Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 838
________________ सिय-सीओसिणवेदणा ७६१ सिय [स्यात् ] जी० ११४६,७३,८२, ३।५७,५८, २७० सियरत्त [सित रक्त] ओ० ४७ सिया [स्यात् ] जी० ३।८४,८५,११८,१६७, २७८ से २८५,६०१,६०२,८६०,८६६,८७२ से ८७८,६८२,१०८५,१०८६ सियाल [शृगाल] जी०३१६२० सिर [शिरस् ] ओ० ५२,७१. रा० ६१,७६,६८७ से ६८९ सिरय | शिरोज ओ०१६,५१. रा० १३३. जी० ३१३०३,५६६,५६७ सिरय [शिरस्क] ओ० ६३,६५ सिरसावत्त [शिरसावर्त ] ओ० २०,२१,५३,५४, । ५६,६२,११७. रा०८,१०,१२,१४,१८,४६, ७२,७४,११८,२७६,२७६,२८२,२६२,६५५, ६८१,६८३,६८६,७०७,७०८,७१३,७१४, ७२३,७६६. जी० ३।४४२,४४५,४४८,४५७, जी० ३१२८४,३८८,५८३ सिरीसव [सरीसृप] रा० ७१८. जी. ३१७२१ सिरोसिव [सरीसृप] रा० ७०३ ।। सिरोवेदणा [शिरोवेदना] जी० ३।६२८ सिलप्पवालमय [शिलाप्रवालमय] रा० २५४. सिला [शिला] ओ० १९,२३,४७. रा० २७, ६६५,७५५,७५७. जी० ३।२८०,५६६,६०८ सिलातल [शिलातल] जी० ३३५६६ सिलायल [शिलातल] ओ० १६ सिलिष [सिलिन्ध्र ओ० ४७ सिलेस [श्लेष] जी० ११७२१५ सिलोय [श्लोक] ओ० १४६. रा० ८०६ सिव [शिव] ओ० १४,१६,२१,५४. रा०८, २६२,६७१. जी० ३।४५७ सिवग [शिवक] जी० ३।७४० सिवमह [शिवमह] रा०६८८. जी० ३३६१२ सिवय [शिवक] जी० ३।७३४,७४१ सिवा [शिवा] जी० ३१९२०११,१२: सिविगा [शिविका जी० ३।७४१ सिविया [शिविका] ओ०७,८,१०. रा० ६८७ से ६८६. जी० ३।२८५ सिस्स [शिष्य ] जी० ३१६१० सिस्सिरिली [दे०] जी० ११७३ सिहंडि [शिखण्डिन्] ओ० ६४ सिहर [शिखर] ओ० ५. रा० ५२,५६,१३७, २३१,२४७. जी० ३।२७४,३०७,३७३ सिहरि [शिखरिन्] रा० २७६. जी० ३।२२७, ४४५,७६५ सीउंढी [दे०] जी० ११७३ सीओदा [शीतोदा] जी० ३।५६८,७०८ सीओभास [शीतावभास] ओ० ४. रा० १७०, १७३. जी० ३२७३। सीओया [शीतोदा] जी० ३।४४५ सीओसिणवेदणा [शीतोष्णवेदना] जी० ३।११२, ११३,११४ सिरिकता [श्रीकान्ता] जी० ३६८८ सिरिचंदा [श्रीचन्द्रा] जी० ३६६८८ सिरिणिलया [श्रीनिलया] जी० ३।६८८ सिरिवाम [श्रीदामन्] जी० ३४५६७ सिरिधर [श्रीधर] जी० ३८५४ सिरिप्पभ [श्रीप्रभ] जी० ३।८५४ सिरिमहिया [श्रीमहिता] जी० ३१६८८ सिरिली [दे० श्रीली] जी० १७३ सिरिवच्छ [श्रीवत्स ] ओ० १२,१६,५१,६४. रा० २१,४६,२५४,२६१. जी० ३।२८६, ३४७,४१५,५९६१ सिरी [श्री] रा० ४०,१३२,१३५,२३६,७३२, ७३७,७७४,७८२. जी० ३।२६५,३०२,३०५, ३१३,३६८,५८०,५८१,५६१ सिरीस [शिरीष] ओ० ६,१०. रा० ३१. १. श्रीवृक्षणाङ्कितं-लाञ्छितं वक्षो येषां ते श्रीवृक्षलाञ्छितवक्षसः (वृ० पत्र २७१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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