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जैन साहित्य में वर्णित जन-कल्याणकारी संस्थाएँ
इन विश्रीमालयों का उल्लेख किया है । ३७ जातक साहित्य में इनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकरी मिलती है । वहां ऐसी धर्मशालाओं को सभा कहा गया है। राज्यों के सीमान्त पर ये सभाए बनी हुई होती थीं ।३८ नगर का फाटक बन्द हो जाने पर भी यात्री इन सभाओं में रात्रि व्यतीत कर सकता था ।३८ एक जातक से ज्ञात होता है कि इस प्रकार की सभा को बनवाने में न केवल पुरुषों, अपितु स्त्रियों का भी सहयोग रहता था । सभा में यात्रियों के सोने-बैठने के लिए चौकी और पानी की व्यवस्था होती थी । छाया के लिए पेड़ और सुरक्षा के लिए फाटकदार चाहारदीवार होती थी ।४०
जैन साहित्य में इन सभाओं को ग्रामसभा तथा आगमनगृह कहा गया है, जिनमें सभी तरह के यात्री ठहरते थे ।४१ साध्वियों को इन आगमनगृहों में ठहरने का निषेध था। मन्दिर भी यात्रियों के ठहरने का प्रमुख स्थान था ।४२ कुवलयमाला में प्रपा के साथ मंडप को दान देने का उल्लेख है। संभवतः इस समय तक प्रपा, मंडप और सत्रागार ये तीनों ही एक साथ बनने लगे थे, जिससे यात्रियों को सभी सुविधाएं साथ में मिल जाये । बौद्ध साहित्य में प्रयुक्त सभा शब्द और प्राकृत साहित्य का मंडप शब्द दोनों मिलकर सभा-मंडप के रूप में प्रचलित हो गया है, जो आतिथ्य के काम आता है । उद्द्योतनसूरि ने अनाथमंडप का वर्णन किया है, जिसमें रोगी, विकलांग, परदेशी, व्यापारी, तीर्थयात्री, पत्रवाहक आदि लोग यात्रा के दौरान ठहरते४३ थे । अनाथ बच्चों का भी वहां ठिकाना था। ऐसे कल्यणकारी मंडपों का नाम शिवमंडप (कल्याणकारी मंडप) भी पड़ गया था । भरुकच्छ नगर के चौराहे पर एक शिवमंडप था, जिसमें अकेली राहगीर स्त्रियां भी ठहर सकती थीं । ४४ जैन साहित्य में ऐसी धर्मशालाओं के लिए वसति शब्द का भी प्रयोग हुआ है । ४५
आरोग्य-शाला :
सम्राट अशोक ने अपने शिलालेखों में चिकित्सालयों की व्यवस्था का उल्लेख किया है।४६ ज्ञाताधर्मकथा में श्रेष्ठियों द्वारा चिकित्साशाला खुलवाने का उल्लेख है ।४७ कुवलयमाला में कहा गया है कि नगर के सेठ आरोग्यशालाएं चलाते थे । औषधिदान की जैन साहित्य में विशेष प्रतिष्ठा थी ।४८ प्राकृत साहित्य में औषधि विज्ञान का विस्तृत विवेचन है।५०
सार्थ :
प्राचीन भारतीय समाज में सार्थ एक महत्वपूर्ण संस्था थी । यातायात के प्रारम्भ से लेकर मध्ययुग तक सार्थ ने भारतीय समाज को बहुत प्रभावित किया है । ५१ व्यापारी समाजने सार्थ जैसी महत्वपूर्ण व्यवस्था के द्वारा समाज के अनेक उत्साही युवकों को देशान्तर की यात्रा कगयी है। उन्हें आजीविका प्रदान की है । उन में पुरुषार्थ जगाया है । सार्थ यात्रा करने वाले साधु-सन्तों तीर्थयात्रियों, विद्यार्थियों एवं अन्य सामान्य व्यक्तियों के लिए एक बहुत वड़ा सहारा था । सार्थ एक तरह से यातायात के लिए पूरे समाज का पथ-प्रदर्शक रहा है। अभय, सुरक्षा, आजीविका, पुंजी, मार्गदर्शन आदि के लिए सार्थ एक निरापद सहारा था।
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