Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 4
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri

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Page 11
________________ समयमें दो उपआयेग नहीं हो सकते हैं, क्षायोपशमिकबान क्रमसे ही होते हैं, यह बतळाकर एक साथ कितने बान कैसे संभवते हैं, इसका सयुक्तिक विवेचन किया गया है। केवलज्ञान क्षायिक है, असहाय है, वह अकेला है, अतः एक ही है । पंच ज्ञानोंकी विशद व्याख्या करने के बाद मिथ्यात्वके साहचयसे मतिश्रुत अवधि ये तीन ज्ञान मिथ्यारूप भी होते हैं, मनःपर्यय और केवल मिथ्यारूप नहीं हो सकते हैं, इसका समर्थन किया गया है । अंतमें तत्वार्थाधिगम भेदके नामसे ग्रंथकारने जो प्रकरण निबद्ध किया है, वह विद्वानोंके लिए अत्यंत उपयोगी चीज है। वीतराग कथा और विजिगीषुकथाके द्वारा जो विद्वान् तत्वसिद्धि करना चाहते हैं, उनको इस प्रकरणका यथेष्ट उपयोग होगा। आचार्य विद्यानंदस्वामीने इस प्रकरणमें अपने ज्ञानकौशल के सारे वैभवको ओत दिया है। इस तरह यह खंड भी करीब ६०० पृष्ठोमें पूर्ण हुआ है। ___ हमारा अनुमान था कि कुछ ७ खंड इस ग्रंथराजके होंगे । पांच खंडोमें पहिला अध्याय . और शेष दो खंडोमें नौ अध्याय पूर्ण होंगे। परंतु प्रथमाध्याय इस चौथे खंडमें ही समाप्त हो गया है। आगेके नौ अध्याय तीन खंडोमें समाप्त हो जायेंगे । हम समग्र ग्रंथको शीघ्र हमारे विद्वान् पाठकोंके हाथमें देनेके प्रयत्नमें हैं। यह कार्य सामान्य नहीं है, यह इम निवेदन कर चुके हैं। इस कार्यमें कठिनाईयां भी अधिक है। संस्थाको भारी आर्थिक हानि हो रही है। परंतु संकल्पित कार्यको पूर्ण करना हमारा निश्चय है। यह तो हमारे विज्ञ पाठकोंको ज्ञात है कि आचार्य कुंथुसागर ग्रंथमालाके सदस्योंको यह ग्रंथ अन्य प्रकाशनोंके साथ विनामूल्य ही दिया जा रहा है । करीब ५०० सदस्योंको विनामूल्य भेंट जानेके बाद, और प्रायः वे ही स्वाध्यायाभिरुचि रखनेवाले होनेके कारण शेष प्रतियों को खरीदने. वाळे बहुत सीमित संख्या हैं । इसलिए हम अपने सदस्योंसे ही निवेदन करेंगे कि वे या तो कुछ सदस्य संख्या बढानेका प्रयत्न करें या अपनी ओरसे कुछ प्रतियोंको खरीद कर बैनेतर विद्वान्, विश्वविद्यालय, परदेशके विद्वान् बादिको भेटमें देनेकी व्यवस्था करें । आज ऐसे गंभीर दार्शनिक ग्रंथोंका परदेशमें यथेष्ट प्रचार होने की आवश्यकता है। बाज पाश्चात्य देशके जिज्ञासु विद्वान् दर्शन शानोंको अध्ययन करनेके लिए लालायित हैं । परन्तु उनके सामने रखनेकी आवश्यकत है। हमारे स्वाध्यायप्रेमी जिनवाणीभक्त इस ओर ध्यान देवें । इस प्रकार यह कार्य सुकर हो सकता है । बाशा है कि समाजके श्रुतभक्त सज्जन इस कार्यमें हाथ बटायेंगे। टीकाकारके प्रति कृतज्ञता - विद्यानंद स्वामीको विषय प्रतिपादनशैली जिस प्रकार अनुपम है, उसी प्रकार न्यायाचार्यजोको विषयको विशद करनेकी पद्धति अनूठी है । इस गहन ग्रंथके गूढ प्रमेय अध्ययन करनेवालोंके चित्तमें भाल्हाद करते हुए शीघ्र उतर जाते हैं। यह उनकी अगाधविद्वत्ता और दीर्घतरपरिश्रमका प्रत्यक्ष प्रमाण है। ३i

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