Book Title: Sambodhi 1982 Vol 11
Author(s): Dalsukh Malvania, H C Bhayani, Nagin J Shah
Publisher: L D Indology Ahmedabad

Previous | Next

Page 485
________________ ... श्रीपार्श्वनाथचरितमहाकाव्य बन्धमेदा मोहरागद्वेषस्पन्दादिसम्भवाः । अणूनां स्निग्धरूक्षत्वात् परिणामात् यथात्मनः ॥१३३। निःशेषकर्म निर्मो क्षो मोक्षः स प्रागुदीरितः । आलोकान्तादूर्वगाः स्युः सिद्धा मोक्षपदस्थिताः ।।१३४।। ते पञ्चदशधा साध्याः नृगतित्रसभव्यजैः । पञ्चेन्द्रिययथाख्यातक्षायिकत्वभवैर्गुणैः ॥१३५।। अनाहारकसंज्ञित्वकेवलज्ञानहरभवैः । मार्गणास्थानकैरेतैर्न शेषैस्ते यथायथम् ।।१३६॥ सत्पदाद्यनुयोगैस्तु साध्या नवभिरन्वहम् । न तेषां पुनरावृत्तिः संसृतौ क्वापि संसृतिः ॥१३७॥ नात्मशून्या भवेत् तावत् सिद्धाः संसारिणां पुनः । भागेऽनन्ते वर्तमानास्तेऽनन्ताः शाश्वता अपि ।।१३८॥ बद्धानामपि मुक्तत्वे स्याद्धानिन क्षयः क्वचित् । . आनन्त्यं हेतुरेवात्र धर्माणामिव वस्तुनः ।।१३९।। इत्यमीषां पदार्थानां श्रद्धानं प्रीतिपूर्वकम् । तत्सम्यग्दर्शनं ज्ञातं तेषां भेदप्रकाशकम् ।।१४।। (१३३) ये सब प्रकार के बन्ध मोह, राग, द्वेष, स्पन्दन आदि से उत्पन्न होते हैं । जैसे एक अणु का दूसरे अणु से बन्ध स्निग्धता और रुक्षता से होता है उसी प्रकार आत्मा का कर्मो से बन्ध (मोह-रोग-द्वेषादि रूप) परिणाम के कारण होता है । (१३४) निःशेष कर्मो का क्षय मोक्ष है। उसका निरूपण पहले किया गया है । (मुक्त होते ही जीव) लोक के अग्रभाग तक ऊर्ध्वगमन करता है । जिन्होंने मोक्षपद प्राप्त किया है वे सिद्ध हैं । (१३५-१३६) सिद्धों के पन्द्रह (१५) प्रकार माने गये है। इन सब प्रकारों में नृगति, स, भव्यत्व, पञ्चेन्द्रियत्व, यथाख्यात चारित्र्य, क्षायिकत्व,अनाहाराकत्व, सज्ञित्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन-इन मार्गणास्थनों से ही, अन्य मार्गणास्थानों से नहीं, यथोयोग्य विचार किया जाता है। (१३७-१३९) सत्पदादि नव अनुयोगों से भी ये पन्द्रह प्रकार के सिद्धों की प्रतिदिन विचारणा की जाती है । सिद्ध संसार में पुनः नहीं आते । संसार कभी आत्माओं से रहित नहीं होता क्योंकि सिद्धों की संख्या अनन्त होते हुए भी संसारी जीवों की जितनी संख्या है उसके अनन्त भाग की ही सदैव रहेगी । इसलिए संसारी जीव मुक्त होते रहते हैं फिर भी संसारी जीवों का क्षय (संसार में से) नहीं होता, केवल उनकी कमी ही होती है । (१४०) इन सब पदार्थों में प्रीतिपूर्वक श्रद्धा सम्यक् दर्शन माना गया है। सम्यक् दर्शन ही इन सब पदार्थो का भेद ग्रहण कराता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502