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उदितोदय राजाकी कथा ।
और आपकी आज्ञाका भी मैं पालन कर सकूँ। यह सुनकर राजाने मनमें विचारा कि इस सेठकी धर्ममें बड़ी ही श्रद्धा है । इस पुण्यात्मासे तो मेरे शहरकी शोभा है । __ इत्यादि विचार कर राजा बोला-सेठ महाशय, तुम धन्य हो, तुम कृतार्थ हो, तुम्हारा ही मनुष्य जन्म सफल है, जो तुम ऐसे कौमुदी-महोत्सवके समयमें भी धर्मके लिए उद्यम कर रहे हो । सचमुच तुमसे मेरे राज्यकी शोभा है। आप जाइए और निडर होकर अपने परिवारके साथ सब धर्म कार्योंको कीजिए । मैं भी तुम्हारे इस कार्यकी अनुमोदना करता हूँ। ऐसा कह कर राजाने उस सोनेकी थालीको भी लौटा दिया तथा अपनी ओरसे अच्छे अच्छे रेशमी वस्त्र और आभूषण भेंटकर सेठको बिदा किया । सेठ बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उसने फिर बड़े आनन्दसे अपने परिवारके साथ दिनमें प्रतिमा-वन्दनादि कार्य समाप्त किया, रातको अपने घरके चैत्यालयमें पूजा की तथा जिनेन्द्रभगवान्के सामने बड़ी भक्तिसे देवोंके भी मनको हरनेवाला और राजाओंको दुर्लभ उत्सव मनाया। सेठकी आठों स्त्रियोंने भी धार्मिकबुद्धिसे अपने पतिका अनुकरण किया । वे भी उस उत्सवमें मधुर स्वरसे जिनेन्द्र भगवान्का गुणगान करने लगी, ताल, मँजीरे और दुन्दुभि आदि बाजोंको बजाने लगी और नृत्य भी करने लगीं। शहरके और और लोगोंने भी आमोद प्रमोदसे वह दिन बिताया । रातको वे सब अपने अपने घरोंमें ही रहे।
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