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श्रीपाल-चरित्र खबर न होनी चाहिये। यदि राजकुमार बच जायेंगे, तो फिर किसी दिन यह राज्य हस्तगत कर सकेंगे। इस समय इसके सिवा और कोई उपाय मुझे दृष्टिगोचर नहीं होता।
मन्त्री की यह सलाह रानी को मजबूरन माननी पडी। पांच वर्ष के पत्र को गोदी में ले, वह उसी रात को महल से चल पड़ी। उसकी आँखों से अश्रुधारा बह रही थी, हृदय टूक-टूक हो रहा था, किन्तु पुत्र के प्राणों की ममता उसे उस राज-मन्दिर और उस नगरी को छोड़ने के लिये बाध्य कर रही थी जहाँ उसने वर्षों तक राजमहिषी के स्थान पर रहकर, विपुल सुख-सम्पत्ति और ऐश्वर्य का उपभोग किया था। न उसने कभी धूल देखी थी, न सेर भर बोझ उठाया था, न कभी पैदल चलने का ही उसे काम पड़ा था। आज दैव दुर्विपाक से उसे इन सभी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। रात का समय था। चारों ओर घोर अन्धकार था। उसे पद-पद पर ठोकरें लगती थीं। सुकोमल चरणों में काँटे और कंकड़ लगने से रुधिर की धारा बह रहीं थी, बारम्बार हिंसक प्राणियों के भीषण नाद उसका कलेजा कँपा देते थे। झाड़ियों में उलझ-उलझ कर उसके वस्त्र चीथड़ों में परिणत हो गये थे। फिर भी वह अपने जीवन सर्वस्व राजकुमार को लिये हुए उत्तरोत्तर आगे बढ़ती जाती थी। सत्य और सतीत्व यह दोनों उसके प्रबल साथी थे। राजकुमार की
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