Book Title: Uvangsuttani Part 04 - Ovayiam Raipaseniyam Jivajivabhigame
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 805
________________ ७२८ वणिय-वस्थि ११३७,४१७,५।१७,३०,६८,१०,७।१०, ८५०,८५७,८८२,८८४,८८५,८८७,६१०, १३ से १५,१७,१८,६।३,४,५८,५६,८०,८३, ६११,६३६,१००८ १०३,१०५,११५,१२४,१२६,१३६,१३८, वण्णसंजलणया [वर्णसंज्वलनता] ओ० ४० १७७,१९४,२०७,२११,२१६,२१८,२२२, वण्णाभ[वर्णाभ ] रा १२४. जी. ३१७७.६३७. २२६,२३६,२४१ से २४३,२४६,२६२,२७७ ६५६,६६४,७३८,७४३,७६३,८१६,८५४, से २७६,२८१,२८२ ८७२ वणिय [वज्]ि आ० १ वण्णावास | वर्णावास] रा० १६,२०,२५ से २६, वणोवजीवि वनापजीविन्] रा० ७६५ ३७,४५,१३५,१४६,१७५,१६०,२२८,२४५, वण्ण [वर्ण] ओ० २,१३,२३,२५,४७,४६ से ५१, २५४,२७०. जी० ३।२६४,२७८ से २८२, ५५,७२,१६६,१७०,१६४. रा० ६,१२,२४ २८७,३०५,३११,३२२,३५६,३८७,४०७, से २६,३२,४५,५२,५६,१२८,१३०,१७१,१६६, ४१५,४३५,६४३,६५४,८६८ २३१,२४७,२८१,२८५,२६१,२६३ से २६६, वत्त [वर्त] ओ० १६. जी. ३५६६ ३००,३०५,३१२,३५५. जी० ११५,३४,३८,५०, वत्तमंडल [वृत्तमण्डल] ओ० ६४ ५८,७३,७८,८१, ३१५८,८३,८७,६४,१२७, वत्तव्य वक्तव्य ] ओ० ३३. जी० ६२५,९८२ २७१,२७७ से २८२,३००,३०६,३५३,३६०, वत्तव्वता [वक्तव्यता] जी० ३१५६६,८५६,८८६, ३७२,३६३,४४७,४५१,४५७ से ४६२,४६५, ६१३,६२५,६२७,६३२,६३४,६३५ ४७०,४७७,५१६,५२०,५५४,५७८,५८०, वत्तव्वया [वक्तव्यता] रा० ८२,२१५,३२१,७५० ५८६,५६१,५६२,५६५,५६७,६०१,६०२, से ७५३. जी. ३।३२,२५०,४१२,४३१,४३४, ६३७,६४५,६४८,६५६,६५६,७२४,७२७,७३८, ६७६,६६१,७०१,७१०,७७६,८००,८५६ ७४३,७६३,८६०,८६६,८७२,८७८,६७२, वत्तिय प्रत्यय] ओ० ५२. रा० १६,६८७,६८६ १०७५,१०७६,१०८१,१०६३ से १०६६ वत्थ वस्त्र] ओ० २०,३३,४७,४६,५१ से ५३,७२, वण्णओ [वर्णतस् ] जी० ११३५,५०,६६,१३६ १०७,१२०.१३०,१४७,१४६,१५०,१६२. वण्णग [ वर्णक ] ओ० ६३,१६१,१६३ रा० १५६,१५७,२५८,२७६,२८६,२६१, वण्णत [वर्णक] रा० २४३. जी० ३।२१७ ६८५,६८७,६८६,६६२,६६८,७००,७१४, वण्णतो [वर्णतस् ] ली० ३।२२,२७,४५ ७१६,७१६,७२६,७५२,७८६,७६४,८०२, ८०८,८१०,८११. जी०३।३२६,४१६,४४७, वण्णमंत वर्णवत्] जी० ११३३,३४ ४५२,५६,६७३,७७५,८७८,६३७,११२२ वण्णय वर्णक] रा० ६६,१५६, १६४.१७०,२०१, वत्थंत वस्त्रान्त] रा०६६ २०२,२०४ से २०८,२१६,२३३,२३४,२६१, ___ वयविहि [वस्त्रविधि] ओ० १४६. रा० ८०६ २६३.जी० ३।२६८,३१५ से ३१७,३२०,३२१, वत्थव्व [वास्तव्य] रा० २८२. जी० ३१४४२,४४८, ३३८,३५४,३५५,३५८,३६२,३६३,३६६, ५२७ ३६८,३७३,३७४,३७८,३६५,३६६,४०१४०६, वत्थव्वग वास्तपक जी० ३।३५०,४४६,५६३ ४२३,४२५,४२८,६३२ से ६३४,६३६ से ६४१, वत्थि / वस्ति] रा० ७६३. जी० ३१५६७ ६४६,६४७,६५०,६६१,६६८,६७३,६७४, ६७८,६७६,६८३ से ६८५,६८६,७०६,७३६, १. वत्रं च सूत्रवजनकम् [ओ० वृ०] । ७५४,७५६,७५६,७६२,७६८,८१२,८२३,८३६, वर्त ---सूत्रवलनकम् [जी० वृ०] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843 844 845 846 847 848 849 850 851 852 853 854