Book Title: Suktimuktavali
Author(s): Somprabhacharya, Ajitsagarsuri
Publisher: Shanti Vir Digambar Jain Sansthan

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Page 11
________________ सूक्तिमुक्तावली यस्मात् कारणात अम्भः पानीयं कमलानि सूते उम्पादयति पर तत्परिमलं तेषां कमलाना आमोदं वासा वायवो वितन्वति विस्तारयन्ति । तथा एनं अथं रचयिष्यामि परं ग्रन्यस्य विस्तारणं सजनाः करिष्यन्ति यतः पद्मानि बोधयत्यक"। काव्यानि कुरुते कविः तत्सौरमं नभस्वंतः सन्तस्तन्वन्ति तद्गुणान् । वा अथवा अनया मम मे अभ्यर्थनया सतामने प्रार्थनया किं अपि तु न किमपि कुतः यदि चेस भासां मम वाणीनां मध्ये गुणोऽस्ति ततस्तदा ते सन्तः स्वयमेव प्रथनं विस्तारं कर्तारः करिष्यन्ति यदि अस्मिनशास्त्र कश्चिद् गुणोभविष्यति तदा सन्तः स्वयमेव ममाभ्यर्थनया विनैव विस्तार करिष्यन्ति । अथ यदि चेत आसां मम वाणीनां मध्ये गुणो नास्ति तवा तेन प्रथनेन विस्तारणेन किं अपितु न किमपि । कथंभूतेन तेन प्रथनेन विस्तारणेन यशःप्रत्यर्थिना यशसः प्रत्यर्थि शत्रुभूतं यत्तत् यशःप्रत्यर्थि सेन यशःप्रत्यर्थिना यशसो विनाशकेन निर्गुणस्य विस्तारणेन अयश एव भवतीत्यर्थः ।। २ ।। अर्थ-निर्मल चिस वाले ससुरुष मेरे वचनों के विचार में लामवान् हो । जैसे जल कमलों को उत्पन्न करता है परन्तु पवन ( वायु ) मनको सुगन्ध को फैलाता है। कमलों की प्रार्थना से पवन सुगन्ध को नहीं विस्तृत करता परन्तु अपने स्वभाव से ही विस्तृत करता है उसी प्रकार यदि मेरे वचनों में गुण (पाहता का अंश ) है तो प्रार्थना से क्या लाभ और यदि गुण विद्यमान नहीं हैं तो भी प्रार्थना कर क्या साध्य है। भावाथ-इस श्लोक में भाचार्य ने अपनी लघुता एवं बड़े आचार्यों की महत्ता प्रगट की है कि-सत्पुरुष स्वभाव से ही गुण

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