Book Title: Siddhantasarasangrah
Author(s): Narendrasen  Maharaj, Jindas Parshwanath Phadkule
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 24
________________ (७) २४३ पृष्ठसंख्या पृष्ठसंख्या लोकाकाशका स्वरूप-निरूपण २१२ दशम परिच्छेद २४०-२६२ जीव लोकाकाशके कितने प्रदेशोंमें निर्जराके दो भेदोंका वर्णन २४० रहता है उसका स्पष्टीकरण २१३ बाह्यतपके भेद २४१-२४२ धर्मादिक द्रव्योंका जीव पुद्गलपर अन्तर्गततपके भेद २४२ उपकार २१४ प्रायश्चित्तकी निरुक्ति २४३ प्राणापानोंका स्वरूप तथा प्रायश्चित्तके अज्ञाता आचार्य २४३ उनकी मूर्तिकता, पुद्गलके और प्रायश्चित्तोंके नाम भी उपकार २१५.-२१६ पंचकल्याण प्रायश्चित्तका जीवके ऊपर जीवके उपकार २१६ स्पष्टीकरण २४३ आस्रवका लक्षण तथा उसके भेद २१६--२१८ उपवासका लक्षण २४४ कषायकी निरुक्ति, भेद और प्रायश्चित्त प्रकरणमें छह बातें २४४ स्वरूप २१८ प्रायश्चित्तके सोलह दोष २४५ इन्द्रियास्रव तथा क्रियास्रवके भेद २१९--२२२ कायोत्सर्गसे निवृत्त होनेवाले दोष २४५-२४६ तीव्रभावादिक आस्रवविशेष २२२--२२३ पुरुमण्डल प्रायश्चित्तके दोष २४६ ज्ञानदर्शनावरणोके आस्रवकारण २२३--२२४ असद्वेद्य तथा सद्वेद्य कर्मास्रवके अनन्तकायिक वनस्पतिका लक्षण २४६ कारण २२४--२२५ त्रसजीवके नाशका प्रायश्चित्त २४७ दर्शनमोहास्रवके कारण मिथ्याकारसे शुद्धि २४८ २२५-२२६ संघकार्यकेलिये वर्षाकालमें गमन चारित्रमोहके आस्रवकारण २२६-२२७ प्रायश्चित्ताह नहीं २४८ नरकायु आदिक आस्रवके कारण २२८-२२९ मैथुनसेवन-दोषका प्रायश्चित्त २४८ अशुभ तथा शुभनामास्रवके कारण २२९-२३० तीर्थकर कर्मास्रवके कारण २३०-२३१ ज्ञानादिमदसे साधर्मिकका अपमान करनेसे प्रायश्चित्त २४९ नीच गोत्र उच्चगोत्रास्रवके कारण २३१ अन्तरायास्रवके कारण २३१ कषाय करनेवालेको प्रायश्चित्त २४९ एक समयमें कितनी कर्म प्रकृतियोंका तर्कादि अध्ययन पार्श्वस्थादि आस्रव होता है २३१-२३२ मुनियोंसे करनेवालेको प्रायश्चित्त २४९ मिथ्यात्वके भेदप्रभेद २३२-२३४ प्राणीको मारते हुए देखनेसे भी कषाय बंधके कारण २३४-२३५ मुनिको प्रायश्चित्त २४९ कर्मकी उत्तर प्रकृतियां २३५-२३६ संघपालनार्थ राजस्नेह करना स्थितिबंधादिक चार बंधोंका प्रायश्चित्त नहीं है २५० स्वरूप २३६-२३७ कालकी अपेक्षासे प्रायश्चित्त २५१ संवर तथा उसके भेदोंका दश क्षेत्रोंके नाम २५१ निरूपण २३७-२३८ । उत्कृष्ट प्रायश्चित्त कहां देना ? २५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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