | भाज लगभग डेढ या दो हजार वर्ष बीत जाने पर भी मेघवूत की प्रेरणा कम नहीं हुई है। मेघदूत में श्रृंगार एवं वैराग्य का प्रत प्रतिष्ठित है। महाकाल मन्दिर में इन दोनों के प्रदेव का प्रत्यक्ष होता है अन्यत्र वह समझने पर निर्भर है। अनुकरण कितना भी कमनीय क्यों न हो उसमें मूल की महत्ता नहीं होती। यही कारण है कि कालिदासोसर सन्देश काव्यों में वह व्यापक दृष्टि श्रीर रसवला नहीं है जो कालिदास में है। यही नहीं, अनेक सन्देश काव्य केवल तकनीक की दृष्टि से ही मेघदूत का अनुकरण है। अभी कुछ वर्षों में जो नये संदेश काव्य मुझे देखने को मिले उनमें पुलिवति परमाचार्य का 'मरु सन्देश' 1963 तक के नव भारत के बन के द्वारा देश के प्राधुनिक स्वरूप और नगरादि का वर्णन है । श्री परमानन्द शास्त्री का 'गन्ध दूत' कमानी प्रणय भावना का काव्य है । इन दोनों में नव चेतना भी परिलक्षित होती है। इसी प्रकार हास के पांथ दूत, गंग दूत, मयूख दूत भादि भी कालिदास द्वारा प्रवर्तित दूत काव्य परम्परा की जीवन्तता और इस विधि को सता का खिनाद करने हैं। इसलिए एक पद्म में मैने लिखा था- कालिदासेन कविना यवाग्वर्त्म निषेवितम् । सर्व सदेव सेवन्ते कवित्वं शाश्वतं पदम् ॥ शुक, कोकिल, चातक, भ्रमर, गरुड़, कोक, मयूर, हंस, उद्भव, विप्र, गंध मादि अनेक माध्यमों से वीं शताब्दि से अब तक इस काव्य की परम्परा निरन्तर चल रही है । यह संस्कृत की जीवन्तता और कालिदास की अमरता का एवं प्रमाण है। इस परम्परा की प्राणवता श्रौर महता को प्रतिष्ठित करने मैं जैन कवियों ने बहुत योगदान दिया है। आठवीं शताब्दि में प्रसिद्ध जैन कवि जिनसेन ने मेघदूत के प्रत्येक पाद को लेकर समस्या-पूति के रूप में पार्श्वनाथ के चरित्र-निरूपण के लिये 'पाश्वभ्युदय' लिखा । आपाततः श्रृंगार एवं लौकिक प्रवृत्तिको माध्यात्मिक चेतना को उपदेश द्वारा निवृत्तिमार्ग की ओर उन्मुख करने का यह अभिनव प्रवर्तन या । इसी प्रवर्तन की दूसरी कड़ी प्राचीन नेमिदूत है । श्री शास्त्रीजी का प्रस्तुत 'वचनदूत' प्रणय-भावना के उदय के अनन्तर गिरि नार पर्णत पर अविचल नेमिनाथ के प्रति वाग्दत्ता राजीमती (राजुल) की मानवीय अनुभूति का काव्य है । इसके पूर्वाद्ध में राहुल का मास्म निवेदन (वचन) है जिसका प्रकाशन: पहले हो चुका है और प्रस्तुत उत्तरार्द्ध में परिजनों के द्वारा राजुल की व्यथा का निवेदन (वचन) है । मानवीय हृश्य की, सुकुमार नारी हृदय की, विवाह की मंगल वेला पर निराशा का अनन्त पारावार इस काथ्य में उलसिद्ध है। केवल शान साध्य है पर राजुल का अपने भावी पति के प्रति स्वाभाविक प्रणय-भाव भी कम श्लाध्य नहीं । यही कविता का अन्तस्तस्य है। इसी सद् ग्रहस्य कवि को प्रेरित किया है। "

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