Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 835
________________ ७५८ सामन्नओविणिवाइय-साला सामन्नओविणिवाइय [सामान्यतोविनिपातिक] सार [सार] ओ० १४,२३,४६. रा० ३७,१७३, रा० ११७,२८१ ६७१,६७६,६६५. जी० ३।२८५,३११,५८६, सामन्नतोविणिवातिय [सामान्यतोविनिपातिक] जी० ३१४४७ सारहय [शारदिक] जी० ३।२८२,८७२,६६० सामलतामंडवग [श्यामलतामण्डपक] सारक्खणाणुबंधि [सारक्षणानुबन्धिन् ] ओ० ४३ जी० ३१८५७ सारग [सारक, स्मारक'] ओ० ६७ सामलतामंडवय [श्यामलतामण्डपक] सारतिय [शारदिक] रा० २६ जी० ३।८५७ सारय [शारद] ओ० २७,७१. रा० ६१. सामलया [श्यामलता] मो० ११. रा० १४५. ___ जी० ३१५६२,५६७ जी० ३।२६८,३०८,३७७,३६०,५८४ सारयसलिल [शारदसलिल] रा०८१३ सामलयापविभत्ति [श्यामलताप्रविभत्ति] रा० १०१ सारस [सारस ] ओ० ६. जी० ३।२७५ सामलयामंडवग [श्यामलतामण्डपक] जो० ३।२६६ सारहि [सारथि] ओ०६४. रा० १७३,६७५, सामलयामंडवय [श्यामलतामण्डपक] जी० ३।२९७ ६८०६८१,६८३ से ६८५,६८८ से ६६०, सामलि [शाल्मली] जी० ३१५९६ ६६२,६६३,६६५ से ७१०,७१३,७१४,७१६ सामवेद [सामवेद] ओ० ६७ से ७३४,७३६,७४८. जी० ३१२८५ सामाइय [सामायिक ] ओ० ७७ सारा [दे०] जी० २६ सामाइयचरित्तविणय [सामायिकचरित्रविनय] सारिजंत [सार्यमान] रा० ७७ ओ० ४० सारीर [शारीर] ओ०७४ सामाणिय [सामानिक] रा० ७,४१,४८,५६ से साल [शाल] ओ० ६,१०. जी० ११७१; ३१५८३ ५८,२७६ से २८०,२८२,२८४,२८७,२८९, सालघरग [शालागृहक] रा० १८२,१८३. २६१,६५७,६५८,६६६. जी० ३।३३६,३५०, जी० ३।२६४ ३५६,४४२ से ४४६,४४८,४५५,४५७,५५७, सालणग [शालनक] जी० ३।५६२ ५५८,५६३,५६५,६३५,६३७,६५७,६५६,६८०१ सालभंजिया [शालभजिका] रा० १३३,१३६, ७००,७२१,७३८,७६०,७६३,८४३,८४६, २९४,२६६ से २६६,३१२,४७३. जी० ३।३००, १०२५ ३०३,३१६,३५५,३७२,४५६,४६१,४६२, सामाय [श्यामाक] रा० २६. जी० ३।२७६ ४७७,५३२ सामि [स्वामिन् ] ओ० ५६. रा० ६,६८१,७०७, सालभंजियाग [शालभञ्जिकाक] रा० १७,१८, ७२३,७२९,७३१,७३३ से ७३५,७५१,७५३ ३२,१३० सामित्त [स्वामित्व] ओ० ६८. रा० २८२. सालमंत [शाखावत् ] ओ० ५,८. जी० ३।२७४ जी० ३।३५०,५६३,६३७ सालवण [शालवन] जी० ३।५८१ सामुग्ग [समुद्ग] ओ० १६ साला [शाखा] रा० १३३,२२८. जी०३०३,३८७, सामुच्छेइय [सामुच्छेदिक ] ओ० १६० ५८०,६२१,६७२ से ६७४ सामुद्दग [सामुद्रग] जी० ३१७८० साय [सात] जी० ३।१२९६ १. 'सारय' त्ति अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकाः स्मारका साया [सात] जी० ३।११८,११६ वा अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात् (व)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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