Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 636
________________ अपज्जत्त अपुण्ण अपजत्त [ अपर्याप्त ] रा० ७५६. जी० ११५१,६३, ६५,१०१, ३ १२६ ६,१३३,१३४, ४/२५; ५।१७,२४,२६ से ३०,३३,३५,३६,३६४०, ४२,४५,४८,५०,५२, ५४ से ६० अपज्जत [ अपर्याप्त ] ओ० १०२. जी० १११४, ५८, ६७,७३,७८,८१,८४,८८,८६,६२,१००, २२७,२३०,२४६,२६१,२६५, २७६,२८५ अडकूलमाण [ अप्रतिकूलयत् ] ओ० ६६ अडिक्कत | अप्रतिक्रान्त ] को ६५, १५५, १५६ ausea [ अप्रतिबद्ध ] ओ० ७४ ४ अडिवर [ अप्रतिविरत ] ओ० १६१ अप [ प्रथम ] जी० ११६; ७ १, ३, ५, १०, १२, १४,१६,१८,२१ से २३, ६/१ से ७,२३२, २३४,२३६,२३८, २४२२४४, २४६२४८, २५१ से २५३२५५, २६७, २६६, २७१, २७३, २७६ २७८,२८०,२८२,२८५,२८७ से २६३ अपतट्ठाण [ अप्रतिष्ठान ] जी० ३।१२ अ] [ अप्राप्तार्थ ] रा० ७५८, ७५६ अपद [ अपद ] जी० ३ १६६ अपराइत [ अपराजित ] जी० ३।६४१ अपराइय [ अपराजित ] जी० ३।५६६ Jain Education International ५५ह अपराजित [ अपराजित ] जी० ३।१८१, २६६,७०७, ७१३,८२४ अपराजय [ अपराजित ] ओ० १६२. जी० ३।७६६, १०३,१११,११२,११६,११८, १२१, १२६,१३५; ३।१३६,१३६, १४०, १४६, ४१२, ५,१८,२०, २२,२३,२५; ५।३,४,७,११,१८ से २२, २५ से २७,३१ से ३४, ३६, ६०, ६३,६४ अपज्जत्तय [ अपर्याप्त ] जी० ११५५, १०१ ४ ॥१० अज्जत्ति [ अपर्याप्त ] जी० ११२७,८६,६६,१०१, अपरिभूय [ अपरिभूत] ओ० १४१. रा० ६७५, १३८ ७६६ ११६,१२८,१३३,१३६ अपज्जवसित [ अपर्यवसित ] जी० ६ २३, २४,६६, अपरिमिय [ अपरिमित ] ओ० ४६, ७१. रा० ६१ अपरियाता [ अपर्यादाय ] जी० ३।६६० अपरियाविय [ अपरितापित ] जी० ३।६३० अपरिवार [ अपरिवार ] रा० २०७, २६५, २६७, ८१,८२,६२,१०४, १२५, १७५, १६२,२०१,२४० अपज्जवसिय ] अपर्यवसित] ओ० १८३, १८४, १६५. जी० ६ १० से १३,१६,२५,२६,३१,३३,३४, ४५,५४,५८,६०,६५,६८,७१,७२, ८६, ६८, ११०,११६,१३३,१३५, १४५, १६३, १६४,१७४. १७६, १८०,१६५,२०२,२०५,२०६,२१५,२१६, ८१३ अपराजिया | अपराजिता ] जी० ३६१६, १०२६ अपरिग्गह [ अपरिग्रह ] ० १६३ अपरितावणकर [ अपरितापनकर ] ओ० ४० अपरित [ अपरीत ] जी० १२६७, ७४ ६७५, ७६, ८७ अपरिपूय [ अपरिपूत ] ओ० १११ से ११३,१३७, २६६. जी० ३ | ४२८, ४३१, ४३४ अपरिसेसिय [ अपरिशेषित ] जी० ३।७५१ अपलिक्खीण [ अपरिक्षीण ] ओ १७१ अपवरक [ अपवरक ] जी० ३।५६४ अपसत्य काय विजय [ अप्रशस्त कार्याविनय ] ओ० ४० अपत्थमणविणय [ अप्रशस्तमनोविनय ] ओ० ४० reason [ अशस्तवाक्विनय ] ओ० ४० अपस्समाण [ अपश्यत् ] ओ० ११७ अपासमाण [ अपश्यत् ] रा० ७६५ अपि [ अपि ] ओ० २३. रा० १६. जी० १।३४ अपुट्ठ [ अस्पृष्ट ] जी० ११४१ अपुलाभिय [ अपृष्टलाभिक ] ओ० ३४ अणवत्ता [ अपुनरावर्तक ] ओ० १६,२१,५४ अपुणवत्तय [ अपुनरावर्तक ] रा०८ अपुरावित्ति [ अनरावृत्ति, अपुनरावर्तिन् ] रा० २६२. जी० ३:४५७ अपुणरुत [ अपुनरुक्त ] रा० २६२, जी० ३०४५७ अपुण [अपूर्ण] रा० ७६३ अण्ण [ अपुण्य ] रा० ७७४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765 766 767 768 769 770 771 772 773 774 775 776 777 778 779 780 781 782 783 784 785 786 787 788 789 790 791 792 793 794 795 796 797 798 799 800 801 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854