Book Title: Upsargahara Stotra Laghuvrutti
Author(s): Purnachandracharya, Bechardas Doshi
Publisher: Mohanlal Girdharlal Shah Bhavnagar

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Page 18
________________ हा इद हच्चक्राभिध चक्रं गुरुपरंपराऽऽगतं गुरुमुखाद् ज्ञात्वा कुङ्कुमादिसुरभिद्रव्यैः ताम्रभाजने, भूयात्रा 18/वाऽऽलिख्य, बहिश्च क्रस्य दक्षिणे पाचँ यक्षपतिमाम्, वामे पार्चे यक्षिणीविम्बमालिख्य त्रिसन्ध्यं जात्यादिकुसु-8| हिमैरभ्यर्च्य शौचरक्षादिपूर्व सकलीकरणं कृत्वा नासाने न्यस्तदृगद्वन्द्वः सदा ध्यायेत् सर्वसंपदादि करोति | 18. मूलमन्त्रश्च ध्येयः, स चायम्-ऐ ही श्री वली को श्री क्षौ प्लो ब्ली हूँ नमः, अथवा-ॐ ह्री श्री अह | नमिऊण, इति वा मन्त्रद्वयं जपेत् । 7 . ॐ नमो भगवओ अरिहओ पासस्स, सिज्ज्ञउ मे भगवई महाविज्जा, उग्गे महाउग्गजसे पासे सुपासे है। पासमालिणी ठः ठः स्वाहा । ___*एयाए विजाए चउत्थेण साहणं, पासनाहस्स जम्मरिक्खं जोइयव्वं । अट्ठोत्तरसहस्रजापेन । तओ एयाए। 18| विजाए जवियाए गामाइमु धूयवलिकम्मं कायव्वं, मारि-रोगभयं हरिऊण मुहसंपयं करेइ । चंदसेण-खमास-18| मणवयणाओ। चक्रोत्तीर्णा प्रस्तावात् कथिता । इति बृहच्चक्रविधिः । प्रथमं देवकुलमिदम् ॥ * एतस्या विद्यायाश्चतुर्थेन ( उपवासेन ) साधनम्, पार्थ नाथस्य जन्मऋक्षं द्योतितव्यम् ( द्रष्टव्यम् ) अष्टोत्तरसहस्रजापेन। तत एतया विद्यया जपितया प्रामादिषु धूतबालिकर्म कर्तव्यम् , मारी-रोगभयं हत्वा सुखसंपदं करोति । चन्द्रसेन-क्षमाश्रमणवचनात् । POOOOOO00000000000000000000000000 00000000000000000000000000000000000 Jain Education Internal For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ता

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