Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 15
________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालतिविरचितया समयार्थप्रबोधिन्याख्यया व्याख्यया समलङ्कृतम् ॥श्री-सूत्रकृताङ्गसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) ॥ अथ तृतीयबध्ययनम् ॥ व्याख्यातं द्वितीयाध्ययनम् , सम्पति क्रमप्राप्तं तृतीयमध्ययनं मारमते, द्वितीयाध्ययने स्वसमयपरसमययोनिरूपणमभिहितम् । तत्रापि परसमयस्य दोपा उक्ता, स्वसमयस्य गुणाश्च । प्रतिबुद्धपुरुपत्य संयमोत्थानेनोस्थितस्य कदाचिदनुकूलपतिकूलोपसर्गाः प्रादुर्भवेयुः । ते सोढव्या इति तृतीयाध्ययने कथ्यते । तस्येदमादिमं सूत्रम्-'सूरं मण्णइ' इत्यादि । मूलम्-सूरं मण्णइ अपाणं जाव जैयं न पस्तई। जुझंतं दढधम्नाणं सिसुपालोव्व महारहं ॥१॥ छाया--शूरं मन्यत आत्मानं यावज्जेतारं न पश्यति । युद्धयमानं दृढधर्माणं शिशुपाल इच महारथम् ॥१॥ तीसरे अध्ययन का प्रारंभद्वितीय अध्ययन की व्याख्या की जा चुकी। अब अनुक्रम से प्राप्त तृतीय अध्ययन आरंभ किया जाता है। द्वितीय अध्ययन में स्वसमय और परसमय का निरूपण किया है, और उसमें भी परसमय के दोष तथा स्वसमय के गुणों का कथन किया गया है। तीसरे अध्ययन में यह निरूपण करते हैं कि बोध सम्पन्न और संयम में परायण मुनि को कदा. चित् अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों की प्राप्ति हो तो उन्हें समभाव पूर्वक - ત્રીજા અધ્યયનને પ્રારંભ બીજા અધ્યયનનું વિવેચન પૂરું થયું હવે ત્રીજા અધ્યયનની શરૂઆત થાય છે. બીજા અધ્યયનમાં સ્વસમય અને પરસમસ્યાનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે અને તેમાં સ્વસમયના ગુણે અને પરસમયના દોષ પ્રકટ કરવામાં આવ્યા છે. હવે આ ત્રીજા અધ્યયનમાં એ વાત પ્રકટ કરવામાં આવે છે કે બધસંપન્ન અને સંયમમાં પરાયણ મુનિને ક્યારેક અનુકૂળ અને પ્રતિકૂળ ઉપસર્ગોની પ્રાપ્તિ

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