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पहला परिच्छेद भी जीवन-डोरी लम्बी थी; इस लिये किसी हिंसक प्राणी ने उस पर आक्रमण नहीं किया। जो रत्न के हिंडोले पर झूलती थी, पुष्य शैय्यापर सोती थी, कभी कठोर भूमि पर पद भी न रखती थी, वह आज वन पशुओं से पूरित भयंकर जंगल में, अंधेरी रात्रि के समय अकेली भटक रही थी! कालकी कुटिलता का इससे भयंकर प्रमाण और क्या हो सकता है?
समय अपना काम कर रहा था। धीरे-धीरे रात्रि व्यतीत हुई। सूर्योदय होने पर रानी को रास्ता सुझाई दिया और वह जंगल को छोड़कर एक वास्तविक पथ पर आ लगी। प्रतिपल उसे यह भय लगा हुआ था कि कहीं अजीतसेन के सैनिक उसे पकड़ न ले जायें। किन्तु इस भय से मुक्त होने का कोई उपाय उसे सूझ न पड़ता था। इसी समय राजकुमार को भूख लगी। उस बेचारे को क्या खबर थी, कि दुर्दैव ने आज उसे राज-सिंहासन से उठाकर रास्ते का एक भिखारी बना दिया है। उसने सदा की भाँति माता से मिश्री मिले दूध की याचना की। माता के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली। उसने किसी तरह कुमार को समझाबुझा कर शान्त किया और द्रुतवेग से आगे की राह ली।
कुछ दूर आगे चलने पर रानी को सात सौ कोढ़ियों का एक दल मिला। इस दल के लोग नाना प्रकार की व्याधियों से ग्रसित हो रहे थे। अधिकांश गलित कुष्ट से .
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