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मेरे तीन बजानेः प्रेम और अन-अति और अंतिम ठोबा
था। बड़ा सुख था। लोग कहते हैं, दूध-दही की नदियां बहती थीं। खूब था भोजन करने को, और लोगों ने खूब भोजन किया होगा। तत्क्षण उपवास महत्वपूर्ण हो गया।
यह तुमने कभी खयाल किया कि जब गरीब आदमी का धार्मिक दिन आता है तो वह भोज करता है, और जब .अमीर आदमी का धार्मिक दिन आता है तो वह उपवास करता है। बड़े मजे की बात है! लेकिन सीधा है, गणित तो साफ है। मुसलमान गरीब हैं, साल भर तो खींच-तान कर चलता है। हिंदू गरीब हैं, तो किसी तरह गुजारते हैं दिन।। लेकिन जब उत्सव का दिन आ जाता है, दिवाली आ गई, तो गरीब आदमी भी मिष्ठान्न खरीद लाता है। लक्ष्मी की पूजा का दिन आ गया, कि जन्माष्टमी आ गई, कि कृष्ण का जन्म हो रहा है, तो अब यह तो उत्सव का क्षण है : खाओ, पीओ, मौज करो। ईद आ गई, तो मित्रों को भी निमंत्रित करो। गरीब हैं मुसलमान, कपड़े रोज तो बदल नहीं सकते, पर ईद के दिन नये कपड़े पहन कर निकल आते हैं। धार्मिक दिन उत्सव का दिन है।
लेकिन जैन का उत्सव का दिन आए तो वह पर्यषण के व्रत रखता है। क्योंकि साल भर तो उत्सव चल ही रहा है, साल भर तो अति भोजन चल ही रहा है, तो अब धार्मिक दिन को कुछ तो भिन्न बनाना चाहिए। तो वह भूखा मरता है। और भूखा मरने से साल भर में जो स्वाद खो गया था वह फिर लौट आता है।
तो पर्युषण के दिनों में जैन भोजन तो नहीं करते, भोजन की कल्पना, फैंटेसी, खूब सोचते हैं कि दस दिन कब पूरे हो जाएं। बस एक ही प्रार्थना कि दस दिन कब पूरे हो जाएं। और दस दिन के बाद क्या-क्या करना है, क्या-क्या खाना है, उसकी फेहरिस्त बनाते हैं। तो लाभ है इससे भी कि भोजन में फिर स्वाद लौट आता है। बस इतना ही लाभ है, और कोई लाभ नहीं है। - अति से जो बच जाए वही समझदार है। न तो उपवास, न अति भोजन; सम्यक आहार। जितना शरीर के लिए जरूरी है, बस उतना। न इस तरफ ज्यादा, न उस तरफ ज्यादा। क्योंकि दोनों हालतें रुग्णता की हैं। स्वास्थ्य मध्य बिंदु है। स्वास्थ्य संतुलन है।
या तो लोग बहुत सोएंगे, या बिलकुल नहीं सोएंगे। या तो कोई काम ज्यादा कर लेंगे, पूरी जान लगा देंगे, और या फिर बिलकुल छोड़ कर बैठ जाएंगे। नहीं, ऐसे न चलेगा। अति कितनी देर खींच सकते हो तुम? अति कभी जीवन की शैली नहीं बन सकती। कैसे बनाओगे अति को जीवन की शैली? अगर उपवास करोगे, कितने दिन जीओगे? अगर ज्यादा खाओगे, तो भी कितने दिन जीओगे? भूख भी मार डालती है; अति भोजन भी मार डालता है।
__ अगर जीवन का सार समझना है तो मध्य में कहीं, सम्यक, संतुलित, जितना जरूरी है बस उतना। नींद भी जितनी जरूरी है बस उतनी; भोजन भी उतना जितना जरूरी है; श्रम भी उतना जितना जरूरी है। विश्राम भी उतना जितना जरूरी है। और हर आदमी को खोजना है अपना संतुलन, क्योंकि इसके लिए कोई बंधी हुई कोटि और धारणा नहीं हो सकती। क्योंकि लोग अलग-अलग हैं।
अब बूढ़े आदमी मेरे पास आते हैं। वे कहते हैं, नींद नहीं आती। मैं पूछता हूं कि कितनी आती है? वे कहते हैं, बस मुश्किल से तीन-चार घंटे।
पर बूढ़े आदमी को तीन-चार घंटे पर्याप्त है। बच्चा पैदा होता है, बीस घंटे सोता है। मरते वक्त भी तुम्हें बीस घंटे सोने का इरादा है ? जन्म के समय जरूरत है बीस घंटे की। क्योंकि बच्चे के शरीर में इतना काम चल रहा है कि अगर वह जागेगा तो काम में बाधा पड़ेगी। बच्चे के शरीर में निर्माण हो रहा है, उसे सोया रहना उचित है। अभी बढ़ रहा है बच्चा। गर्भ में तो चौबीस घंटे सोता है। क्योंकि उसका जरा सा भी जाग जाना, और बाधा पड़ेगी।
जब भी तुम्हारा शरीर थका होता है और निर्माण की जरूरत होती है तब नींद उपयोगी है। इसलिए तो चिकित्सक कहते हैं, अगर बीमारी हो और नींद न आए तो बीमारी से भी खतरनाक नींद का न आना है। पहले नींद
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