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श्राद्धविधि/१
* मंगलाचरण 2 अपनी अपूर्व महिमा और मनोवांछित के दान से विद्वानों को प्रतिदिन पाँच मेरुपर्वत और पाँच प्रकार के कल्पवृक्षों की इस प्रकार याद दिलाने वाले गौरवपात्र श्री अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु रूप पंचपरमेष्ठि-भगवन्त सर्वश्रेष्ठ प्रात्मदशा (मोक्ष) प्रदान करें।
गणधर सहित वीर प्रभु, श्रुतवचन एवं सद्गुरुओं को प्रणाम कर स्वरचित 'श्राद्धविधि' प्रकरण का कुछ विवेचन करता हूँ।
* टोका-प्रयोजन * युगप्रधान तपागच्छ-अग्रणी श्री सोमसुन्दर गुरुदेव की वाणी से तत्त्वों का बोध प्राप्त कर प्राणियों के हित के लिए प्रयत्न करता हूँ। मूलग्रन्थ का मंगलाचरण
राजगृही नगरी में अभयकुमार के पूछने पर वीर प्रभु ने श्रावकाचार (श्राद्धविधि) का जो वर्णन किया था, श्री वीर प्रभु को नमस्कार कर उसी श्राद्धविधि का श्रुतानुसार कुछ वर्णन करता हूँ।
केवलज्ञान, अशोकवृक्ष आदि अष्ट महाप्रातिहार्य तथा वाणी के पैतीस गुणों से युक्त चरमतीर्थंकर वीर प्रभु ने अपने पराक्रम से कर्मों को नष्ट किया है इसलिए उनका 'वीर' नाम सार्थक है। कहा भी है★ 'जो कर्मों को नष्ट करते हैं और तप से सुशोभित हैं, तप और वीर्य से युक्त होने के कारण ___'वीर' कहलाते हैं। * राग और द्वेष को जीतने के कारण 'जिन' कहलाते हैं । ★ वोर तीन प्रकार के होते हैं--दानवीर, युद्धवीर और धर्मवीर ।
जैसे कहा है-“करोड़ों स्वर्ण के (दान) द्वारा जगत् के दुःखदायी दारिद्रय को दूर करके प्रभु दानवीर बने। मोहादिवंश में उत्पन्न हुए गर्भस्थ (सत्ता में स्थित) शत्रुओं को भी समाप्त कर प्रभु युद्धवीर बने और निःस्पृह मन से केवलज्ञान में हेतुभूत तप करके प्रभु धर्मवीर बने; इस प्रकार तीनों प्रकार से वीर के यश को धारण करने वाले श्री वीर तीर्थपति विजय को प्राप्त हों।"
मूल श्लोक में 'श्रीवीरजिन' पद से प्रभु के चारों अतिशय (अपायापगमातिशय, पूजातिशय, ज्ञानातिशय और वचनातिशय) सूचित हो जाते हैं । श्राद्धविधि ग्रन्थ के द्वार
श्रावकजन के अनुग्रह (उपकार) के लिए श्राद्धविधि ग्रन्थ में दिनकृत्य, रात्रिकृत्य, पर्वकृत्य, चातुर्मासिककृत्य और जन्मकृत्य रूप छह द्वार कहे जायेंगे।
+ पांच दिव्य कल्पवृक्षों के नाम-१. कल्प २. पारिजात ३. मन्दार ४. हरिचन्दन और ५. सन्तानक ।