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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६
जनवरी-जून २००४
जैन-दर्शन में रत्नत्रय
डॉ० अमरनाथ पाण्डेय*
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दर्शन एक विचार-प्रक्रिया है। वह लक्ष्य का निर्धारण करता है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधन का क्रम भी निर्धारित है, अत: दर्शन विचार-प्रक्रिया भी है और जीवनप्रक्रिया भी। जैन-दर्शन में जीवन-प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है। कहा गया है - 'ज्ञान के लिए जीवन नहीं है, बल्कि जीवन के लिए ज्ञान है।'
जैन-दर्शन में व्यवहार-पक्ष का विशेष उन्मीलन हुआ है। यहाँ मनुष्यों के लिए कठोर नियम निर्धारित किये गये हैं। यहाँ दर्शन को भी महत्त्व दिया गया है और चारित्र को भी। जैन-दर्शन में 'त्रिरत्न' का उपदेश प्राप्त होता है। भारतीय विचारधारा में 'त्रि' संख्या का विशेष महत्त्व है। शिवमहिम्नस्तोत्र में उल्लेख है -
त्रयीं तिस्त्रो वृत्तीस्त्रिभूवनमथो त्रीनपि सुरा - नकाराद्यैर्वणस्त्रिभिरभिदधत्तीर्णविकृति। तुरीयं ते धाम ध्वनिभिरवरुन्धानमणुभिः समस्तं व्यस्तं त्वां शरणद गृणात्योमिति पदम्।। - श्लोक २७
रत्नत्रय से सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र का ग्रहण होता है। हरिभद्रसूरि - विरचित षड्दर्शनसमुच्चय में कहा गया है कि भव्यव्व के परिपाक से जिसके सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक चारित्र सिद्ध हो जाते हैं, वह मोक्ष का पात्र हो जाता है -
तथा भव्यत्वपाकेन यस्यैतत् त्रितयं भवेत्। सम्यग्ज्ञानक्रियायोगाज्जायते मोक्षभाजनम्।। - कारिका ५४
जीव दो प्रकार के माने गये हैं - भव्य तथा अभव्य। अभव्यों में सम्यक्त्व आदि का अभाव होता है। भव्यों में भी भव्यत्व के पाक के बिना सम्यक्त्व आदि का अभाव ही रहता है। भव्यत्व का पाक हो जाने पर सम्यक्त्व आदि की निष्पत्ति हो जाती है"जीवा द्वेधा - भव्याभव्यभेदात्। अभव्यानां सम्यक्तवाद्यभाव:, भव्यानामपि भव्यत्वपाकमन्तरेण तदभाव एव, तथा भव्यत्वपाके तु तत्सद्भावः। ततोऽत्रायमर्थः। भविष्यति विवक्षितपर्यायेणेति भव्यः। तद्भावो भव्यत्वं नाम सिद्धिगमनयोग्यत्वम्।” * निवृत्त प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, म. गां० काशी विद्यापीठ, वाराणसी
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